कांगे्रस के लिए बहुत कठिन है डगर उत्तराखंड की

देश में 17वीं लोकसभा के लिए आम चुनावों की घोषणा के साथ ही उत्तराखंड में चुनावी हलचल ने जोर पकड़ लिया है। केंद्र और राज्य में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के लिए उत्तराखंड में चुनौतीपूर्ण डगर तो जरूर है लेकिन कांग्रेस के आपसी कलह और टांग खिंचाई के मौहोल से भाजपा ने भी काफी राहत की सांस ली है। इस बात का भी भाजपा को खासा आभास और एहसास है कि एंटी इनकंबेंसी फैक्टर(सत्ता विरोधी लहर) की संभावना को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

उत्तराखंड में पांच लोकसभा सीटों पर वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी ही काबिज है। प्रदेश विधानसभा में भी 70 में से 57 भाजपा के ही विधायक हैं कांग्रेस के कुल 11 और दो निर्दलीय विधायक है। स्थानीय निकायों में भी भाजपा की अच्छी स्थिति है। पार्टी के प्रदेश नेतृत्व को इस पूरे सूरते हाल में अपनी पांच लोकसभा सीटों को बरकरार रखने में कोई संशय नहीं दिखाई दे रहा है। उधर कांग्रेस के पास प्रदेश में बड़े चेहरों के नाम पर ले देकर सिर्फ हरीश रावत ही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत को उत्तराखंड के नेताओं में जैसे डॉ इंदिरा हृदयेश, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह और पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष किशोर उपाध्याय पहले ही नहीं पचा पा रहे थे कि कांग्रेस हाईकमान ने हरीश रावत की पार्टी में राष्ट्रीय महासचिव के पद पर ताजपोशी करके यह साफ संदेश दे दिया की काबलियत को किसी आवाज से नहीं दबाया जा सकता। इसमें कोई दो राय नहीं कि हरीश रावत को आज भाजपा के अलावा और कई मोर्चों पर अकेले ही जूझना पड़ रहा है। बावजूद इसके हरीश रावत एक ज़मीनी जनाधार वाले नेता हंै फिर भी सूबे में कांग्रेस के ही कुछ नेताओं को उनसे अजीब सा अलगाव है। कड़वी असलियत यह भी है कि सूबे में दूसरी पंक्ति के नेताओं जैसे डॉ इंदिरा हृदयेश, प्रीतम सिंह और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय को आज भी हरीश रावत फूटी आंख नहीं भाते। कांग्रेसियों के की आपसी खींचतान से मतदाता भी पशोपेश में है। एक तो सूबे की पांचों सीटों पर पहले ही भाजपा का पलड़ा भारी है, दूसरा प्रदेश विधानसभा में 81 फीसद के बहुमत के साथ भाजपा के 57 विधायक विराजमान हैं। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व वाली भाजपा की सरकार में हैवीवेट नेता कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज और कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत पार्टी के अग्रणी नेताओं में हैं। पौड़ी, टिहरी, हरिद्वार, अल्मोड़ा और नैनीताल लोकसभा सीटों पर सिर्फ पौड़ी को छोड़कर शेष चारों सीटों पर पार्टी के प्रत्याशी यथावत रहेंगे। पौड़ी से भाजपा इस बार शौर्य डोभाल को अपना प्रत्याशी बनाने का मन बना चुकी है। शौर्य राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल के पुत्र हैं । अजीत डोभाल आज की स्थिति में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे विश्वासपात्रों में से एक है। पौड़ी सीट से निवर्तमान सांसद मेजर जनरल भुवन चंद खंडूरी स्वास्थ्य कारणों की वजह से चुनाव नहीं लड़ेंगे।

