काशी में सांड, साधु और संन्यासी ही नहीं, किसान, जवान और बेरोजग़ार भी हैं मुद्दे

सात चरणों के भारतीय चुनावी उत्सव में बनारस-वाराणसी-काशी संसदीय क्षेत्र का चुनाव आखिरी चरण में अति महत्वपूर्ण बन गया है। सब जगह चुनाव प्रचार से खाली हुए संघ परिवार के सदस्य अब काशी में बड़ी उत्सुकता से सांड, साधु और संन्यासियों का मन टटोलने में जुट गए हैं। वे घर-घर और कान-कान में फुसफुसाते हैं ‘अबकी फिर मोदी सरकार।’

काशी के सांड तो संघ परिवार के सदस्यों को उनके गले में केसरिया उत्तरीय और फूलमाल देख कर बड़े अंदाज से अपनी सींगे हिलाते हुए उनकी ओर बढ़ते हैं। साधु इन्हें देखते हैं तो कमंडल उठा कर कहते है, ‘राममंदिर नही ंतो अबकी नहीं।’ सन्यासी अपने खल्वाट पर हाथ फेरते हुए बुदबुदाते है,’ न जाने कितने मंदिर, घर बाजार नष्ट कर दिए।’ वाराणसी संसदीय क्षेत्र में बड़ी तादाद में हैं परेशान भूमिहीन और छोटे किसान जिनके बैंक के खातों में अब तक कोई राशि नहीं पहुंची। वाराणसी, आजमगढ़, जौनपुर, गाजीपुर आदि के भी जवान यही हैं जो देश की विभिन्न सशस्त्र बलों में हैं। लेकिन भोजन और अपने अधिकारियों के रवैए से बेहद खिन्न हैं। शिक्षा की नगरी कही जाने वाले वाराणसी में बड़े पैमाने पर बेरोजग़ार नौजवान हैं। जिन्हें नहीं पता उनके ‘अच्छे दिन कब आएंगे।’ तेज धूप में गमछा लपेटे ये बेरोजग़ार नौजवान संघ परिवार की बहुरूपिया बनी टोली को देखते ही गंगा तट की ओर चले जाते हैं। ऐसा तो है हाल क्योटो बनते पुराने शहर बनारस का!

एक दौर था जब वाराणसी संसदीय क्षेत्र के ही एक पूर्व प्रधानमंत्री ने देश को ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। उस पूर्व प्रधानमंत्री को वाराणसी ससंदीय क्षेत्र की जनता आज भी बड़े आदर भाव से याद करती है। तब के समाज में इतने ज़्यादा विभाजन नहीं हुए थे जो आज पांच साल में वाराणसी संसदीय क्षेत्र में बहुत साफ नजऱ आते हैं। तब एक मज़बूत राष्ट्र की कल्पना थी। आज मज़बूती की सिर्फ चर्चा है।

राष्ट्रीय चुनाव आयोग ने अपनी भेदभरी निगाहों के चलते उस जवान को इस संसदीय क्षेत्र में चुनाव लडऩे की अनुमति नहीं दी। इससे देश का लोकतंत्र क्या मज़बूत हुआ? उस जवान ने शायद यही बताना चाहा कि देश की रक्षा में जुटे जवान की तस्वीरें ही दिलकश होती हैं। उन्हें समुचित पुष्ट आहार भी नहीं दिया जाता। उस जवान को अच्छी तरह पता था कि उसके पास न धनशक्ति है, न उसके नाम का जयकारा करने वाले समर्थक हैं, और न वाराणसी की सड़कों पर शोभायात्रा करने की चमक-दमक। वह तो एक प्रतीक के तौर पर देश के लोकतंत्र को मज़बूत करने के लिहाज से चुनाव लडऩा चाहता था।

छोटे और भूमिहीन किसानों ने जब लोकतंत्र को मनमाने तंत्र में बदलते देखा तो उन्हें अपने खेतों में ही पुरजा-पुरजा होकर मरना पसंद आया, क्योंकि महाराष्ट्र में नासिक से मुंबई तक की पदयात्रा दो बार करने के बाद भी सिर्फ कोरे आश्वासन मिले। भूखे-प्यासे किसान तमिलनाडु से दिल्ली के जंतर-मंतर पहुंचे। अपनी दुर्दशा की कहानी उन्होंने खुद को नंगा कर कंकालों केे जरिए सौ दिन तक जताई लेकिन न कहीं राजा था और न बेताल। किसी ने आंसू तक नहीं पोंछे।

