कहीं टूट न जाए सब्र का बाँध

 माँग पूरी नहीं करा सका सवा साल का संघर्ष, दिल्ली की सीमाओं पर एक साल से बैठे हैं किसान

 22 नवंबर से सरकार को हर मोर्चे पर घेरेंगे किसान, संसद के शीत सत्र में भी उठाएँगे अपनी आवाज़

तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों को दिल्ली की सीमाओं पर आन्दोलन करते एक साल हो गया; लेकिन सरकार ने किसानों की माँगें नहीं मानी हैं। अपने हक़ और खेती बचाने के लिए सरकार से साल पर से गुहार लगाते किसान घर होते हुए भी बेघरों की तरह मौसमों की मार सहकर भी कृषि क़ानूनों को ख़त्म करने की अपनी माँग पर अडिग हैं। केंद्र सरकार और भाजपा की राज्य सरकारों के तमाम दबावों और 650 से ज़्यादा किसानों की आन्दोलन के दौरान मौत के बावजूद किसानों ने हौसला और सब्र नहीं खोया।

सरकार को किसानों की सुननी चाहिए, अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि किसानों के साथ-साथ जनता के सब्र का भी बाँध टूट जाए; क्योंकि यह आन्दोलन आज़ाद भारत का सबसे बड़ा आन्दोलन बन चुका है और यह पहली सरकार है, जिसने इतने बड़े आन्दोलन के बावजूद किसानों की अनदेखी की है। अब किसान हर हाल में अपनी लड़ाई में जीत चाहते हैं और इसके लिए केंद्र सरकार को हर मोर्चे पर घेरने की योजना बना चुके हैं। इसके लिए संयुक्त किसान मोर्चा ने एक दिन पहले ही बैठक करके विधिवत् कई फ़ैसले लिये हैं। इन फ़ैसलों में तय किया गया है कि किसान दिल्ली के अलावा पूरे देश में भाजपा और उसकी सरकारों का विरोध करेंगे।

इन विरोधों के फ़िलहाल जो संयुक्त किसान मोर्चा ने तय किया है, उसमें सबसे पहले 22 नवंबर को लखनऊ में किसान महापंचायत का आयोजन होगा। इस महापंचायत की अगुवाई भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत करेंगे। महापंचायत के बारे में राकेश टिकैत ने कहा है कि 22 नवंबर को लखनऊ में होने वाली किसान महापंचायत ऐतिहासिक होगी, जो कि तीनों काले क़ानूनों और किसान विरोधी भाजपा सरकार के ताबूत में आख़िरी कील साबित होगी। उन्होंने यह भी कहा है कि अब पूर्वांचल में भी आन्दोलन तेज़ किया जाएगा।

इस महापंचायत के बारे में ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर बैठे किसान देवेंद्र सिंह ने कहा कि मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत से भी बड़ी लखनऊ की महापंचायत होगी, जो कि प्रदेश के किसानों और लोगों को भाजपा सरकार की जनविरोधी नीतियों के बारे में जागरूक करने के लिए आयोजित की जा रही है। उन्होंने कहा कि लॉकडाउन में भाजपा की केंद्र सरकार इन तीन क़ानूनों को लेकर आयी थी, जिसमें किसानों के हाथ से खेती-बाड़ी ही नहीं, उनकी जमीने छीनने तक की योजना बन चुकी है, जिसके चलते किसान इन क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि केंद्र सरकार यह नहीं चाहती कि लोगों को इन क़ानूनों की हक़ीक़त पता चले, यही वजह है कि वह इन क़ानूनों पर खुली चर्चा करने से कतरा रही है और किसानों की आवाज़ को जबरन दबाने के लगातार प्रयास करती रही है।

अगर इन क़ानूनों की हक़ीक़त आम जनता को पता चल जाए, तो जनता भी सडक़ों पर दिखायी देगी। संयुक्त किसान मोर्चा की बैठक में यह भी तय किया गया है कि 26 नवंबर को किसान दिल्ली में कम-से-कम 500 ट्रैक्टरों के साथ प्रवेश करेंगे। 26 नवंबर को भारत का संविधान सन् 1949 में संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था। इसलिए इस दिन संविधान दिवस भी है। ट्रैक्टर लेकर दिल्ली में प्रवेश करने वाले किसानों में से 500 चयनित किसान 29 नवंबर से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र में अपनी आवाज़ बुलंद करेंगे। किसानों ने तय किया है कि वे शान्तिपूर्वक अपनी बात सरकार के सामने रखेंगे।

