कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश

नाराज़ नेताओं को साथ जोडऩे की क़वायद में जुटा गाँधी परिवार

कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बचे दो साल में पार्टी संगठन को दोबारा खड़ा करने की क़वायद में जुट गयी है। इसके तहत युवा नेतृत्व और युवा टीम की मुहिम को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी है। पाँच राज्यों के चुनाव नतीजों ने चिन्तित कांग्रेस को झिंझोडक़र रख दिया है। गाँधी परिवार भी महसूस कर रहा है कि साझे नेतृत्व के साथ आगे बढऩा अब पार्टी की ज़रूरत है। हालाँकि यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस का युवा नेतृत्व फेल हो गया। लेकिन इस नेतृत्व को माहिर रणनीति बना सकने वाले सलाहकार नहीं मिल सके। जी-23 नेता भले गाँधी परिवार पर अब सवाल उठाते हों; लेकिन परिवार के समर्थक कहते हैं कि भाजपा के नेता जब भी कांग्रेस पर हमला करते हैं, उनके सामने राहुल गाँधी ही खड़े रहते हैं। सरकार को देश के हर महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर पूरे विपक्ष में यदि किसी नेता ने पूरी ताक़त से घेरा है, तो वह राहुल गाँधी ही हैं।

कांग्रेस में अब साझे नेतृत्व की गम्भीर कोशिश होने लगी है और जी-23 के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी के साथ मिलकर संगठन चुनाव तक पार्टी की नयी टीम गठित में जुट गये हैं। सितंबर के संगठन चुनाव में कांग्रेस इस नयी टीम की घोषणा करेगी। लेकिन उससे पहले ही कुछ आमूल-चूल परिवर्तन संगठन में किया जा सकता है।

पार्टी से बाहर किये गये लोगों को वापस लाने की कोशिश शुरू करने के साथ-साथ अनुभवी नेताओं को संगठन में उच्च पद देने की तैयारी पार्टी करने जा रही है। ऐसे में हो सकता कि अभी तक बिना किसी बड़े ओहदे पर बैठे होने के बावजूद पार्टी के सभी फ़ैसले लेने वाले राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को उनकी भूमिकाएँ समझा दी जाएँ। हाँ, यह हो सकता है कि सितंबर में होने वाले अध्यक्ष के चुनाव में राहुल गाँधी को ही उतारा जाए। लेकिन उन्हें संगठन को चला सकने और चुनाव जिता सकने वाले सलाहकार दिये जाएँगे, न कि उनकी मर्ज़ी के।

हाल के वर्षों में कांग्रेस से बाहर किये गये नेताओं को वापस संगठन में लाने के क़वायद भी हो सकती है, ताकि अनुभवी और युवा नेताओं को मिलाकर एक मज़बूत टीम खड़ी की जा सके, जो भाजपा को चुनौती दे सके। हाल के वर्षों में दो दर्ज़न से ज़्यादा प्रभावशाली नेता कांग्रेस से बाहर गये हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी थे, जिनका अच्छा जनाधार था। वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि संगठन चुनाव से पहले पार्टी से बाहर गये वरिष्ठ नेताओं को साथ जोडऩे की मुहिम शुरू की जाए।

कांग्रेस इस बात को लेकर दुविधा में है कि भाजपा के ख़िलाफ़ सामूहिक गठबंधन का हिस्सा हुआ जाए या नहीं। कारण यह है कि टीएमसी नेता ममता बनर्जी, जो तीसरे मोर्चे के गठन के लिए काफ़ी उत्सुक हैं; कांग्रेस को साथ लेने के लिए गम्भीर नहीं हैं। ममता ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा गठबंधन बनाने के हक़ में दिखती हैं, जिसमें कांग्रेस और वाम दलों को वह नहीं चाहतीं। कांग्रेस में इस समय जी-23 के नेता तीन तरह के हैं। एक वे, जो गाँधी परिवार से पार्टी को मुक्त करने के हक़ में हैं। दूसरे वे, जो गाँधी परिवार के साथ मिलकर और सभी वरिष्ठ नताओं को तरजीह देकर इसे मज़बूती देने के समर्थक हैं। तीसरे वे हैं, जो मौक़ा देखकर किसी भी दल में जा सकते हैं। जी-23 गुट में सबसे ज़्यादा वो नेता हैं, जो सभी वरिष्ठ नेताओं को तरजीह देकर और गाँधी परिवार के साथ मिलकर कांग्रेस को मज़बूती देना चाहते हैं। ग़ुलाम नबी आज़ाद के ज़रिये इसकी कोशिश शुरू होती भी दिखी है।

