कारखानों के जहरीले धुएं में दम तोड़ती जि़ंदगी

अचानक हुए ज़ोरदार धमाके ने पूरे बिल्डिंग को हिलाकर रख दिया …दरवाजे खुल गए खिड़कियों के कांच टूट गए… बिल्डिंग में रहने वाले लोग घबरा गए मैं बाहर आई देखा तो धुआं ही धुआं…. लिफ्ट बंद थी नीचे जाना भी मुमकिन नहीं था बच्चे चिपक गए थे उनकी घबराने की आवाज पूरे बिल्डिंग में सुनाई दे रही थी अफरा-तफरी का माहौल था कौन बचाने आता है ऐसे वक्त में… अगर बदकिस्मती से टैंक फट जाते तो हम में से यहां कोई जिंदा नहीं दिखता… हम आज भी घबराए हुए हैं हम चाहते हैं कि हमें यहां से दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया जाए।’

‘पिछले साल 11 अगस्त को गैस लीक हुई थी सब डरे हुए थे सहमे हुए थे सब सोच रहे थे की अगर ज्य़ादा गैस लीक होती तो कौन जिंदा बचता? वैसे भी आसपास की कंपनियों से निकलने वाली गैसों ने हमारी जि़ंदगी लगभग खत्म कर दी है दुनिया भर की बीमारी है किसी को सांस लेने में तकलीफ किसी को दिल की बीमारी तो किसी को चमड़ी का रोग किसी के बाल झड़ रहे हैं हम लोग तिल तिल कर मर रहे हैं…माहूल गांव में भी लोग ऐसे ही जी रहे हैं।’

‘दुनिया सुबह उठकर सांस लेती है तो उन्हें स्वच्छ हवा मिलती है लेकिन हमें यहां की ज़हरीली हवा में सांस लेना पड़ता है बदबू जहरीली गैस शरीर की चमड़ी ऐसी जैसी जला दी गई हो सांस लेने में परेशानी होती है गले के भीतर जलन होती है क्या करें सांस लेना बंद कर दें…. सी लॉर्ड कंपनी की वजह से सब हो रहा है हमें पता है हम सांस ले रहे हैं उस हवा में जहर है हमारी सांसे बंद हो जाएंगी लेकिन इन कंपनियों से निकलने वाला ज़हर कभी बंद नहीं होगा दरअसल इंसान की कीमत ही क्या है?’

सच कहा जाए तो यह सभी हमारी मौत का तमाशा देख रहे हैं …तिल-तिलकर मरते देखने का लुत्फ उठा रहे हैं यह जानते हैं कि जिस जगह में हमें भेजा गया है वह इंसान के रहने के काबिल नहीं है फिर भी भेज दिया गया है इससे बेहतर तो वह लोग थे जिन्हें हिटलर ने गैस चैंबर में भेज दिया था उनको यह तो पता था कि उनकी मौत निश्चित है हमें तो यहां जीने के लिए भेजा गया है….।

कुर्ला के संतोषी माता नगर से अपने परिवार के साथ आई थी 2012 में हमें पता नहीं था कि हम लोगों को जिस जगह शिफ्ट किया जा रहा है मौत की गुफाएं है यहां पर आने के बाद मेरी मां को सांस लेने की तकलीफ होने लगी डॉक्टर ने बताया यहां का वातावरण उन्हें सूट नहीं हो रहा था… कहां जाते हमारा घर जो कुर्ला में था वह तोड़ा जा चुका था सब कुछ खत्म हो गया 1 साल के अंदर मेरे माता और पिता दोनों नहीं रहे मेरी भी तबीयत ठीक नहीं है पता नहीं मैं रहूंगी या नहीं। मेरा 11 साल का बच्चा नहीं बच पाया… इलाज करवाया… लेकिन उसकी जि़ंदगी लील गया माहूल… जबसे इस जगह पर आए बीमारी ने पकड़ लिया था… कौन यहां पर खुश हैं? सभी बर्बाद हो रहे हैं…।

हम किसी का नाम नहीं दे रहे नाम से क्या है नाम अलग अलग हैं चेहरे अलग अलग हैं लेकिन दर्द सभी का कमोबेश एक सा ही है।

