कहाँ गया वो असली दूध?

लगातार मिलावटी दूध पी रहे हैं हम, पहले कहा जाता था कि दूध-घी खाने से सेहत बनती है। लेकिन आज भारत में खासकर नगरों और महानगरों में शुद्ध दूध ही नहीं मिलता। दिल्ली जैसे महानगर में तो शुद्ध दूध दूर की कौड़ी हो चुका है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो हम मिलावटी दूध पी रहे हैं। इससे अनेक बीमारियाँ हो रही हैं। इस मिलावटी दूध से हमारी सेहत को कितना नुकसान पहुँच रहा है, बता रहे हैं श्वेता मिश्रा और राजीव दुबे

भाग-1

भारत में दूध सिर्फ एक पेय पदार्थ नहीं है। यह सेहत के लिए अमृत के समान भी माना जाता है। लाखों माँएँ बच्चों को महज़ दूध पिलाने के लिए कसमें खिलाती हैं और चाहती हैं कि उनका बच्चा रोज़ाना दूध पीकर ही सोये। लेकिन आपको कितना बड़ा सदमा लगेगा, जब आपको यह पता चले कि आप और आपके बच्चे जो दूध रहे हैं, उसमें हाइड्रो पेरॉक्साइड मिला हुआ है, जो कि आमतौर पर ब्लीच, यूरिया में डिटर्जेंट, एफ्लेटॉक्सिन आदि में उपयोग किया जाता है। इस तरह का मिलावटी दूध स्वास्थ्य को गम्भीर नुकसान पहुँचा सकता है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली और अन्य राज्यों में मिलावटी दूध और डेयरियों का खेल बहुत बड़ा है।

कुछ समय पहले ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भारत सरकार को चेताया है कि अगर मिलावटी दूध पर काबू नहीं पाया गया, तो 2025 तक 87 फीसदी लोग घातक बीमारियों का शिकार हो सकते हैं, इन बीमारियों में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी भी शामिल हैं। जाँच रिपोर्टों में खुलासा हुआ कि देश में दुग्ध उत्पादन की विषम

परिस्थतियों के कारण डेयरी उद्योग मिलावटी तरीकों को अपनाकर लोगों की सेहत खिलवाड़ कर रहे हैं। भारत में ‘श्वेत क्रान्ति’ को 1975 में ऑपरेशन फ्लड के तहत शुरू किया गया था, जिससे देश में दूध का उत्पादन 1970 में 220 लाख टन से बढक़र वर्तमान में 1163 लाख टन हो गया। वर्तमान में भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है, जहाँ दुनिया के दुग्ध उत्पादन का करीब 18.5 फीसदी है। कमाई के लालच में दूध में मिलावट का परिणाम सेहत से खेलने वाला साबित हो रहा है।

मिलावटी दूध और इसे पीने से होने वाली घातक बीमारियों के बारे में तहलका संवाददाता ने दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल से बातचीत की। डॉ. अनिल बंसल ने कहा- ‘दूध एक ऐसा खाद्य पदार्थ है, जिसमें ज़रूरी खनिज और विटामिन होते हैं। लेकिन मिलावटी दूध, जिसमें यूरिया, डिटर्जेंट, हाइड्रो पेरॉक्साइड मिलाने से कैंसर समेत कई घातक बीमारियों का खतरा पैदा हो सकता है।’ डॉ. बंसल ने कहा कि उपभोक्ताओं को चाहिए कि अनधिकृत स्रोतों से मिलने वाले दूध के उपयोग से परहेज़ करें।