मोर्चा ने निर्णय लिया है कि 29 नवंबर से संसद के शीतकालीन सत्र के समाप्त होने तक हर रोज़ किसान मोर्चा द्वारा चयनित 500 किसान ट्रैक्टर ट्रालियाँ लेकर संसद भवन जाएँगे और अपनी आवाज़ बुलन्द करेंगे, ताकि तानाशाही पर उतरी सरकार को उनकी परेशानी का अहसास हो सके और वह तीनों काले क़ानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर हो सके। वहीं 22 नवंबर से पहले से ही दिल्ली की सीमाओं पर देश भर के किसान एक बार फिर जुटना शुरू होंगे और सरकार को उसके नये क़ानून लाने की ग़लती और अपनी एकता की ताक़त का अहसास कराएँगे।

मोर्चा ने यह भी फ़ैसला किया है कि 28 नवंबर को मुम्बई के आज़ाद मैदान में भी देश भर के किसान एक विशाल किसान-मज़दूर महापंचायत का आयोजन करेंगे। इस महापंचायत का आयोजन महाराष्ट्र के 100 से अधिक संगठनों की ओर से संयुक्त शेतकारी कामगार मोर्चा (एसएसकेएम) के बैनर तले संयुक्त रूप से आयोजित होगा।

बता दें कि किसान सरकार से तीनों कृषि क़ानूनों को समाप्त करने, न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी देने के अलावा किसान हर दिन एक-न-एक नयी माँग भी उठा रहे हैं। इन माँगों में हर राज्य के किसानों की अपनी और राज्यों में अलग-अलग क्षेत्र के किसानों की अपनी-अपनी समस्याएँ शामिल हैं। लेकिन सरकार की मंशा किसानों की किसी भी समस्या को सुनने की नहीं लगती। अगर वह किसानों की परेशानियों को समझती, तो अब तक प्रधानमंत्री, जो कि हर छोटी-बड़ी गतिविधि में दिलचस्पी रखते हैं। मोरों को दाना चुगाते हैं। एक क्रिकेटर की उँगली में चोट लगने पर दु:ख व्यक्त करते हैं; अब तक किसानों से भी बात कर चुके होते।

आन्दोलन तोडऩे की कोशिशें

नये कृषि क़ानूनों के विरोध में किसान आन्दोलन जब से शुरू हुआ है, तभी से केंद्र सरकार इस कोशिश में लगी है कि किसी तरह उसे तोडक़र ख़त्म कर दिया जाए। इसके लिए किसानों के ख़िलाफ़ की गयी साज़िशों के लिए सरकार पर सीधे-सीधे आरोप देना उचित नहीं होगा; लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि आन्दोलन के दौरान किसानों पर लाठीचार्ज करने, आँसू गैस के गोले दाग़ने, सडक़ें खोदने, उन पर कीलें ठुकवाने, कंटीले तार लगवाने, भारी बैरिकेड लगवाने, पुलिस और अद्र्धसैन्य बलों से बल प्रयोग करवाने का काम तक सरकार ने किया। किसानों के लिए खाना कहाँ से आ रहा है? उसकी जाँच कराने जैसे काम भी सरकार ने किये? इसके अलावा किसानों पर लगातार अराजक तत्त्वों ने भी हमले किये हैं, जिसमें कई किसानों की जान भी गयी है या यह कहें कि उनकी हत्या कर दी गयी।

