कहानी उस दुर्लभ साहसी बेटी की

मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपनी अदम्य भावना के लिए जाने वाली आसमां जहांगीर, भारतीय उपमहाद्वीप की बहुत मज़बूत नेताओं में से एक थीं। उनका निधन न केवल अपने देश पाकिस्तान के लिए हैं बल्कि दक्षिण एशिया का है जहां उन जैसी साहसी महिला की ज़रूरत है। शायद ही यह कभी भारत और पाकिस्तान के मामले में होता है कि एक उपलब्धि की दोनों ओर प्रशंसा की जाती है। 11 फरवरी आसमां जहांगीर की अचानक मौत पर निस्संदेह सबसे बहादुर पाकिस्तान ही नहीं,बल्कि दक्षिण एशिया की इस बेटी की मौत पर दोनों देशों में उसके कई शुभचिंतक और प्रशंसकों ने शोक मनाया। मानवाधिकार के लिए उनकी चाहत के न केवल पाकिस्तान बल्कि भारत में भी बड़ी तादाद में प्रशंसक थे।

वह मानवाधिकारों और लोकतंत्र के संरक्षण के लिए जमकर लड़ी। वह दृढ़ता से सैन्य प्रतिष्ठान के एक निर्वाचित सरकार के काम में हस्तक्षेप के खिलाफ मज़बूती से खड़ी रहीं। यही नहीं उन्होंने खुफिया एजेंसियों का सत्तारूढ़ शासन के आलोचकों को आतंकित करने के लिए अल्पसंख्यकों को धर्म के नाम पर उकसाने और चरमपंथ को विदेश नीति में एक साधन के रूप में उपयोग करने का जमकर विरोध किया।

भारत में उनकी लोकप्रियता भी उनकी दो पड़ोसियों के बीच मैत्रीवूर्ण संबंधों को बनाने की पक्षधर होने के नाते थी। उनके इस परिदृश्य से गायब होने से भारत-पाक के बीच शांति की संभावना कमज़ोर हो गई है। आसमां उस समय अचानक दुनिया से विदा हो गईं जब उनके अंत की कोई कल्पना भी नहीं कर रहा होगा। इतने करीब होने के नाते भी कोई नहीं जानता था कि वह दिल से जुड़ी बीमारी से खासी पीडि़त थीं। ऐसी कोई रिपोर्ट भी नहीं जो यह बताती हो कि वे हृदय रोग से पीडि़त थीं। शायद, उनके दिल की उचित जांच कभी नहीं हुई थी। उन्हें जब दिल का दौरा पड़ा वे अदालत की अवमानना के एक मामले में एक मंत्री का प्रतिनिधित्व करने पर सहमत हो गई थीं। उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को फोन पर वादा किया था कि वे इस मामले में लडऩे के लिए तैयार हैं लेकिन इस बीच उन्होंने बात करनी बंद कर दी। उस समय नवाज शरीफ अपने लाहौर घर में एक वकील के साथ बैठे थे। उन्हें आसमां के अचानक बात बंद कर देने पर हैरानी हुई क्योंकि वे इस तरह के व्यवहार के लिए नहीं जानी जाती थी।

इसके बाद नवाज शरीफ ने कम से कम 25 बार उससे संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। किसी और ने जब बाद में शरीफ का फोन सुना तो उन्हें बताया कि 66 वर्षीय आसमां अब नहीं रही। शरीफ से बात करते करते ही खतरनाक हृदयघात से उनकी मौत हो गयी थी।

जल्द ही उनकी बेटी मुनिजे जहांगीर जो एक टीवी पत्रकार हैं उसने ट्विटर पर दुखद संदेश दिया कि वे अपनी मां के अचानक निधन से हतप्रभ हैं। जल्दी ही हम उनके अंतिम संस्कार की तारीख घोषित करेंगे। हम अपने रिश्तेदारों के लाहौर लौटने का इंतज़ार कर रहे हैं

एक मानवाधिकार कार्यकर्ता के रूप में अपने 40 साल के शानदार कैरियर में आसमां देश की पहली महिला थी जो पाकिस्तान के सुप्रीम कोर्ट की बार एसोसिएशन की अध्यक्ष बनीं। उन्होंने1987 में पाकिस्तान मानवाधिकर आयोग की सह-स्थापना की और सेवा की 1993 तक महासचिव के रूप में जि़म्मेदारी संभाली जब उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया। उन्होंने इस जि़म्मेदारी को पूरी निष्ठा और योग्यता से निभाया। वैसे आयोग का गठन उनके ही दिमाग की उपज थी ताकि वे मानवाधिकार के संरक्षण, खासकर अल्पसंख्यकों के लिए काम कर सकें। आसमां का जन्म 1942 में लाहौर में हुआ और उन्होंने 1978 में पंजाब विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री प्राप्त की। एक वकील के रूप में वकालत करना शुरू कर दिया और उनका पूरा फोकस मानव अधिकारों पर रहा। वह दृढ़ता के साथ उन लोगों के लिए लड़ी जिन्हें या तो सत्ता की तरफ से दबाया जा रहा था या चरमपंथियों की तरफ से उनके धार्मिक विश्वास का फायदा उठाकर उनका शोषण किया जा रहा था। पाकिस्तान में अल्पसंख्यक, दुनिया के मुकाबले सबसे अधिक प्रताडि़त किए गए हैं।