एफएसएसएआई : 41 फीसदी नमूने विफल

भाारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) ने हाल ही में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को लेकर सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की, जिससे पता चला है कि लगभग 41 फीसदी नमूने एक या इससे अधिक गुणवत्ता मानक पर खरे नहीं उतरे हैं। इस सर्वे में 50 हज़ार से अधिक आबादी वाले 1,103 कस्बों और शहरों से दूध के कुल 6,432 सैंपल लिये गये। ये सैंपल दोनों संगठित (खुदरा विक्रेताओं और प्रोसेसर) के साथ-साथ गैर-संगठित (स्थानीय डेयरी फार्म, दूध विक्रेताओं और दूध मंडियों) से एकत्र किये गये थे। एकत्र किये गये नमूनों की संख्या नमूना स्थानों पर आबादी से जुड़ी हुई थी और कच्चे दूध के साथ-साथ विभिन्न प्रकार के प्रसंस्कृत दूध (प्रोसेस्ड मिल्क) को शामिल किया गया। यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वेक्षण रहा, जिसमें सेहत को ध्यान में रखकर दूध की गुणवत्ता को लेकर पड़ताल की गयी। इससे पहले एफएसएसएआई ने 2011 और 2016 में भी क्रमश: दूध के 1791 और 1663 सैंपल लेकर सर्वे किया था। भले ही ये सर्वेक्षण जानकारीपूर्ण थे; लेकिन ये अपर्याप्त थे, क्योंकि इन सर्वेक्षणों से कोई स्पष्ट तस्वीर निकलकर नहीं आयी थी। इनको अलग-अलग प्रयोगशालाओं के ज़रिये सैंपल के साइज और परीक्षणों के लिए ज़रूरी प्रक्रिया का अनुपालन नहीं किया गया। इसके अलावा केवल गुणात्मक विश्लेषण किया गया था और ज़रूरी सुरक्षा मापदंडों को सर्वेक्षण में शामिल नहीं किया गया।

एफ्लेटॉक्सिन एम-1 का उपयोग

सर्वे में यह भी सामने आया है कि एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मात्रा सीमा से अधिक पायी गयी। यह पहली बार है जब दूध में एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मौज़ूदगी का आकलन किया गया है। एफ्लेटॉक्सिन एम-1 दूध में चारा और खाने के जरिये से आता है, जिसका देश में अब तक कोई नियंत्रण नहीं है। दूध में एफ्लेटॉक्सिन एम-1  मिलने के उच्चतम स्तर वाले शीर्ष तीन राज्यों में तमिलनाडु (551 नमूनों में से 88), दिल्ली (262 नमूनों में से 38) और केरल (187 नमूनों में से 37) रहे।

यह समस्या कच्चे दूध के बजाय प्रसंस्कृत दूध में अधिक पायी गयी। सर्वे में यह भी सामने आया कि दूध में एंटीबायोटिक की मात्रा भी सीमा से अधिक पायी गयी। एफ्लेटॉक्सिन एम-1 की मात्रा के उच्चतम स्तर वाले शीर्ष तीन राज्यों में मध्य प्रदेश (335 नमूनों में से 23), महाराष्ट्र (678 नमूनों में से 9) और यूपी (729 नमूनों में से 8) रहे।

सर्वे से पता चला है कि लगभग 41 फीसदी नमूनेसुरक्षित हैं, हालाँकि ये मानक से एक या दूसरे गुणवत्ता पैरामीटर से कम हैं। कच्चे और प्रसंस्करण दूध में कम वसा या कम एसएनएफ (ठोस वसा नहीं) का अनुपालन नहीं होता है। कच्चे दूध में वसा और एसएनएफ का अनुपात प्रजातियों द्वारा व्यापक रूप से भिन्न होता है और यह चारे की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। दूध में वसा और एसएनएफ की मात्रा में सुधार के लिए मवेशियों को अच्छा भोजन देना चाहिए यानी अच्छी कृषि पद्धतियों को अपनाया जाना चाहिए। इस प्रकार कम वसा और एसएनएफ को पानी के साथ दूध के पतले होने को समझा जा सकता है। मानकीकृत और प्रसंस्कृत दूध में वसा और एसएनएफ का अनुपाल न होना आश्चर्यजनक है। हितधारकों से चर्चा के बाद इस रिपोर्ट को अंतिम रूप दिया गया। 9 सितंबर, 2019 को हितधारकों की बैठक में इस पर चर्चा की गयी और इस रिपोर्ट को स्वीकार किया गया। सर्वेक्षण में पाया गया है कि विशेष रूप से प्रसंस्कृत दूध में गुणवत्ता मानकों पर गैर-अनुपालन चिन्ता का विषय है। ईएनटी विशेषज्ञ डॉ. एम.के. तनेजा ने बताया कि नवजात शिशुओं में फेफड़ों से सम्बन्धित बीमारियों की मुख्य वजह मिलावटी दूध है।