यह माहुल है। मुंबई उपनगर चेंबूर और ट्रांबे से लगा छोटा सा गांव। माहुल में 30000 से अधिक प्रोजेक्टर अफेक्टेड पीपल रह रहे हैं यानी पीएपी। यहां के ट्रांजिट कैंप में इन्हें मुंबई के अलग अलग इलाकों से यहां लाकर बसाया गया कुछ…कुर्ला, विद्याविहार, घाटकोपर के हैं… कुछ बांद्रा महालक्ष्मी के तो कुछ तानसा पाईप लाईन या फिर माजगांव के। यह सब लोग अपने अपने-अपने इलाके में, भले ही छोटे-मोटे कमरों में थे लेकिन अपनी जिंदगी अपनी तरह से हंसते खेलते गुजार रहे थे। कभी शहर के सुधार के नाम पर कभी शहर के विकास के नाम पर और कभी सुरक्षा के नाम पर उनके बने बनाए आशियाने को उजाड़ दिया गया।

स्लम रिहेबिलिटेशन अथॉरिटी (एस आर ए ) ने यहां पर 7 मंजिला इमारतों का निर्माण कराया था। 72 इमारतों में वन रूम किचन है। देखरेख का जिम्मा बीएमसी के पास है इन इमारतों के आसपास हिंदुस्तान पेट्रोलियम, भारत पेट्रोलियम के रिफाइनरीज हैं। सी लॉर्ड कंटेनर्स, अजीज लॉजिस्टिक लिमिटेड टाटा पावर और आरसीएफ यानी राष्ट्रीय केमिकल फर्टिलाइजर फर्टिलाइजर्स है। इन्हीं कंपनियों से निकलने वाली प्रदूषित जहरीली गैस ने इन तमाम लोगों की जिंदगी जीते जी नरक बना रखी है।

2014 में यहां के निवासियों ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल में अपनी स्थिति के बारे में और सीलार्ड कंटेनर्स के खिलाफ शिकायत की थी। यहां पर 10 स्टोरेज टैंक जिनमें तकरीबन 7.30 करोड़ लीटर केमिकल है जिससे कैंसर होता है। ऐसे ही खतरनाक रासायनिक कंपाउंड है जो आसानी से वाष्पिकृत हो जाते हैं। एनजीटी ने अपनी रिपोर्ट में इस जगह को इंसानों के लिए असुरक्षित बताया है। यहां पर टाउलीन डायआइसोसाइनेट की मात्रा 45.9 मिलीग्राम पर क्यूबिक मीटर पाई गई है। अमरीकी सुरक्षा मानकों के तहत यह मात्रा 0.14 मिलीग्राम पर क्यूबिक मीटर मानी गई है। इस की अधिकता के चलते इंसान को कई प्रकार के खतरनाक बीमारियां हो सकती हैं। श्वसन संबंधी बीमारियां अस्थमा और हृदय से संबंधित बीमारियां हो सकती हैं। भारत पेट्रोलियम और हिंदुस्तान पेट्रोलियम रिफाइनरीज द्वारा उगली जा रही है गैस पर भी सवालिया निशान उठाया गया था। हैरान करने वाली बात यह है कि जिस फैक्ट्री पर एनजीटी ने सवालिया निशान उठाए थे महाराष्ट्र प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में उन्हें क्लीन चिट दे दी थी! हलांकि 2014 -15 की रिपोर्ट में महाराष्ट्र का प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड ने इस बात का जिक्र जरूर किया है कि वहां पर निकले बैंजोपायरीन की मात्रा निर्धारित मानकों से अधिक है। साथ-साथ बेंजीन, टाउलीन, झायलीन जैसी गैसों का समावेश किया गया है।