तमिलनाडु के एक सौ ग्यारह किसानों ने वाराणसी संसदीय क्षेत्र से नामांकन दाखिल करने की सोची लेकिन कौन कान सुनता? उधर तेलंगाना के 185 किसानों ने अलबत्ता नामांकन दाखिल किया। उनकी लंबी सूची पर मतदान के प्रबंध की भी सोची गई। पर सब खारिज। वाराणसी संसदीय क्षेत्र तो अति महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र है न! यह है देश का लोकतंत्र जहां नौकरशाही हावी है। सारी रोक-टोक के बाद अलबत्ता जग-जाहिर हो गया कि भाजपा किसानों के लिए किए अपने ही वादे पूरे नहीं कर पाई।

क्या हरियाणा और पंजाब के किसान और जवान ये सारी बातें पिछले पांच साल में होते नहीं देखते रहे हैं। सिर्फ पार्टियों का ज़ोर रहा हैै, मतदाताओं और उम्मीदवाारों के चयन में जाति, धर्म का आधार। इस 17वें आम चुनाव में प्रधानमंत्री उनकी पार्टी के अध्यक्ष ने लगातार देशप्रेम, सेना, नेहरू-गांधी, खानदान, धर्म और जाति केंद्रित चुनाव प्रचार किए। भाषा जितनी भी कटु और गाली-गलौच भरी हो सकती थी वह रखी। ग्यारह-बारह शिकायतों पर राष्ट्रीय निर्वाचन आयोग ने सुना ही नहीं कर्रावाई तो दूर। जनता सब देखती सुनती और समझती है। उसे आज नही ंतो जल्दी ही इन सारी गलत बातों के विरोध में खड़े होना ही होगा। ऐसा नहीं है कि ये बातें भाजपा और संघ परिवार समझ नहीं रहा है। लेकिन वे लाचार हैं। न मार्ग दर्शक मंडल की कहीं चलती है और पार्टी के तपे-तपाए बुजुर्ग नेताओं से ही कोई समान स्तर पर बातचीत ही करता है। पार्टी के अंदर कई स्तरों पर भयंकर घमासान है। जिसे संघ से आए हुए लोग समझते हैं लेकिन उनकी मजबूरी है कि वे खुद जनता से मत का दान लेने में सक्षम नहीं हैं।

वाराणसी संसदीय क्षेत्र में प्रधानमंत्री केंद्रीय प्रोजेक्ट विश्वनाथ कॉरिडोर और गंगा व्यू को अमल में लाने के लिए रुपए 600 करोड़ मात्र की परियोजना पर काम शुरू हुआ। एक चरण पूरा किया गया है। शिव और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां तोड़ी गई। मंदिर, घर, गलियां आज विशाल मैदान बन गई हैं। श्रद्धालुओं का काशी विश्वनाथ दरबार में पहुंच पाना और गंगा किनारे पहुंचना बेहद श्रम साध्य हो गया है। कभी इन्ही ऐतिहासिक गलियों में स्वाधीनता की लड़ाई लड़ी गई थी। आज चंद ही गलियां हैं जिन पर संतोष भी नहीं किया जा सकता।

बनारस यानी काशी की संस्कृति सांड, साधु और संन्यासी की रही है। आज वह संस्कृति न तो पारंपरिक हैं और न यह जापानी क्योटो ही बना जिसका आश्वासन सिर्फ तस्वीरों में दिया गया था। नदी किनारे के दूसरे शहरों की ही तरह वाराणसी में भी सिर्फ गंगा आरती होती है। आरती उस गंगा की जिसमें आज भी सीवेज के 81 नाले गिर रहे हैं। एनजीटी के आदेशों की यहां धज्जियां उड़ाई जाती हैं। गंगा आज भी मैली है। कोई नहीं जातना कब -कौन भगीरथी फिर साफ गंगा का प्रवाह काशी में कर पाएगा। जबकि काशी अति महत्वपूर्ण संसदीय क्षेत्र वाराणसी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है।

परचा काशी वासियों का

काशी है महादेव, मां अन्नपूर्णा,

मोैलाना अल्वी, शेख अली हाजी,

बुद्ध, रैदास, पाश्र्वनाथ, कबीर का

काशी नहीं फजऱ्ी फकीर का

तआलल्लाह बनारस चश्म-ए बद्दूर

बहिश्त-ए-खुर्रम-ओ-फिरदौस-ए-मामूर

इबादतखान-ए-नाकूसियां अस्त-ए-हमाना

काबा-ए-हिंदोस्तां अस्त

(हे परमात्मा, बुरी नजऱ से बनारस को दूर रखना क्योंकि यह आनंदमंय स्वर्ग है। यह घंटा बजाने वालों यानी हिंदुओं का पूजा स्थान है। यानी यही हिंदुस्तान का काबा है।)मिजऱ्ा गालिब