मवेशियों की भयावह स्थिति 

एफएसएसएआई की रिपोर्ट से अधिक फेडरेशन ऑफ इंडियन एनिमल प्रोटेक्शन ऑर्गेनाइजेशन (एफआईएपीओ) द्वारा जारी किये गये आँकड़े चिन्ताजनक हैं। यह दर्शाता है कि लोग जो दूध पीते हैं, उससे उनमें हृदय रोग, मधुमेह, कैंसर समेत अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है। एफआईएपीओ की यह रिपोर्ट कैटलॉग : अनवीलिंग द ट्रुथ ऑफ द इंडियन डेयरी इंडस्ट्री’ शीर्षक से जारी की गयी है।

इसकी वजह यह है कि भारत के 10 प्रमुख दुग्ध उत्पादक राज्यों के 451 दुग्ध उत्पादक केंद्रों में मवेशियों की स्थिति भयावह है और दुग्ध उत्पादक डेयरियों को विनियमित करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा तत्काल ध्यान देने ज़रूरत बतायी गयी। एफआईएपीओ की जाँच रिपोर्ट से पता चलता है कि इन डेयरियों में सबसे अधिक गायों को कैसे रखा जाता है, उनकी उचित देखभाल नहीं की जाती है। साथ ही उनके बछड़़ों को भी यूँ ही छोड़ दिया जाता है। अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए उनके साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है, जैसे एंटीबायोटिक्स और हार्मोन देकर दूध देने की मशीन बन जाएँ।

हालाँकि गायों को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता है; लेकिन जो लोग इन गायों का दूध पीते हैं, उनमें दिल की बीमारी, मधुमेह, कैंसर और कई अन्य बीमारियाँ होने का खतरा पैदा हो जाता है। दुधारू पशुओं के संगठित और असंगठित प्रशासन ने निस्संदेह दूध की सुरक्षा पर एक सवालिया निशान खड़ा कर दिया है, जो इन डेयरी उत्पादन के साथ-साथ भारत के दूध उत्पादन के वैश्विक नेतृत्व के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं। मवेशियों को बछड़ों से (नर बछड़े 25 फीसदी डेयरियों में पहले सप्ताह के भीतर मर जाते हैं) या अलग कर दिया जाता है। पशु चिकित्सक देखभाल के लिए न के बराबर हैं और करीब 50 फीसदी डेयरियों में अचानक दूध का उत्पादन बढ़ाये जाने के लिए अवैध तरीके से खरीदी जाने वाली दवाओं के साथ इंजेक्ट किया जाता है। दूध न देने वाले मवेशियों को आर्थिक रूप से कमज़ोर किसानों को उनके व्यक्तिगत उपयोग के लिए या 62.9 फीसदी डेयरियाँ इनको बूचड़खानों के लिए बेच देती हैं। ऐसा उस जानवर की कीमत को देखते हुए तय करते हैं कि उनका मुनाफा कहाँ पर ज्यादा है।

जर्सी, क्रॉस ब्रीड और होल्सटीन फ्रेजि़यन प्रजाति के मवेशियों से अप्राकृतिक तरीके से 20 लीटर प्रति पशु रोज़ाना दुग्ध उत्पादन के लिए चुना गया है। ज्यादा दूध उत्पादन के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए इन जानवरों के साथ ज्यादती की जाती है। इससे डेयरी जानवरों पर कई क्रूर प्रयोग करते हैं। इन क्रूर प्रयोगों की वजह से डेयरी में मवेशियों के औसत जीवनकाल भी कम हो जाता है, साथ ही प्रजनन सम्बन्धी बीमारियों और संक्रमणों का जोखिम भी बढ़ जाता है। गाय का जीवन स्वाभाविक रूप से 25 वर्ष की तुलना में एक डेयरी प्रतिष्ठान में औसतन 10 साल रह जाता है। हरे चारागाहों पर खिलने वाली खुश गायों की छवियाँ वास्तव में डेयरी उद्योग के लिए सही विकल्प के तौर पर होनी चाहिए।