2013 में मुंबई के केई एम हॉस्पिटल ने एक सर्वे किया था इस इलाके में रिपोर्ट के अनुसार इस इलाके में स्वास्थ्य संबंधी बीमारी सबसे बड़ी समस्या है। तकरीबन 60 फ़ीसदी से ज्य़ादा लोगों को एक महीने में तीन बार से अधिक सांस लेने की दिक्कतों से जूझना पड़ता है। बावजूद सी लॉर्ड कंटेनर्स आज भी वहीं पर है! सभी केमिकल इकाई, फैक्ट्री जस के तस हैं। और जिंदगी से जद्दोजहद करते विस्थापित, पुनर्वासित और बदकिस्मत लोग भी वहीं पर। माहुल के निवासियों की समस्याओं को लेकर मुखर मेघा पाटकर सवाल पूछती है ऐसा कैसे हो सकता है कि जो इलाका इंसानों की रिहायशी के लिए असुरक्षित है वहां पर लोगों को जीने के लिए भेज दिया जाता है माहुल में सेटल और रिसेटल करना हाईकोर्ट के आदेश के खिलाफ है। घुटने आर्डर दिया है कोर्ट ने की माहुल में किसी को शिफ्ट न किया जाए सुरक्षित नहीं है।

16 लाख देकर माहूल में सुविधाओं के सर्वे करने की बात की है क्योंकि सुरक्षा के मुद्दे की बात को दबा दिया गया है और वहां पर सुविधाओं का मसला उठाया गया। इन विस्थापितों के पुनर्वास के लिए जगह का रोना रोने वालों को कौन बताए कि जगह की कमी नहीं है…. कुर्ला में 6000 घर खाली है भांडुप घाटकोपर कांजुरमार्ग में जगह की कमी नहीं है ..तत्काल टेंपरेरी शिफ्टिंग करते हैं तो इन्हें राहत मिल सकती है यह सारी जगह बीएमसी, एसआरए और म्हाड़ा के अंतर्गत आती है। प्रदूषण की वजह से सौ के करीब लोगों की जिंदगी चली गई है, बीमारियों के चलते लोग परेशान हैं, जिन इमारतों में यह लोग हो रहे हैं उन बिल्डिंग में दरारें पड़ चुकी है, लिफ्ट बंद है, पानी टपकता है चारों तरफ गंदगी है… सीवरेज का पानी ओवरफ्लो होकर बहता है नारकीय जीवन है यहां के लोगों का… फिर भी सरकार क्यों चुप बैठी है? बीएमसी अपनी सीमाओं की, मजबूरियों की बात कहकर यह काम राज्य सरकार का है कहते हुए हाथ खड़े कर देती है… इनकी मौत का जिम्मेदार कौन है?

यहां पर प्रदूषित हवा तो है ही इसके अलावा दूषित पानी भी है गंदगी है जिसके चलते यहां बीमारियां तेजी से फैलती है लोगों की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम होती जाती है। साफ सफाई का कोई सरोकार नहीं है। पीने का पानी नल में सिर्फ 1 घंटे आता है। स्कूल और अस्पताल नजदीक नहीं। स्किन, ब्लड प्रेशर, सांस की बीमारी अस्थमा, आंखों में जलन, गले में जलन सूजन इन सब चीजों से परेशान लोगों को इलाज कराने के लिए घाटकोपर, सायन या फिर क्राफड़ मार्केट जाना पड़ता है जो यहां से काफी दूर है। आने जाने की सुविधा के नाम पर सिर्फ बेस्ट की दो बसें हैं। स्टेशन काफी दूर है यहां पर विस्थापितों की आय काफी कम है। आना जाना बहुत खर्चीला हो जाता है। दरअसल यह जो लोग जिस इलाके में रहते थे उनकी रोजी-रोटी उसी आसपास के इलाके से जुड़ी हुई थी।

राज्य रोजगार के अभाव में आर्थिक रुप से तंगी नेवी इनकी जिंदगी को तकलीफ दे बना दिया है। छोटे-मोटे प्राइवेट क्लीनिक नज़दीक थे और सरकारी अस्पताल की सुविधा भी थी और सरकारी स्कूल भी। आनन फानन में सरकार ने इन्हें यहां पर भेज तो दिया लेकिन बुनियादी सुविधाएं देना भूल गईं। घर बचाओ घर बनाओ आंदोलन के बिलाल खान कहते हैं मुझे आप दुनिया का कोई भी हिस्सा बता दें जहां पर जीते-जागते अच्छे लोगों को ऐसी जगह पुनर्वासित किया जाता है जहां के हालात बद से बदतर है इससे बेहतर वे झोपडिय़ों में ही रहते हैं जहां पर कम से कम हवा तो साफ़ थी।