कहानी: अनजान सुख

इस मुलाकात के बारे में वो जब-जब सोचती, मुस्कान के सिवा और कोई भाव मन में आ ही नहीं पाता! कितना अप्रत्याशित था उनका मिलना और कितना सहज भी! उतनी ही देर में जैसे दोनों ने यह जान लिया हो कि उनके मिलने के अलावा इस क्षण में और कुछ घट नहीं सकता था, जैसे यह क्षण उनके लिए ही घटित होना था और हुआ भी! उतनी ही देर में जैसे दोनों ने एक-दूसरे को पहचान लिया हो, जैसे हम साँस लेने को जान लेते हैं या प्यास लगने पर दरिया को! क्या दरिया भी दौड़ा नहीं चला आता नदी की प्यास बुझाने को!

यूँ उन दोनों की मुलाकात कुछ खास न थी, जैसा सामान्यतया होता है, देश भर में विविध विषयों के विकास के लिए चलने वाले सम्मेलनों के आयोजक दावे तो बहुत करते हैं; पर वास्तव में यह सम्मेलन अनेक अनियमितताओं के शिकार होते ही हैं… ऐसे ही एक सम्मेलन के लिए परचा पढऩे वह भी पहुँची थी अपने प्रदेश से दूर और ठीक ऐसे ही किसी दूर देश से वह भी आया था… अपने परचे को सँभाले कितनी ही देर से खराब पर्चों को सुनते हुए धीरज धरे बैठी थी… जब उसकी बारी आएगी तो वह बताएगी कि विषय पर अधिकार कैसे किया जाता है और विषय को कैसे समझा जाता है… और तब वह आया था…हवा के झोंके की तरह, हाथ झुलाता, खाली हाथ, कतई निद्र्वन्द्व व्हील चेयर पर बैठा और अपने हाथ से उसे आगे बढ़ाता और मुस्काता! उसका आना जान गयी थी वो जैसे… हवा के झोंके के आने की सूचना मिल ही जाती है, पर उसी को जो हवा के साथ बहना चाहता है, बाकी तो द्वार बन्द ही कर लेते हैं!

आयोजकों से जो उम्मीद थी, वही होना ही था! कुछ लोग तो किसी तरह लड़-झगड़कर आयोजकों से अपने नाम जुड़वा चुके थे… वह अपने साथ बैठी प्रोफेसर से उलझ रही थी जब बोलने नहीं देना था, तो बुलाते क्यों हैं! जाएँ रखें अपना सर्टिफिकेट अपने पास! मैं तो अपनी शोध के बारे में बताना चाहती थी… पर यहाँ सुनने कौन आता है? उफ!

 तभी उसकी धीमी-सी खुली हवा-सी आवाज़ सुनाई दी चिन्ता न करें… आप ज़रूर बोलेंगी… आयोजक आपको नहीं रोक सकते! पर यहाँ सुनने कौन बैठा है, ये भी तो देखिए… हल्की-सी हँसी गूँज गयी उसके आस-पास! अपने आस-पास खाली कुॢसयों को देख वह भी मुस्करा उठी… चलिए, छोडि़ए; इन कुॢसयों को सुनाने नहीं आयी थी मैं…

आप बाहर जा रही हैं, तो मैं भी चलता हूँ… इस आवाज़ ने उसे बाँध लिया… हाँ अब बैठकर क्या करूँगी..? चलिए बाहर मौसम का ही हाल-चाल ले लिया जाए! अभी तक इस खुशबू के झोंके ने एक दूसरे का नाम भी न पूछा था… बाहर आते ही वह हाथ जोड़कर जाने लगाये तो वह हैरान हो गयी… अभी तो आधा दिन बाकी है, सम्मेलन का और अप अभी जा रहे हैं…. वही हवा की सौंधी मिट्टी मिली हँसी फिर सुनाई दी… बस मन था इस शहर को देखने का, अब लगता है, जो देखना था उसे देखकर जा रहा हूँ… इस सम्मेलन में अब कोई रुचि ही नहीं… फिर मेरी बस का समय भी हो गया है… अच्छा नमस्कार!