भारत के 10 राज्यों में एफआईएपीओ की डेयरी जाँच से भारत की ‘श्वेत क्रान्ति’ के पीछे के कड़ुवे सच का पता चलता है। शहरी और कस्बाई इलाकों में तंगहाल डेयरियों में मवेशियों को काले बाड़े बनाकर रखा जाता है, जहाँ हवा की निकासी तक का बंदोबस्त नहीं होता है। इससे यहाँ के कमज़ोर और बीमार पड़े रहते हैं। दूध की कमी को बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन जैसी दवाओं और हार्मोन्स का भी प्रयोग किया जाता है। यहाँ पर पशु चिकित्सा जैसी सुविधाएँ न के बराबर होती हैं; क्योंकि ज्यादातर अवैध तरीके से चलायी जाती हैं। इन डेयरी में कई ज़ख्मी पशु भी मिले। इस प्रकार दूध और दूध उत्पादों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए जानवरों के साथ अमानवीयता बरती जा रही है, जो अच्छे संकेत नहीं हैं।

ऐसी स्थिति इसलिए बनी हुई है, क्योंकि डेयरी उद्योग द्वारा इन सभी तरीकों को आर्थिक लाभ और मुनाफे के लिए लागत में कटौती के सन्दर्भ में अपनाता है। रिपोर्ट में पशु कल्याण के मौज़ूदा कानूनों के साथ-साथ शहरी शासन के तत्काल और सख्त कार्यान्वयन का आह्वान किया गया है। इसमें उन चुनिंदा क्षेत्रों में अतिरिक्त नियमन की ज़रूरत पर भी ज़ोर दिया गया है कि जहाँ डेयरी में पशुओं की कमी या उनके साथ अप्राकृतिक तरीके अपनाकर ज्यादा दुग्ध उत्पादन किया जााता है, क्योंकि इससे वहाँ के लागों में स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याएँ बढ़ रही हैं।

खस्ताहाल बुनियादी ढाँचा

खस्ताहाल बुनियादी ढाँचा की बात करें, तो  25.1 फीसदी डेयरियों में आश्रय की कोई व्यवस्था नहीं थी और कई में तो छत तक नहीं थी। कुछ सडक़ के किनारे ही बनाये गये हैं। पक्के फर्श मवेशियों को चोट पहुँचाते हैं और उनके मलबे सही पशुओं फिसलने से चोटिल हो जाते हैं। लगभग 78.8 फीसदी डेयरियों में पशुओं के लिए कच्ची यानी नरम ज़मीन तक मिल पा रही है। करीब 32.9 फीसदी डेयरियों में रात के दौरान उचित रोशनी की व्यवस्था नहीं थी, जिसके कारण अधिकांश डेयरी में शाम को अँधेरे बाड़ों में ही दूध पिलाते हैं।

78.8 फीसदी डेयरियों में हर समय मवेशियों का घूमना आम है। एक छोटे से क्षेत्र में अधिकतम संख्या में मवेशियों को समायोजित करने के लिए जगह बहुत कम होती है। इतना ही नहीं, कई जगह पर पशु इधर-उधर कहीं जा न पाएँ, इसलिए उन्हें रस्सी या चेन से बाँध दिया जाता है। इससे मवेशियों को अत्यधिक शारीरिक कष्ट होता है, साथ ही उनको उन्हें प्राकृतिक आरामदायक जीवन बिताने में बाधक होता है। चारे की गुणवत्ता और मात्रा डेयरी मालिक की आर्थिक स्थिति पर निर्भर करती है। 57.8 फीसदी फार्म प्रतिदिन अपने मवेशियों के लिए ज़रूरी न्यूनतम मात्रा (20 किग्रा) से आधे से भी कम खिलाते हैं। कृत्रिम गर्भाधान के माध्यम से बार-बार प्रजनन करने से पशुओं को गम्भीर प्रजनन समस्याएँ होती हैं। सर्वेक्षण में पाया गया कि कुल मवेशियों की 30-40 फीसदी इससे प्रभावित पायी गयी।