राहुल-प्रियंका की भूमिका

गाँधी परिवार के वे वफ़ादार, जो राहुल-प्रियंका के ज़रिये पार्टी में मज़बूत हैं; वरिष्ठ नेताओं की वापसी नहीं चाहते। लेकिन जो नेता गाँधी परिवार के नज़दीकी इन नेताओं के कटु आलोचक हैं, वे पार्टी की वर्तमान हालत के लिए उन्हें ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका आरोप है कि पार्टी जनता से कट गयी है और आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में कांग्रेस के लिए गम्भीर राजनीतिक चुनौती सामने है। यह वरिष्ठ नेता मानते हैं कि कांग्रेस का अभी भी व्यापक जनाधार है। लेकिन इसे सँभाला नहीं गया, तो पार्टी को सिमटते देर नहीं लगेगी। लिहाज़ा इसे सँभालने का बेहतर समय है। कई नेता इसे लेकर आवाज़ उठाते रहे हैं।

जी-23 के नेता हिमाचल के पूर्व मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘आम आदमी पार्टी निश्चित ही कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश में है। लेकिन देश की जनता कांग्रेस को ही भाजपा के विकल्प के रूप में देखती है। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि कांग्रेस को मज़बूत करने की कोशिश न की जाए। हम हाल के वर्षों में कई बड़े चुनाव हारे हैं और हमारा संगठन लचर हुआ है। जनता का हमसे मोह भंग होना गम्भीर चिन्ता की बात है।’

कांग्रेस में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की वर्तमान भूमिकाओं को लेकर भी सवाल हैं। पार्टी में कई नेता मानते हैं कि दोनों निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं और उनके ज़रिये ही राज्यों में नियुक्तियाँ और अन्य फ़ैसले होते हैं। नाराज़ नेताओं का सवाल यह है कि वे किसी ओहदे पर नहीं, फिर वे किस अधिकार से यह फ़ैसले कर रहे हैं? पंजाब का उदाहरण देते हुए यह नेता कहते हैं कि राहुल-प्रियंका के यह फ़ैसले कारगर नहीं रहे। नाराज़ पार्टी नेताओं का मानना है कि संगठन की मज़बूती और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने के लिए हाल के वर्षों में कुछ नहीं हुआ है। बस नेताओं को हटाने और अपनी पसन्द के नेताओं को ओहदों पर बैठाने के अलावा कुछ नहीं हुआ है। इससे संगठन लचर हो गया है और पार्टी में बड़े ओहदों पर ऐसे लोग बैठ गये हैं, जो न तो बेहतर रणनीतिकार हैं और न ही चुनाव जिता सकने वाले नेता।

नाम न छापने की शर्त पर पार्टी के एक सांसद ने कहा- ‘राहुल-प्रियंका तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक राज्यों में संगठन मज़बूत नहीं होगा। मज़बूत नेता, बिना मज़बूत कार्यकर्ताओं के नहीं बन सकता। लेकिन अफ़सोस की बात है कि वर्तमान में गाँधी परिवार के आसपास ऐसे नेता नेता जमे हुए हैं, जिनमें अनुभव और क्षमता दोनों की कमी है। गाँधी परिवार के युवा प्रतिनिधियों (राहुल-प्रियंका) को इन लोगों से पीछा छुड़ाकर अनुभवी नेताओं को साथ जोडऩा होगा।’