अनमनी-सी वह भीतर लौट आयी… अभी समय बाकी था… आयोजक अपने तीन वक्ताओं के न आने से क्षमा प्रार्थी थे और कुछ लोगों को अपनी बात रखने का मौका दे रहे थे… मंच से उसके नाम की घोषणा हुई तो वह अनमना उठी… माफ कीजिए, पहले तो आप लोग बुलाते हैं, फिर किसी के आने का सम्मान नहीं रखते और फिर अचानक हमें रिप्लेसमेंट बनाने में लग जाते हैं… गज़ब व्यवहार है यहाँ… आयोजन करने वालों में से एक ने आकर क्षमा माँगी तो वह यंत्रवत उठ गयी… उसके प्रपत्र पर देर तक तालियाँ बजती रहीं, कुछ लोगों की उस विषय पर दिलचस्पी भी बढ़ गयी और वे उससे बातचीत करना चाहते थे… सबके उत्तर देते-देते काफी समय हो गया.. आयोजक खुश थे, जो सत्र लगभग असफल होने की हालत में था, सफल हो गया था… और वह आज के सत्र का केंद्र बन गयी थी…

सम्मेलन खत्म हो गया था… जैसे बारात जाने के बाद मडवा सूना रह जाता है, बस कुछ लोग थके-हारे बचे काम करने की तैयारी में ऊँघे-जागते दिखाई देते हैं, वैसी ही कुछ हालत यहाँ भी थी… अपने साथ आयी प्रोफेसर से उसने धीमे से पूछा …उसे जानती हैं आप? जो दोपहर में ही चला गया था। साथ बैठी प्रोफेसर ने मुस्काते हुए कहा- क्यों शोध की दिशा बदल गयी क्या सखी!

बुरी तरह खीझ आयी उसे खुद पर ही और हँसी भी! अब 40 की उम्र में शोध की दिशा क्या बदलेगी! पर उसे देखने की तीव्र इच्छा हुई उसे बताये तो सही कि कितने उत्सुक थे लोग उसे सुनने के लिए! पर पूछे तो किससे! न जाने लोग क्या समझ बैठें!

घर जाने की आिखरी गाड़ी में उसके साथ के पाँचों कुलीग लोग मौज़ूद थे! कल से फिर कॉलेज और घर के बीच तालमेल बिठाने वाली ज़िन्दगी चलने वाली थी… ऐसा लगता था कि आज की रात सब अपना प्रोफेसराना व्यवहार छोड़कर कुछ देर लड़के-लडकियों वाली ज़िन्दगी जीना चाहते हैं… निशा मुस्करा रही थी और सब वही पुरानी अन्त्याक्षरी पर आ गये थे…  क्यों निशा इतना मुस्करा रही हो, प्रोफेसर कमल की याद आ गयी क्या? रजनी ने उसे छेड़ते हुए कहा- ‘कौन प्रोफेसर कमल? वही जिनको छोडऩे तुम बाहर बावली मीरा की तरह गयी थीं.. नाम तक नहीं जानतीं… रजनी उन सबमें सबसे शोख और युवा प्राध्यापिका थी, निशा सबसे सीनियर और गम्भीर! पर आज जैसे उसके भीतर के बादल छँट गये थे… अच्छा तुम बड़ी नज़र रखती हो… उसने रजनी के कान पकड़ लिये, माफी माफी मैडम! पर प्रोफेसर कमल कल से ही तुम्हें देख रहे थे…  दूर पहाड़ी वादियों से पुकार रहे थे जैसे तुम्हें… उसाँस भरकर रह गयी निशा! हुआ क्या है उन्हें, कितनी तकलीफ में थे; पर फिर भी हवा की तरह की ताज़गी दिख रही थी उनके भीतर! रिचा मुस्कायी तो न मैडम, पता तो करना चाहिए ना! निशा बोल उठी- किस-किस के दु:ख पता करूँ सखी! कौन-सा मन है जो आज़ाद है? छोड़ो, वापस चलते हैं; नौकरी भी करनी है और घर भी इन्तज़ार कर रहा है… इस पूरी बात ने जैसे सभी को ग्रस लिया हो, सब अपने भीतर सिमट गये और ट्रेन वापस दिल्ली की और मुड़ गयी…

दिल्ली जैसे महानगर के अपने संघर्ष हैं… मौज़ूदा हालात देश और दुनिया को जिस तरह निगलते जा रहे हैं, उसका सीधा असर दिल्ली में भी दिखाई देता है… देश की राजधानी पर हाँफती दिल्ली… देश के हालातों पर रोती और उसका सीधा शिकार होती दिल्ली… होगी कभी दिल वालों की दिल्ली, पर जब दिल ही गहन उदासी से भर गये तो दिल्ली क्यों कर बची रहती!

