कहीं श्रीलंका की राह पर तो नहीं भारत!

भारत की लगभग 3.8 बिलियन (380 करोड़) अमेरिकी डॉलर की मदद के बावजूद श्रीलंका उबर नहीं सका। खाद्य पदार्थों, दवाओं से लेकर पैसे तक की बड़ी भारतीय मदद उसे आर्थिक संकट से उबार नहीं सकी। चीन ने श्रीलंका को डुबोया, तो भारत ने अपना पड़ोसी धर्म निभाया। पर श्रीलंका की सरकार ने ही जनता से धोखा किया था, फिर उसे कौन बचा सकता था?

जब गाड़ी पलटने को आती है, तो सबसे पहले ड्राइवर कूदकर भागता है। लेकिन यह तभी होता है, जब ड्राइवर अनुभवी नहीं होता। श्रीलंका में सरकार चलाने वाले अनुभवहीन थे या नहीं थे, यह तो नहीं पता; पर यह सब जानते हैं कि लम्बे समय से घोटालों और अय्याशी की दलदल में फँसे महिंदा राजपक्षे भी श्रीलंका की आर्थिक गाड़ी के पलटने के दौरान इसी तरह कूदकर फ़रार हो गये। अब उनके बड़े भाई और श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे भी भाग खड़े हुए।

दरअसल यह सदियों से सोयी जनता के जागने के चलते हुआ। क्योंकि ग़ुस्से में आगबबूला जनसैलाब का डर उन्हें जान का दुश्मन और मौत का साया लगा। मौत से हर कोई भागता है, चाहे कितना भी पैसे वाला और ताक़तवर क्यों न हो। यही हुआ, जब जनता ने राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्षे के आधिकारिक आवास पर धावा बोला, तो उन्हें जान बचाकर भागने की सूझी। इससे पहले उन्हें देश की फ़िक्र नहीं थी। होती, तो अपने छोटे भाई से भाई का रिश्ता नहीं निभाते, बल्कि आगे बढ़कर सज़ा देते। यह तो होना ही था।

दोषियों को बचाकर राजा भी बहुत दिनों तक बचा नहीं रह सकता। अगर गोटबाया श्रीलंका की ग़ुस्साई जनता से बचकर नहीं भागे होते, तो सम्भवत: वे उसके ग़ुस्से का शिकार होते। जिस तरह भीड़ ने महिंदा राजपक्षे की तरह रानिल विक्रमसिंघे के घर को भी फूँका, उससे तो यही ज़ाहिर है। रानिल के इस्तेमाल की माँग यह बताती है कि अब श्रीलंका की जनता का किसी शासन-प्रशासन पर भरोसा नहीं रहा। हालाँकि प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को देश का कार्यवाहक राष्‍ट्रपति बना दिया गया है। उन्होंने प्रधानमंत्री पद से अपना इस्तीफ़ा देने की बात भी कही, ताकि ऑल पार्टी सरकार के लिए रास्ता खुल सके। गोटबाया इस्तीफ़े पर हस्ताक्षर करके फ़रार हो चुके हैं। देश क़र्ज़ में डूबा हुआ है और अब बिना सरकार के चल रहा है। सम्भव है वहाँ कोई नया योग्य व्यक्ति देश की बाग़डोर सँभाले, यदि वह 113 सांसदों का समर्थन हासिल कर ले तो। श्रीलंका और इंटरनेशनल मोनेटरी फंड (आईएमएफ) के बीच क़र्ज़ पर भी बातचीत हो रही है। देश में आपातकाल लागू है।

बस तीन साल पहले ही श्रीलंका को एक उभरती हुई अर्थ-व्यवस्था माना जा रहा था। ठीक भारत की तरह। देखने वाली बात यह है कि भारत में भी बहुत कुछ वैसा ही हो रहा है, जैसा श्रीलंका में हुआ था। तो क्या भारत में भी आने वाला समय संकट भरा है? यहाँ के नेताओं के लक्षण तो ऐसे ही दिखते हैं। कई भारतीय उद्योगपति विकट क़र्ज़ में डूबे हैं। सबसे अधिक क़र्ज़ हाल ही में भारत के सबसे अमीर, बल्कि एशिया के सबसे अमीर गौतम अडानी हैं। दर्ज़नों उद्योगपति करोड़ों-करोड़ों रुपये लेकर फ़रार हो चुके हैं। कई बैंक डूब चुके और कई संकट में हैं। स्विस बैंक में काला धन बढ़ता ही जा रहा है। देश में शिक्षा का स्तर बढऩे के बजाय घटा है।

सामान्य लोगों की आय कम हो रही है और महँगाई दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। देश में अमीरों की पूँजी बढ़ रही है। दो बार कोयला संकट होने का हल्ला हो चुका है। बेरोज़गारी दर बढ़ चुकी है। रुपया डॉलर के मुक़ाबले कमज़ोर होता जा रहा है। अगर अन्य पड़ोसी देशों की बात करें, तो नेपाल और पाकिस्तान के भारत से भी बुरे हालात हैं। वहाँ भी श्रीलंका की तरह ही संकट कभी भी पैदा हो सकता है। जनता का विद्रोह बड़ी-बड़ी सत्ताओं को उखाड़कर फेंक देती है, जिससे बड़े-बडे तानाशाहों का ग़ुरूर काफ़ूर हो जाता है। कुर्सी के लिए देश की जनता में फूट डालने का यही नतीजा निकलता है। इससे भारत को भी सीख लेनी चाहिए। जिस तरह काठ की हाँडी बार-बार चूल्हे पर नहीं चढ़ती, उसी प्रकार भ्रम और छल की सत्ता लम्बे समय तक नहीं रहती। भारत सरकार के लिए यह वक़्त श्रीलंका से सबक़ लेकर जनहित में काम करने का है, न कि लोगों को धर्म में उलझाकर केवल अपनी सरकार बनाने की सोचने का।