मादा पशु से उसके बच्चों को कर देते हैं अलग

24 फीसदी डेयरियों में जन्म के तुरन्त बाद मादा पशुओं से उनके बच्चों को अलग कर दिया गया। ये बछड़े अपनी माँ से कभी सम्पर्क नहीं कर पाते हैं। 25.1 फीसदी डेयरियों में पशुओं के नर बछड़ों की मृत्यु पहले महीने के भीतर हो जाती है। यदि वे जीवित रहते हैं, तो उन्हें या तो बेच दिया जाता है या काटने के लिए भेज दिया जाता है। बूढ़े, गैर दूध देने वाले मवेशियों को भी 62.9 फीसदी डेयरियों के मालिक छोटे किसानों या बूचडख़ानों को बेच रहे हैं। डेयरी किसानों के लिए सबसे सुविधाजनक विकल्पों में से एक सडक़ों पर इन गैर-ज़रूरी गायों को छोडऩा भी हो गया है। लगभग 57.85 फीसदी डेयरियों में जानवरों में तनाव की स्थिति या चोटें पायी गयीं। लगभग 55.9 फीसदी डेयरी मालिक दूध देने के लिए बीमार जानवरों के उपयोग की अनुमति देते हैं। 64.1 फीसदी डेयरियों में छोटी चोटों से लेकर ट्यूमर और फ्रैक्चर तक की चोटें पायी गयीं।

ऑक्सीटोसिन का उपयोग

दूध का उत्पादन बढ़ाने के लिए ऑक्सीटोसिन का अवैध उपयोग 46.9 फीसदी डेयरी में एक सामान्य घटना है। डेयरी मालिक अत्यधिक मात्रा (3 से 4 मिली) तक का प्रयोग करते हैं। ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स रूल्स, 1945 के तहत, ऑक्सीटोसिन एक शेड्यूल-एच ड्रग है और इसे केवल एक पंजीकृत मेडिकल प्रैक्टिशनर के प्रिस्क्रिप्शन पर ही सप्लाई करना होता है। ऑक्सीटोसिन इंजेक्शन के निर्माण को इसके दुरुपयोग से बचने के लिए केवल सिंगल यूनिट ब्लिस्टर पैक में देना ज़रूरी है। पशु चिकित्सा देखभाल के 84.3 फीसदी मामलों में नियमित टीकाकरण प्रदान नहीं किया गया। इससे पशुओं में घातक रोग, जैसे- पैर और मुँह के रोग (एफएमडी), रक्तस्रावी सेप्टिसीमिया (एचएस) और ब्लैक क्वार्टर रोग का प्रकोप होता है। इंजेक्शन के टीके से बुखार आने की स्थिति से प्रेरित होकर और दूध की मात्रा में गिरावट को रोकने के लिए मुख्य रूप से टीकाकरण से बचा जाता है। मवेशी परिसर के लिए पंजीकरण नियम 1978 के तहत, शहरों या कस्बों में जिनकी आबादी एक लाख से ज्यादा है, वहाँ पर डेयरियों का पंजीकरण करना कराना ज़रूरी है। इस नियम का पालन लगभग कहीं नहीं किया जाता है। केवल 14.3 फीसदी डेयरियाँ सम्बन्धित नगर निगमों या भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) के तहत पंजीकृत थीं। पूर्वी दिल्ली क्षेत्र में कई वर्षों से दूध बेचने वाले से सम्पर्क किया, जो राष्ट्रीय राजधानी में दूध की आपूर्ति करता है। इस दूध विक्रेता गोविंद ने कहा कि मैं 10 लीटर दूध में एक लीटर पानी मिलाता हूँ; लेकिन कभी भी कोई अवशेष नहीं मिलाता।’ उसने कहा कि मुझे नहीं पता कि दूध उत्पादक डिटर्जेंट का इस्तेमाल करते हैं या नहीं।