सुबह से शाम तक यहाँ लोग नौकरी करने और ज़िन्दा रहने की होड़ में दौड़ते हैं… देर रात उस घरौंदे में लौटते हैं, जिसमे रहने के लिए न जाने कितना पैसा जुटाकर उसे खरीदा था, पर उसमें रहने के सुख को महसूस नहीं कर पाते हैं… हर पल ज़िन्दा रहने की बेचैनी उनकी ज़िन्दगी को और खोखला करती ही जा रही है… ऐसे ही दड़बे जैसे घुटे घरों में से एक घरौंदा निशा का भी था… पति, दो बच्चे और निशा! यूँ कहने को एक छोटा-सा सुखी परिवार कहा जा सकता था, पर न जाने क्यों निशा कुछ और ढूँढती थी! ‘ये औरतें जो संतुष्ट होना नहीं जानती, अपने सारे सुख अपने ही हाथों से गँवा देती हैं -कहती थीं निशा की माँ बार-बार! पर निशा न जाने किस मिट्टी की बनी थी, अपने हाथों सब खो देने पर तुली थी…

न उसे गृहणियों की तरह रहना सुहाता, न हाथों में सोने की चूडिय़ाँ न गले में बड़ी-बड़ी सोने की माला! त्योहारों पर भी वह इन सबसे दूर ही दिखती! आस-पास वालों के लिए ही नहीं, अपने परिवार वालों के लिए भी वह अजूबा ही थी… पति अपने काम में मगन उसे समय दे नहीं पाते और भीतर घुलती निशा को किताबें लिखने में ही सुकून नज़र आता! निशा और पवन मिलते, पर निशा अधूरी की अधूरी रह जाती! अपने आप से भी लड़ती थी निशा! क्यों नहीं चैन आता उसे! अपने हाथों अपनी सोने जैसी गृहस्थी को आग लगाने में तुली थी वह!

पवन खुद में मगन रहने वाला व्यापारी पति था। निशा जब जब पवन के बारे में सोचती, कुछ बुरा नहीं सोच पाती थी… घर की ज़िम्मेदारी के लिए पर्याप्त से ज़्यादा पैसा कमाता था पवन! कई बार उसने निशा के चेहरे की उदासी को देख उसे सलाह भी दी थी… तुम नौकरी छोड़ क्यों नहीं देती? राज करो घर पर, हम हैं ना कमाने के लिए मैडम! निशा ऐसे क्षणों में बुत बन जाती… कैसे समझाये वह पवन को कि नौकरी उसके भीतर के सूरज को ज़िन्दा रखती है, जिस दिन वो यह छोड़ देगीए उसके भीतर रात उतर आएगी… पर वह कुछ नहीं कहती! पवन के पास वक्त नहीं था… वो उडऩा चाहता था शेयर बाज़ार के पंखों पर सवार होकर और दुनिया भर में अपना बिजनेस फैलाना चाहता था… बड़ा पैसा और बड़ा नाम!

निशा के साथ प्यार के क्षणों में भी वो सिर्फ पवन न हो पाता! निशा सिर्फ बिस्तर न हो पाती! पवन खीज जाता तुम दुनिया की पहली औरत हो क्या! क्या ढूँढना चाहती हो! बोलती क्यों नहीं! दिन रात मर-खपकर तुम्हारे लिए कमाता हूँ और तुम मुझे थोड़ा-सा सुख भी नहीं दे सकतीं! आदमी घर क्यों आएए बोलो!ष् वो कहना चाहती ‘इसके लिए आदमी घर नहीं आता पवन! तुम कुछ देर के लिए पवन हो जाओ और ये पति का चोला उतार दो प्लीज! इतना कर सकते हो… पर नहीं कह पाती बस खुद को निर्वस्त्र करने में लग जाती! ‘मुझे नहीं चाहिए तुम जैसी ठंडी औरत! उफ! पवन उफनते दूध की तरह खौलता! वह कई बार कोशिश करती कि पवन को खुश रख सके पर पवन के पास सब कुछ था देने के लिए वक्त के सिवा! और पवन से वक्त पाने की चाह में निशा भीतर ही भीतर घुलती जा रही थी!