इसके अलावा कांग्रेस के भीतर हाल के महीनों में एक और चर्चा से पार्टी को नुक़सान हुआ है। यह है कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के अलग-अलग गुट बनना। पंजाब के मामले में यह साफ़ दिखा था कि राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी के साथ थे, जबकि प्रियंका गाँधी नवजोत सिंह सिद्धू के साथ। आधिकारिक रूप से कभी इसकी पुष्टि नहीं हुई, क्योंकि प्रियंका गाँधी हमेशा ख़ुद को राहुल गाँधी के समांतर दिखाने से बचती रही हैं। कांग्रेस के कुछ नेता यह भी मानते हैं कि राहुल-प्रियंका के बीच खाई पैदा करने की यह भाजपा की चाल थी, वास्तव में दोनों मिलकर काम करते थे। हालाँकि इन सब बातों से इतर कांग्रेस का एक बड़ा सच यह भी है कि उसके पास राष्ट्रव्यापी छवि वाले नेता राहुल गाँधी ही हैं। राहुल गाँधी के आलावा पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं, जिसे पूरे देश में जाना जाता हो। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग है, जो यह मानता है कि भाजपा का नेतृत्व राहुल गाँधी से ही ख़ुद के लिए ख़तरा मानता है। लिहाज़ा एक सुनियोजित योजना के तहत राहुल गाँधी की छवि को ख़राब करने की कोशिश हुई है। उन्हें पप्पू के रूप में बदनाम करना भी इसी का एक हिस्सा है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी कांग्रेस में राहुल गाँधी के ही सबसे ज़्यादा समर्थक हैं। उन्हें पसन्द करने वाले कहते हैं कि राहुल भाषा में सौम्य हैं और वह विपक्षियों पर कटु तरीक़े से हमला नहीं करते। दूसरा सच यह है कि उन्होंने जनता से जुड़े मुद्दों को मरने नहीं दिया है और अकेले ही इन पर हमेशा बोलते रहे हैं। उनके अलावा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही ऐसी नेता हैं, जो भाजपा और मोदी के ख़िलाफ़ मुखर दिखती हैं। अभी यह साफ़ नहीं है कि क्या जी-23 के नेता राहुल गाँधी को अध्यक्ष पद के लिए स्वीकार करेंगे? या फिर वे प्रियंका गाँधी के नाम पर या अपने किसी नेता के नाम पर ज़ोर देंगे?

कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो जी-23 के कुछ नेताओं को ‘भाजपा का एजेंट’ बताते हैं। उनका आरोप है जब भी राहुल गाँधी पर भाजपा के नेताओं ने हमला किया या कांग्रेस को कोसा, यह नेता (जी-23) चुपचाप बैठे रहे। कांग्रेस के एक नेता ने कहा- ‘पार्टी में राहुल गाँधी ही सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। चुनाव हुए और जी-23 ने किसी को उनके ख़िलाफ़ उतारा, तो भी राहुल गाँधी बड़े बहुमत से जीतेंगे।’

कार्यकर्ता मानते हैं कि 2004 में जब कांग्रेस के नेनृत्व में यूपीए सत्ता में आयी थी, तो लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीती थी। उस दौरान विधानसभा चुनावों में भाजपा का भी वही हाल होता था, जो आज कांग्रेस का हो रहा है। केरल से कांग्रेस के एक सांसद ने कहा कि भाजपा के चुनाव जीतने को लेकर भी देश के एक बड़े वर्ग में सवाल हैं। क्योंकि यह सोचने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है, जो यह मानते हैं कि चुनावों में गड़बड़ होती है।

राज्यों में कमज़ोर हुई कांग्रेस

कांग्रेस राज्यों में लगातार कमज़ोर हुई है। सिर्फ़ दो राज्यों में उसकी सरकार है, जबकि कुछ जगह वह गठबंधन में है। ऐसा नहीं कि जहाँ उसकी सरकार नहीं, वहाँ उसका जनाधार शून्य हो गया है। कांग्रेस भाजपा के बाद अभी भी देश में सबसे ज़्यादा विधायकों वाली पार्टी है। भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस विधायकों की संख्या देश में लगभग आधी है। हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश के 18 राज्यों में भाजपा की सरकार है। वैसे जो बड़े राज्य हैं और जहाँ भाजपा जीती है, वे राज्य देश की क़रीब 50 फ़ीसदी आबादी वाले हैं। कांग्रेस का देखें, तो क़रीब 22 फ़ीसदी आबादी वाले राज्यों में उसकी सरकारें या गठबंधन वाली सरकारें हैं। हाल के वर्षों में राज्यों में कांग्रेस से छिटककर गये नेताओं के क्षेत्रीय दल ही सत्ता में हैं। इनमें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश भी शामिल हैं, जहाँ कांग्रेस के पास एक भी सीट नहीं, जबकि वहाँ इससे पहले दशकों कांग्रेस की सत्ता रही है। कांग्रेस ने इन राज्यों में संगठन को फिर से खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं की। संगठन को मज़बूत करने के लिए वहाँ के नेताओं की कोई बैठक तक नहीं हुई। ऐसे में क्षेत्रीय दल ही कांग्रेस पर भारी पड़ चुके हैं और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरह वहाँ कांग्रेस सहयोगी दल की भूमिका निभा रही है, जबकि वहाँ उसकी ख़ुद की वर्षों तक सत्ता रही है।