राज्यवार मुद्दे

उत्तर प्रदेश में जो 233.30 लाख टन के वार्षिक उत्पादन के साथ देश का सबसे बड़ा दूध उत्पादक राज्य है। सर्वेक्षण में पाया गया कि 56 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे। 76 फीसदी डेयरियों में मवेशियों के लिए किसी भी प्रकार से बैठने की सुविधाजनक व्यवस्था नहीं मिली। 74 फीसदी डेयरियों में तो जंज़ीरों या रस्सियों के बिना भी जानवर इधर-उधर नहीं टहल सकते थे। लगभग 22 फीसदी डेयरियाँ दूध देने के दौरान ऑक्सीटोसिन का उपयोग करती हैं। 50 फीसदी डेयरियाँ पशु नर बछड़ों को स्वाभाविक रूप से तब तक बाहर निकालने की अनुमति नहीं देती हैं, जब तक कि मादा पशु करीब छ: से सात माह दूध देने की स्थिति में होती हैं। लगभग 92 फीसदी डेयरियों में नियमित रूप से पशु चिकित्सक नहीं आते हैं। करीब 18 फीसदी डेयरियों में कोई भी जीवित नर बछड़ा नहीं था; जबकि 24 फीसदी डेयरियों ने बछड़ों को काटने के लिए बेच दिया। लगभग 70 फीसदी डेयरियों को पुराने, अनुत्पादक मवेशियों को हटा दिया गया; जबकि 28 फीसदी डेयरियों ने पशुओं को काटने लिए बूचडख़ानों को बेच दिया। लगभग 48 फीसदी डेयरियों ने लगातार दूध देने के लिए बीमार जानवरों का भी इस्तेमाल किया।

राजस्थान देश का दूसरा सबसे बड़ा डेयरी उत्पादक राज्य है, जिसका लक्ष्य उत्तर प्रदेश से आगे निकलना है। यहाँ भी 51.06 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे। किसी भी डेयरियों ने मवेशियों के बैठने की खास व्यवस्था नहीं थी। लगभग 14.3 फीसदी डेयरियों ने दूध पिलाते समय ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया। लगभग 87.2 फीसदी डेयरियों ने अपने मवेशियों को एक छोटे से तार पर बाँध दिया। पशुओं के नर बच्चों के साथ ज्यादती हुई; क्योंकि 42.9 फीसदी डेयरियों में एक भी जीवित नर पशु नहीं मिला।  50 फीसदी से अधिक डेयरियों ने नर बछड़ों को काटने के लिए बेच दिया था। लगभग 40.8 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार और घायल जानवरों का इस्तेमाल किया। 98 फीसदी डेयरियों में प्रकाश की उचित सुविधाओं का अभाव था, साथ ही मवेशियों के लिए आराम करने को पर्याप्त जगह भी नहीं थी।

तेलंगाना, दक्षिण भारत का एक प्रमुख दूध उत्पादक  राज्य है। यह 127.6 लाख टन के उत्पादन के साथ देश के कुल दूध उत्पादन में 9.6 फीसदी का योगदान देता है। यहाँ की डेयरी की हालत भी अच्छी नहीं पायी गयी। 88.9 फीसदी डेयरियों में फर्श के रूप में सीमेंट और ईंटों का मिश्रण था। लगभग 82.2 फीसदी डेयरियों में हर समय जानवरों को रखा जाता था। 53.3 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया गया और 93.3 फीसदी डेयरियों में नियमित रूप से जाने वाले पशु चिकित्सक नहीं थे। लगभग 73.3 फीसदी डेयरियों ने या तो नर बछड़ों को छोटे किसानों को या फिर काटने के लिए बेच दिया। 64.5 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार और घायल जानवरों का उपयोग किया।  82.2 फीसदी डेयरियों में रोशनी की कोई खास व्यवस्था नहीं थी और 86.6 फीसदी डेयरियों में आराम करने को भी पर्याप्त जगह नहीं थी। इसके अलावा 70 फीसदी डेयरियाँ गैर दूध देने वाले मवेशियों को किसानों या बूचडख़ानों को