पवन और निशा के बीच देह तो थी पर काल का अंतराल बढ़ता जा रहा था… देह से होता कमल मन तक नहीं पहुँचता, बल्कि कहीं बीच ही उसके पैर थक जाते और निशा उससे बहुत दूर निकल जाती! पवन उसकी इस मुद्रा से आहत भी था और परेशान भी पर उसके फोन कॉल उसे भी कहाँ समय देते थे, यह सब सोचने के लिए! निशा बच्चों को सीने से लगाये उदास होती चली गयी और पवन अपने काम में व्यस्त उसके मन के भीतर उतर ही नहीं सका! निशा का कॉलेज भी गज़ब ही था… कुछ तयशुदा घंटे तो कहने को थे, उसके बाद भी एडमिनिस्ट्रेटिव काम उसे ही नहीं सभी को उलझाये रखते… हर साल शोध की नयी ऊँचाइयों के सपने देखते संस्थानों ने इंसानों को मशीन में तब्दील करने में कोई कसर नहीं रखी थी… मशीन में तब्दील ये इंसान अब हँसते बोलते नहीं थे बल्कि एक अनजानी ईष्र्या और होड़ में डूबे एक-दूसरे से घबराये रहते थे… इसी होड़ में कोई किसी के साथ खड़े होने में सुख महसूस नहीं करता था… वही साथी जो सम्मेलन की यात्रा के दौरान हँसी-मज़ाक में डूबे दिख रहे थे, फिर यहाँ आकर अपने कामों में डूब गये थे… निशा इन क्षणों में बहुत अकेला महसूस करती… विद्यार्थियों की कक्षा में खुद को डुबो देने के बाद भी उसके पास बहुत वक्त होता। कभी लिखती, कभी पढ़ती, पर उसके भीतर की खामोशी को सुनने वाला क्या कहीं कोई नहीं था!

घर अपनी बंदिशें लाता ही है… घर के भीतर पहुँचते ही बच्चों की चहचहाने से उसके भीतर की धुँध छँट-सी जाती, बच्चों की किलकारियाँ उसे जिला रखतीं, पर महीनों अपने बिजनेस में व्यस्त पवन के न आने से उसकी सर्द रातें खामोश उदासी में बदल जातीं… कितना बोलती थी निशा, पर अब उसकी चुप्पी उसके वजूद को निगलती जा रही थी… होश वालों को खबर क्या…

समय पंख लगाकर उड़ता है। ऐसा सब कहते हैं। पर जिसके भीतर खालीपन हो, उसके भीतर समय घुन की तरह ठहर जाता है और कीड़े की तरह खा जाता है उसके वजूद को! निशा के वजूद को भी खा रहा था समय धीरे-धीरे!

इसी उहापोह के सिलसिले के बीच उस दिन निशा के फोन की घंटी घनघनायी, देखा तो एक मैसेज था… ‘कैसी हैं आप! आपके पेपर की बहुत तारीफ सुनी! बधाई निशा ने व्हाट्स एप की तस्वीर को इनलार्ज किया, तो कमल की ही तस्वीर दिखाई दी… ‘अरे आप! बिना नाम-पता बताये कहाँ गायब हो गये थे! और मेरे पेपर के बारे में आपको… अभी लिख ही रही थी कि कमल की एक कविता उसके पास आकर ठहर गयी …लफ्ज़ ठहर जाएँ और थमे रहें, कहने दो मन की पंक्तियों को खुद मन से, उसका आना ज़रूरी क्यों हों पास, जिसे दूर मानता ही नहीं मन!

निशा थमी-की-थमी रह गयी… ये कौन था? क्या उसका अपना मन इस उम्र में बगावत कर देगा किसी अनजाने के लिए! सचमुच क्या औरतें अपने मन के हाथों घर-गृहस्थी में आग लगा देती हैं… माँ इसीलिए क्या उसे संयम का पाठ पढ़ाती थीं! पर निशा उससे मिलना तो चाहती थी… क्या ऐसे वो एक पहेली बन उलझाये रखेगा उसे! पर क्या करे निशा, पता पूछने पर पता नहीं बताता! मिलने की बात पर इन्कार करता है… निशा ने उसे सोशल साइट्स पर ढूँढा पर वो कहीं नहीं था… किस दुनिया का वासी था वो जो न मिलने की इच्छा रखता था, न उसे देखने की! एक बार निशा ने उससे मिलने की इच्छा ज़ाहिर की थी, पर कमल ने इनकार कर दिया था- ‘निशा जी! सारी दुनिया को छोड़कर जहाँ चला आया हूँ, वहाँ से लौटना नहीं हो सकता! अब तो बस यहाँ जितना समय बचा है, देकर कुछ ज़िन्दगियों में रोशनी करना चाहता हूँ… अपने अँधेरों से निकलने के लिए इतना तो करना ही चाहिए ना!