वह ऐसे पीडि़तों के अधिकारों की रक्षा करने से कभी डरी नहीं। कभी-कभी अपने जीवन को खतरे में डालने की कीमत पर भी उन्होंने चरमपंथी तत्वों से लोहा लिया। उन लोगों के लिए सहायता प्रदान करने के लिए उसकी निर्विवाद प्रतिबद्धता की वजह उनकी यह सोच भी थी कि सत्य का किसी भी कीमत पर बचाव किया जाना चाहिए।

आसमां का लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए अतृप्त प्रेम था जिसके लिए वह जनरल जि़या-उल-हक और जनरल परवेज़ मुशर्रफ जैसे कू्रर सैन्य तानाशाहों को भी चुनौती दे सकीं। उन्होंने इन शासकों के हर प्रकार के प्रलोभनों की पेशकशों को अस्वीकार कर दिया, और कभी इसके नतीजों को लेकर घबराई नहीं। उन्होंने जनरल जिया के शासनकाल के दौरान लोकतंत्र की रक्षा के लिए पूरी ताकत झोंक दी। उन्होंने उत्साहपूर्वक उस समय जनतंत्र की बहाली के लिए मार्च में हिस्सा लिया। इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी जब तानाशाह सरकार ने 1983 में उन्हें कैद में डाल दिया। इसके बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी और सैन्य तानाशाही के खिलाफ मुखर रहीं।

उतने ही ज़ोरदार तरीके से वे बर्खास्त मुख्य न्यायाधीश इफ्तिरखार चौधरी की बहाली के लिए लड़ीं। जनरल परवेज मुशर्रफ की अध्यक्षता वाली तानाशाह सरकार के खिलाफ वकीलों की लड़ाई में भी वे मुखर हो कर सामने आईं। आश्चर्य की बात नहीं कि मुशर्रफ शासन के दौरान 2007 में उन्हें सलाखों के पीछे डाल दिया गया। जब उन्हें कैद से मुक्त किया गया था उसने 2012 में आरोप लगाया था कि पाकिस्तान का खुफिया नेटवर्क उनकी हत्या करना चाहता था। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जासूसी एजेंसियां पूरी तरह पाकिस्तान में ‘लापता लोगोंÓ के मुद्दे के लिए जिम्मेदार है।

उन्होंने कभी इस बात की परवाह नहीं की कि कौन उनकी गतिविधियों से खुश है और कौन नाखुश।

उनके प्रशंसकों को समाज के हर वर्ग में पाया जा सकता है। न केवल पाकिस्तान में बल्कि दक्षिण एशिया भर में। अगर वह सैन्य प्रतिष्ठान की निर्वाचित सरकारें गिराने की मुख्य आलोचक रहीं तो वह न्यायिक सिस्टम के एक्टिविज़्म के भी विरोध में भी थी क्योंकि उनका मानना था कि इससे न्याय प्रणाली को नुकसान पहुंचा है। यही कारण है कि वे कई अवसरों पर पाकिस्तान के सर्वोच्च न्यायालय की आलोचना से भी पीछे नहीं हटी।

आसमां ने पनामा पत्रों के मामले में नवाज शरीफ को अयोग्य घोषित करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का विरोध किया और कहा कि इसका कोई औचित्य नहीं था। आसमां ने 2014 में लाइवलीहुड अवार्ड, 2010 में फ्रीडम अवार्ड, 2010 में ही हिलाल-ए-इम्तियाज़ और सितारा-ए-इम्तियाज जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड जीते। यह अवार्ड उनके काम और उसके प्रति उनकी निष्ठा को प्रतिविम्बित करते हैं। उनके जैसे व्यक्ति जिसने अपने विचारों को व्यक्त करने में कभी संकोच नहीं किया, का अब पाकिस्तान मे मिलना मुश्किल है। कवि इकबाल ने कहा था,’ हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है, बड़ी मुश्किल से होता चमन में दीदावर पैदा’।