अब राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेता कांग्रेस को किसी भी सूरत में मज़बूत नहीं होने देना चाहते। उन्हें पता है कि ऐसा होने का मतलब होगा, उनका ख़ुद का कमज़ोर होना। लिहाज़ा इन राज्यों में यह दल कांग्रेस के विरोधी की भूमिका निभा रहे हैं। बिहार में यही हालत है, जहाँ जेडीयू, आरजेडी और भाजपा आज प्रमुख दल हैं; जबकि कांग्रेस पिछलग्गू की भूमिका में। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी भी मानते हैं कि कांग्रेस मोलभाव की ताक़त हासिल किये बिना क्षेत्रीय दलों से बातचीत नहीं कर सकती। चौधरी कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी गठबंधन पर ज़ोर दिया जाना चाहिए; लेकिन मोलभाव की ताक़त हासिल करना ज़्यादा ज़रूरी है। कांग्रेस नेता ने कहा- ‘अगर हम यह सोचते हैं कि क्षेत्रीय दल हमें सत्ता हासिल करने देंगे, तो मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। सत्ता पाने के लिए किसी की दयालुता की नहीं, बल्कि मज़बूत होने की ज़रूरत है।’

ऐसे में यदि अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) का विस्तार और होता है, तो कांग्रेस के लिए निश्चित ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। दिलचस्प और कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण सच यह है कि आम आदमी पार्टी ऐसे राज्यों में ख़ुद को विकल्प के रूप में सामने लाने की कोशिश कर रही है, जहाँ भाजपा की मुख्य विरोधी कांग्रेस है। गुजरात, हिमाचल और राजस्थान में आम आदमी पार्टी ने अपने संगठन के विस्तार के लिए पंजाब में जीत के बाद काफ़ी तेज़ी दिखायी है, जिससे उसकी मंशा ज़ाहिर होती है।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव, जो कभी कांग्रेस में ही थे; हाल के तीन महीनों में काफ़ी सक्रिय हुए हैं। उन्होंने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवा तीसरे मोर्चे के गठन के लिए ली है। ममता बनर्जी के विपरीत राव कांग्रेस के प्रति नरम दिखते हैं और उनका कहना है कि बिना कांग्रेस के भाजपा के ख़िलाफ़ कोई भी मज़बूत तीसरा मोर्चा नहीं बनाया जा सकता। यह राव ही थे, जिन्होंने एक भाजपा नेता की राहुल गाँधी के प्रति विवादित टिप्पणी पर भाजपा नेता को लताड़ लगायी थी।

 

“कांग्रेस ने हमेशा समावेशी और सामूहिक नेतृत्व वाले मॉडल का पालन किया है। पार्टी लगातार आंतरिक चुनाव करा रही है और कोई भी इसमें भाग ले सकता है। यह सही है कि कांग्रेस लगातार चुनाव हारी है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसके लिए सिर्फ़ नेतृत्व ज़िम्मेदार है। नियमित अंतराल पर सीडब्ल्यूसी की बैठकें भी हो रही हैं। भाजपा का लक्ष्य कांग्रेस को ख़त्म करना है। क्योंकि उसे पता है कि उसे सिर्फ़ यही पार्टी टक्कर दे सकती है।’’

                                   अधीर रंजन चौधरी

लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता

 

“हमारा मक़सद देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को बचाना है। मिलकर ही हम ऐसा कर सकते हैं। देश की जनता की कांग्रेस से ढेरों अपेक्षाएँ हैं। भाजपा जिस तरह देश का बँटबारा कर रही है, उसका बहुत नुक़सान आने वाली पीढिय़ों को झेलना होगा। पार्टी में जी-23 जैसा कोई गुट नहीं है। हम कांग्रेस को पुरानी ताक़त देना चाहते हैं। इतनी बड़ी पार्टी में कुछ मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोई पार्टी को तोडऩे की कोशिश कर रहा है। मज़बूत होकर ही हम भाजपा का मुक़ाबला कर सकते हैं।’’

                                  ग़ुलाम नबी आज़ाद

वरिष्ठ कांग्रेस नेता, (‘तहलका’ से बातचीत में)