निशा कुछ समझ नहीं सकी थी! कैसे अँधेरे? कहाँ से आये? अभी किन अंधेरों से भाग रहा है वो! कुछ बताता क्यों नहीं! निशा और कमल के बीच फोन पर लगातार बात होने लगी थी पर निशा के लाख पूछने पर भी उसने अपना पता बताने से इन्कार कर दिया था- ‘आपसे बात करके अच्छा लगता है… जानती हैं, इन बच्चों को भी निशा आंटी के बारे में पता है… ये कुछ करना तो चाहते हैं निशा जी, पर घोर गरीबी और ज़िन्दगी की सडऩ से निकलने के रास्ते दुर्लभ हैं इनके लिए! देखते हैं कहाँ ले जाती हैं ज़िन्दगी इन्हें भी और मुझे भी!

निशा कुछ समझ नहीं पाती पर इन पिछले 6 माह की फोनियाई दोस्ती ने उसे हँसने और मुस्कुराने के कुछ पल दे दिये थे, जिसे वो खोना नहीं चाहती थी! पवन इतना व्यस्त था कि इस ओर सोचने की फुर्सत ही नहीं थी उसे, पर निशा की खुशी को उसने भी देखा था- ‘क्या बात है तुम बहुत बदली लग रही हो जैसे किसी ने निशा के मन का चोर पकड़ लिया हो! पर पवन की प्रतिक्रिया ने उसे उत्साहित कर दिया- ‘सुनो जानते हो वो जो प्रोफेसर आये थे न कॉन्फ्रेंस में! पवन का फोन आ गया था- ‘सुनो ये सब तुम अपने पास ही रखो, शेयर इतनी तेज़ी से गिर रहे हैं कि… कहते हुए वह बाहर निकल गया था! निशा ठगी-सी रह गयी… ‘ऊधौ, मैं किस हाट बिकानी…

देश भर की आर्थिक मंदी ने पवन के बिजनेस को भी प्रभावित किया था… पवन किस मरीचिका के पीछे भाग रहा था, खुद भी नहीं जानता था… शेयर बाज़ार की बढ़त उसे ज़िन्दा रखती थी और शेयर की मंदी उसे शराब में डुबो देती थी… इस बिजनेस की मरीचिका ने उसे उससे ही दूर कर दिया था, फिर निशा क्या और निशा के बच्चे क्या! निशा पवन का सहारा बनना चाहती थी पर पवन न जाने कहाँ और कैसे अपने ही भीतर सिमटा जा रहा था! निशा उसके पीछे दौडऩा चाहती पर पवन अपनी ही कैद में डूबा निशा को दूर किये देता… ऐसी ही एक रात शेयर बाज़ार की गिरत ने उसे इतना कमज़ोर कर दिया कि उसने निशा पर हाथ उठा दिया था… ‘कितनी खुश नज़र आ रही है साली! किसके साथ लगी रहती है फोन पर, बता! देखता हूँ आज तुझे! निशा स्तब्ध रह गयी थी! बुरे से बुरे वक्त में भी उसने कभी ऐसे व्यवहार नहीं किया था! निशा बुरी तरह टूट गयी थी… कितनी ही देर बच्चों को सीने से लगाये सुबकती रही थी!