 महीने भर से कम समय के भीतर उत्तराखंड में लोकसभा के पहले चरण का मतदान 11 अप्रैल को होना है। मतदाता इस बार खामोश है। मतदाता इस बात को गहनता से टटोलने की कोशिश करेगा कि नेताओं के चुनावी वादों की हकीकत क्या है। भाजपा के पास मोदी लहर, पाकिस्तान में एयर सर्जिकल स्ट्राइक और राम मंदिर जैसे राष्ट्रीय मुद्दों के अलावा उत्तराखंड में स्थिर सरकार के जरिये चौमुखी विकास की बदौलत वोट मांगने का बहाना है। साथ ही भाजपा शहीदों के परिवारों को लेकर भी बहुत संवेदनशील है। अभी हाल ही में चार मार्च को रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने राजधानी देहरादून में शहीदों के परिजनों को सम्मानित किया। समारोह में रक्षा मंत्री ने स्वयं प्रत्येक शहीद के परिवार के सदस्य को शॉल और गुलदस्ता भेंट करने के बाद बकायदा उनके पैर भी छुए। भाजपा के विरोधियों और आम लोगों ने इसे भले ही चुनावी ‘स्टंट’ समझा हो लेकिन उस सिपाही की विधवा या मां के लिए इससे बड़ा और कोई सम्मान नहीं हो सकता था कि देश की रक्षा मंत्री ने उनके पांव छूकर उनके पुत्र या पति की शहादत को यहां आकर सलाम किया। उत्तराखंड में सैन्य सेवाओं में जाना दशकों पुरानी परंपरा रही है। यहां के फौजियों के वोट और बैलट वोट किसी भी प्रत्याशी की जीत हार में एक अहम भूमिका अदा करते हैं। कांग्रेस कार्यकाल की तुलना में बेशक भाजपा के समय में शहादतों की संख्या ज्यादा रही है लेकिन बावजूद इसके आम राज्यवासी पर मोदी का जादू बरकरार है।

कांग्रेस के पास पूरे चुनावी महाकुंभ में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के अलावा ऐसा कोई और बड़ा चेहरा नहीं है जो उत्तराखंड में भाजपा की भगवा ब्रिगेड का मुकाबला कर सके। स्वास्थ्य कारणों से सोनिया गांधी की इन चुनावी सभाओं में कांग्रेस को कमी जरूर खलेगी। राहुल और प्रियंका के सामने चुनौतियां इसलिए ज्यादा बढ़ गई हैं क्योंकि मुस्लिम मतदाता जो परंपरागत कांग्रेस के वोट बैंक का हिस्सा हुआ करता था वह बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी की सक्रियता और गठजोड़ से पशोपेश में है। कांग्रेस भी उत्तराखंड में इस फैक्टर से खासी चिंतित है। उत्तराखंड राज्य गठन के पश्चात 2000 से ही बसपा का राज्य की विधानसभा में प्रतिनिधित्व रहा है। पहली विधानसभा में तो बसपा के सात विधायक थे। बसपा का राज्य में एक अपना जनाधार बरकरार है। कांग्रेस के सामने इस कारण से भी मुस्लिम वोटों का बंटवारा बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है। हरिद्वार और नैनीताल उधमसिंह नगर में बसपा को काफी उम्मीदें हैं। इन क्षेत्रों में मायावती के प्रति मतदाताओं के एक वर्ग का बड़ा रुझान है। कांग्रेस को केवल एंटी इनकंबेंसी का फायदा मिल सकता है बशर्ते सूबे में इनके नेता अंतरकलह को शांत करवाने में कामयाब हो सकें। वर्ष 2017 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद भी कांग्रेस ने न तो इस पर गहराई से आत्मचिंतन किया और न ही ऐसी रणनीति बनाई जिससे स्थानीय मुद्दों के जरिए ही सही, अपनी मौजूदगी का एहसास मतदाताओं को करा सकें। अपने अंतरकलह में लीन रही कांग्रेस के सामने भाजपा लगातार मजबूत होती चली गई ।नतीजा यह रहा कि आज भाजपा के पास चुनावी चेहरे भी हैं। आपसी खींचतान भी कम है और संख्या बल भी पर्याप्त है। बहरहाल कांग्रेस के समक्ष अगले चंद दिनों में सबसे बड़ी चुनौती प्रत्याशियों का चयन है जिसके बाद ही चुनावी तस्वीर पूरी तरह से साफ हो पाएगी।