इसके बाद इसके अलावा उत्तर प्रदेश के लखीमपुर खीरी स्थित तिकुनिया क्षेत्र में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी के बेटे अभिषेक मिश्रा मोनू ने केंद्रीय मंत्री की रैली का विरोध करके लौट रहे किसानों पर पीछे से कार चढ़ा दी। इससे ठीक पहले ही ख़ुद अजय मिश्रा ने ही किसानों को खुले शब्दों में धमकी दी थी। इतना ही नहीं, अभी हाल ही में दिल्ली सीमाओं पर किसान आन्दोलन से लौट रही पंजाब की पाँच महिलाओं को बहादुरगढ़ स्थित झज्जर रोड के फुटपाथ पर जाकर डंपर ने रौंद डाला, जिसमें तीन की मौक़े पर ही मौत हो गयी और दो को गम्भीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया।

इतने पर भी सरकार ने किसानों के प्रति संवेदनशील रवैया नहीं अपनाया और उन्हें आतंकवादी, ख़ालिस्तानी, दलाल, व्यापारी, दंगाई और न जाने क्या-क्या साबित करने की कोशिश की। अराजक तत्त्वों द्वारा किसानों पर हमले और उनकी हत्याओं के मामले में कई बार भाजपा और सरकार तक पर सीधे-सीधे आरोप लगे, लेकिन उसने इसकी परवाह किये बग़ैर किसानों के प्रति अपना शत्रुभाव का रवैया जारी रखा, जिसके चलते लखीमपुर में किसानों पर कार चढ़ाने जैसी घटना हुई। लेकिन किसानों के हौसले सरकार और भाजपा की इस नीति से पस्त नहीं हुए, बल्कि उन्होंने अब और दृढ़ संकल्पित होकर सरकार से लोहा लेने की ठान ली है, जिसका असर एक बार फिर बड़े स्तर पर दिखेगा।

ज़ाहिर है इसका असर सरकार पर सीधे-सीधे भले न पड़े; लेकिन उसे जनाक्रोश तो झेलना पड़ेगा, जो अब दिख भी रहा है। ये देश में ही नहीं, विदेशों में भी दिखायी दिया है।

दो दीये, शहीदों के लिए

इस दीपावली पर राकेश टिकैत व संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं ने किसानों के साथ आन्दोलन के दौरान मृत्यु को प्राप्त हुए किसानों और देश के लिए सीमाओं पर शहीद हुए जवानों को याद करते हुए उनकी याद में दीप प्रज्ज्वलित किये और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। इस श्रद्धांजलि सभा का आयोजन ‘दो दीये, शहीदों के लिए’ के नाम से किया गया। इस दौरान राकेश टिकैत ने कहा कि केंद्र सरकार ने 22 जनवरी को किसानों से आख़िरी बार औपचारिक बात की थी।

अब पंजाब और हरियाणा से क़रीब सवा साल से भी पहले शुरू हुए आन्दोलन के बाद अपने हक़ के लिए दिल्ली की सीमाओं पर आकर एक साल से अपने हक़ के लिए खुले आसमान के नीचे परेशान बैठे किसानों ने सरकार को 26 नवंबर तक का अन्तिम चेतावनी (अल्टीमेटम) दिया है। अगर वह अब भी नहीं मानी, तो किसान अपने ट्रैक्टरों के साथ दो घंटे के स्टैंडबाय मोड पर होंगे। उन्होंने कृषि क़ानूनों के वापस होने तक आन्दोलन के समाप्त न होने का संकेत देते हुए साफ़ कहा कि अगर सरकारें पाँच साल चल सकती हैं, तो किसान आन्दोलन भी पाँच साल तक चल सकता है। बता दें कि किसानों की माँगें न मान लेने तक राकेश टिकैत ने घर न लौटने की कसम खाई हुई है और तबसे वह लगातार देश भर में किसानों को जागरूक करने के लिए भ्रमण कर रहे हैं।

किसानों के पक्ष में खड़े दल

किसान आन्दोलन के पक्ष में शुरू से ही कई दल आ खड़े हुए थे, जिनमें कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, रालोद, सपा, अकाली दल प्रमुख हैं। लेकिन किसान आन्दोलन के पक्ष में बढ़ता जनसमर्थन देख कुछ अन्य छोटे-बड़े दल भी किसानों के समर्थन में आ खड़े हुए हैं। लम्बे समय से चुप्पी साधे रखने वाली उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा प्रमुख मायावती ने भी किसान आन्दोलन का अब समर्थन कर दिया है। इतना ही नहीं, भाजपा के कुछ नेता भी दबी ज़ुबान से तो कुछ खुले तौर पर किसान आन्दोलन का समर्थन करने लगे हैं। कई तो इस्तीफ़ा दे चुके हैं या पार्टी बदल चुके हैं। लेकिन दु:ख की बात यह है कि सभी दल किसानों के साथ जनाधार के स्वार्थ के चक्कर में खड़े हुए हैं।