कमल को यह सब नहीं कह सकी! वह उसकी हँसी से ही हैरान रहती, पूछने पर अक्सर उसे कहता- ‘इंसा रखे सब्र तो खुदा भी उसका हक देता है, बेसब्री आदम को इंसा रहने नहीं देती निशा उसका पता पूछती तो जवाब होता- ‘पता पूछो इन बेसब्र हवाओं से, हर दरख्त पर नाम मेरा ही है, तुम आओ तो भी तो किस पते पर? हर दरख्त सूखा जा रहा है इन दिनों निशा उसकी तकलीफ के बारे में पूछना चाहती, पर तब तक फोन कट जाता! रिचा ने ही उसका पता बताया… अल्मोड़ा के पास किसी गाँव में बच्चों को पढ़ाने का काम करता था कमल! साथ ही सावधान भी किया- ‘कमल सर कुछ गुमनामी की ज़िन्दगी जी रहे हैं मैडम! सुनते हैं कि घर वालों ने भी साथ छोड़ा हुआ है, बस बच्चों को पढ़ाने और दुनिया को बदलने की धुन सवार थी उन पर और इसी में एक दिन अपनी बँधी-बँधाई नौकरी छोड़कर चले गये! उनके घर वाले कहते हैं कि कोई गम्भीर बीमारी भी है उन्हें और शायद वे लम्बे समय तक… निशा ने उसके होठों पर हाथ रख दिया था… ऋचा घबरा उठी- ‘क्या कर रही हैं मैडम! उनसे मत मिलना मैडम! पवन सर का गुस्सा जानती हैं ना आप! निशा खुद में थी ही कहाँ… ‘उसे तो जाना ही होगा और मिलना ही होगा। क्या हुआ उसे! क्यों वो दरख्तों के सूखने की बात कहता है? जवाब चाहिए उसे वरना जीना कितना मुश्किल हो जाएगा! और एक दिन निशा पहुँच गयी उस अनजान पते पर, जिसके सहारे वो जीना सीख रही थी दोबारा!

बच्चों की भीड़ लगी थी और उनके बीच ‘माटी गड़े कुम्हार वाला कुम्हार बना कमल था! कमल उसे देखकर हैरान नहीं हुआ- ‘आओ, जानता था तुम आओगी। पर इतनी जल्दी, ये नहीं पता था निशा उसे देख हैरान रह गयी… कमल बीमार लग रहा था इस खुली हवा में भी! पर उसे देखते ही खिल उठा- ‘आओ, तुम चाहती हो ना, मैं तुम्हें सुनूँ। कहो, क्या कहना चाहती हो… निशा जन्मों से जैसे कुछ कहने के लिए किसी का इंतज़ार कर रही थी पर ये कैसे जानता है! कमल उसके मन को जैसे पहले से ही जानता था- ‘तुम्हें देखते ही मुझे लगाए जैसे तुम एक दोस्त ढूँढ रही हो, तुम्हारे मन को जिस दोस्त की तलाश थी, वो मैं हो सकता हूँ… बताओ, गलत कह रहा हूँ? कमल मुस्करा उठा… निशा भी मुस्काई!

निशा को कमल ने बताया कि कमल ब्रिटल बोन नाम की बीमारी का शिकार था, जिसमें शरीर की हड्डियों का टूटना लगातार जारी रहता था… शरीर के किसी भी हिस्से को कभी भी टूटने का खतरा था… तेज़ गर्मी शरीर सह नहीं सकता था तो दूर पहाड़ी इलाका ही तो कर्मस्थली बन सकता था… फिर यहाँ आया तो लगा, इन लोगों के लिए ही शायद मुझे चुना गया हो! वो तो तुम्हें देखकर लगा कि जैसे तुमसे बात करने के लिए ही कुछ मज़बूती बची हुई है… कमल कहकर हँस पड़ा! निशा के हाथ से जैसे ज़िन्दगी फिसली जा रही थी… ‘तुम किस तरह मुस्करा सकते हो ऐसे? मेरे साथ चलो… मैं तुम्हें लेकर जाऊँगी अच्छे से अच्छे डॉक्टर के पास!

हो न तुम मेरी डॉक्टर! आयी हो ना मिलने इतनी दूर से अपने किसी दोस्त के नाम पर! मैं हर ओर दिखा चुका हूँ… पिता को भी यही दिक्कत थी और जीन्स से मुझ तक चली आयी… जल्दी थक भी जाता हूँ और इसका इलाज भी नहीं है दोस्त! बस कुछ यादें लेकर ही रहना चाहता हूँ तुम्हारी और कुछ और प्यारे लोगों की! निशा को लगता था साँस रुक जाएगी… ‘मैं तुम्हें नहीं जानती पर न जाने क्यों लगा तुम ही हो, जो मेरी बात सुन और समझ सकता है… मैं इतनी दूर चली आयी, पर क्या मैं कुछ नहीं कर सकूँगी!

कमल मुस्कुराया- ‘कोलोजन नहीं बनता अब शरीर में! समझती हो कोलोजन! बिल्कुल तुम्हारी तरह! प्रोटीन की तरह तुम भी ज़रूरी हो न अपने बच्चों की ग्रोथ के लिए! तुम नहीं रहोगी तो कैसे बढ़ेंगे वो! ऐसे ही प्रोटीन नहीं बन रहा शरीर में! तो हड्डियाँ तेज़ी से चटक जाती हैं कभी भी! इसीलिए व्हील चेयर का सहारा लेना पड़ता है…

10 दिन कैसे बीत गये निशा को पता ही न चला! उसके दोनों बच्चों के साथ कमल ऐसे घुलमिल गये थे जैसे अपने ही बच्चे हों! स्कूल के बच्चे अपने हाथों में समेटे उन दोनों रुई के गोले जैसे बच्चों को लिये-लिये फिरते! निशा इतना शायद कभी नहीं बोली थी… अपने मन की हर बात को जब वो कहती, कमल आँखें बन्द किये सुनते-सुनते तल्लीन हो जाते! वो खुद भी शायद इतने ठहाके लगाकर कभी नहीं हँसे होंगे! निशा का प्रेम इस बाड़ी में उपज रहा था, पर किस हाट बिकायेगा यह प्रेम! पवन का कुछ अता-पता न था… उस दिन निशा ने फोन करने की कोशिश की थी, तो व्यस्त होने की बात कहकर पवन ने देर से आने की सूचना मैसेज पर दे दी थी… निशा सोचती, क्या प्रतिक्रिया होगी पवन की, जब वो घर पहुँचेगा! निशा अपने काँपते हाथों से घर से निकलने की सूचना देकर निकल आयी थी किसी अनजान सुख की तलाश में!

कमल के साथ दिन पंख लगाकर निकले जा रहे थे! निशा उस वादी के भीतर बहते बादलों की नदी को देखकर एक नये सुख को जी रही थी… सूरज की पहली किरण को देखने के लिए बेचैन बच्चे उसे बिस्तर पर न मिलते! स्कूल के बच्चों के साथ वो टकटकी लगाये सूरज दादा का इंतज़ार करते! बादल नदी की तरह बहते और दिन की चटकीली धूप में कमल के साथ बहते हुए निशा को अपने होने का अहसास होता  जिसे वह बरसों बरस पहले भूल चुकी थी!

अब सफरी झोला तैयार था… निशा को लौटना था, बच्चे तैयार हो चुके थे… ‘फिर कब मिलना होगा -कमल उदास था। उदास निशा भी थी… बहती रेत को हाथों में कौन थाम पाया है! दोनों के बीच कोई वादा नहीं था… कमल किस रास्ते जाएँगे, खुद भी नहीं जानते थे, निशा लौट रही थी, बस एक ही वादा था, जब कभी कमल उस ओर से गुज़रेंगे तो निशा से मिलेंगे ज़रूर! और निशा इस पूरी कथा के बीच कब कहाँ गुज़र जाएगी, क्या वो खुद जानती थी!

वापस आकर निशा ने उस पर्ची को मोड़कर कॉपी के भीतर रख दिया… पवन कुछ दिन बाद लौटा बिना यह जाने कि इस बीच कितना बड़ा तूफान होकर गुज़र चुका है! निशा ने तय किया इस बार पवन को समेटने की कोशिश करेगी ज़रूर! एक मौका देगी उसे! शायद उसकी ही कोशिश से पवन लौट आये! प्रेम का विस्तार क्या हमें दूसरों के लिए भी खुद को विस्तृत करने के लिए तैयार कर देता है? निशा सोचती है… क्या वो भीतर से खाली है? नहीं अब भीतर खालीपन महसूस नहीं होता… एक इच्छा ज़रूर होती है… बिटिया को क्या ऐसा डॉक्टर बनाया जा सकता है, जो ब्रिटल बोन का इलाज कर पाये! बिटिया से पूछती है, तो बिटिया तुतलाती है… जैसे माँ के मन को पढ़ रही हो! और मुस्कुराकर जैसे हाँ कर देती है। वैसे निशा आज भी इंतज़ार करती है टेलीफोन की घंटी का, जो कभी-कभी टुनटुनाती है, निशा उन दिनों ज़्यादा मुस्काती है… सुनने वालों को ज़्यादा हँसी सुनाई देती है, बच्चे ज़्यादा मुस्काते हैं…सूरज कुछ ज़्यादा चमकने लगता है उन दिनों…।