केंद्र पर फिर बरसे मलिक

शुरू से ही किसान आन्दोलन के पक्ष में खड़े मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक एक बार फिर केंद्र सरकार पर जमकर बरसे हैं। उन्होंने साफ़ कहा है कि देश में इतना बड़ा आन्दोलन आज तक नहीं चला। दिल्ली के नेता एक कुत्ते के मरने पर भी संवेदना प्रकट करते हैं; लेकिन उनमें से किसी ने भी 600 किसानों की मौत पर दु:ख तक नहीं जताया।

अपने आलोचकों को निशाने पर लेते हुए सत्यपाल मलिक ने कहा-‘मैं अगर कृषि क़ानून के मुद्दे पर कहूँगा, तो विवाद हो जाएगा। मेरे कुछ शुभचिन्तक इस इंतज़ार में हैं कि मैं हटूँ। कुछ लोग सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं कि राज्यपाल साहब, अगर इतना महसूस कर रहे हो, तो इस्तीफ़ा क्यों नहीं दे देते हैं? मुझे आपके पिताजी ने राज्यपाल नहीं बनाया था और न मैं वोट से बना था। मुझे दिल्ली में दो-तीन बड़े लोगों ने राज्यपाल बनाया था और मैं उनकी ही इच्छा के विरुद्ध बोल रहा हूँ। जब वे मुझसे कह देंगे कि हमें दिक़्क़त है, पद छोड़ दो; तो मैं इस्तीफ़ा देने में एक मिनट भी नहीं लगाऊँगा।’

उन्होंने कहा कि मैंने पहले भी कहा था कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी दे दे, किसान आन्दोलन समाप्त हो जाएगा। फ़िलहाल किसान आन्दोलन एक बार फिर अपने उफान पर आने को है। इसमें आगे क्या होगा? यह तो सरकार व किसानों के निर्णयों पर ही निर्भर करेगा।

गोयल बोले, फिर बनेगी सरकार

इधर केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने टाइम्स नाउ समिट-2021 में एक तरह से किसानों का मनोबल कम करने के मक़सद से कहा है कि उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे बहुत अच्छे आएँगे। भाजपा अपने मित्र दलों के साथ वहाँ एक बार फिर पूर्ण और अच्छे बहुमत की सरकार लेकर आएगी। हालाँकि उनके ऐसा कहने के पीछे आत्मविश्वास है या अतिविश्वास? यह तो नहीं कहा जा सकता। लेकिन उनके इस बयान में किसानों की अनदेखी करने और चुनाव जीतने का अतिविश्वास से भरे होने पर लोग सवालिया निशान लगा रहे हैं?

केंद्रीय मंत्री ने यह भी कहा कि सरकार तीन नये कृषि क़ानूनों पर विरोध कर रहे किसानों से बात करने के लिए तैयार है। लेकिन सवाल यह है कि सरकार किस तरह तैयार है? और अगर तैयार है, तो कृषि क़ानूनों पर खुलकर चर्चा क्यों नहीं करती? वह कृषि क़ानूनों को अपनी तरफ़ से अच्छा बताने की बजाय उन पर चर्चा करे और उनमें जो भी शर्तें, नियम हैं, उनके फ़ायदे-नुक़सान एक-एक करके गिनाये। इससे जनता को भी सही मायने में समझ में आएगा कि कृषि क़ानूनों को लेकर सरकार ग़लत है या किसान? लेकिन यह देखा गया है कि सरकार लगातार खुली बातचीत से बचती रही है। इसका मतलब क्या है? यह बताने की ज़रूरत नहीं है। इसे चोर की दाढ़ी में तिनका वाले मुहावरे से समझना ही पर्याप्त होगा।