बेचती हैं। गुजरात कुल राष्ट्रीय दुग्ध उत्पादन में 103 लाख टन दूध का योगदान देता है और प्रतिष्ठित दूध ब्रांड ‘अमूल’ यहीं का है। विभिन्न डेयरी और सहकारी संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड (एनडीडीबी), गहन मवेशी विकास कार्यक्रम (आईसीडीपी), भारतीय कृषि उद्योग फाउंडेशन (बीएआईएएफ) जैसी कई स्थानीय डेयरी योजनाएँ चलायी जा रही हैं, ताकि लोगों को डेयरी लेने के लिए प्रोत्साहित किया जा सके। इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाले सभी मुद्दों को लाभदायक व्यवसाय के रूप में विकसित किया गया है। यहाँ भी, 68.1 फीसदी डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 85.1 फीसदी डेयरियों ने जानवरों को छोटी रस्सियों पर बाँधकर रखा, जिसमें आराम करने के लिए पर्याप्त जगह नहीं थी। लगभग 34.1 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। गुजरात में भी 72.34 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया।

पंजाब को देश का कृषि का कटोरा कहा जाता है और यहाँ पर कुल दुग्ध उत्पादन का 7.3 फीसदी होता है। अपनी खुद की ‘दूध क्रान्ति’ अपनाने पर भी कई समस्याएँ सामने आती हैं। यहाँ  90 फीसदी से अधिक डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 76 फीसदी डेयरियों ने मवेशियों को किसी भी प्रकार बैठने की उचित व्यवस्था नहीं थी। 72 फीसदी से अधिक डेयरियों में बूढ़े जानवर मिले। 52 फीसदी डेयरियों में अंधाधुन्ध ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल किया गया था। करीब 92 फीसदी डेयरियों में मवेशियों के इलाज के लिए स्थानीय सरकारी पशु चिकित्सकों पर निर्भरता है। 58 फीसदी डेयरियों में नर बछड़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता है, जिससे उनकी मृत्यु हो जाती है।

मध्य प्रदेश में जहाँ तक दुग्ध उत्पादन का सवाल है, यहाँ पर 60 लाख टन दूध का उत्पादन राष्ट्रीय स्तर पर करता है। अपनी निमरी और देवनी गाय की नस्लों के लिए जानी जाने वाली स्थानीय सहकारी समितियाँ और पशुपालन विभाग व्यवसाय करने के लिए बेहतर और कुशल सुविधाओं के साथ अधिक लोगों तक पहुँचने के एजेंडे पर काम कर रहा है। हालाँकि, 59.5 फीसदी डेयरियों में ईंट और सीमेंट के फर्श थे और 59.5 फीसदी डेयरियों में पशु हमेशा बँधे रहते हैं। अधिक दुग्ध उत्पादन के लिए लगभग 50 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। लगभग 38.1 फीसदी डेयरियों ने अपने मवेशियों को किसानों को या वध के लिए बेच दिया और 35.7 फीसदी डेयरियों ने अपने पुराने जानवरों को लावारिस छोड़ दिया। लगभग 50 फीसदी डेयरियों ने दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया।

इसी तरह की स्थिति महाराष्ट्र की भी है। यहाँ पर देश के कुल दूध के हिस्से में 6.5 फीसदी योगदान करता है। राज्य की मौज़ूदा 13 डेयरी मशीनरी में सुधार के साथ दुधारू मवेशियों की उत्पादकता बढ़ाने के उद्देश्य से नवीनपूर्न योजना शुरू की गयी थी। लगभग 51.4 फीसदी डेयरियों में फर्श केवल एक से बने थे, जिनमें ईंटें या केवल सीमेंट या दोनों का मिश्रण इस्तेमाल किया गया। 100 फीसदी डेयररियों में पशु हर समय बँधे हुए मिले। ऑक्सीटोसिन का उपयोग प्रचलित था; क्योंकि 48.6 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का उपयोग किया गया। नर बछड़ों को या तो लावारिस छोड़ दिया गया या 74.3 फीसदी डेयरियों में काटने के लिए बेच दिया गया। बूढ़े मवेशियों को या तो छोटे किसानों को बेच दिया गया या 60 फीसदी डेयरियों में काटने के लिए और 51.4 फीसदी डेयरियों में दूध देने के लिए बीमार जानवरों का इस्तेमाल किया गया।

हरियाणा राज्य दुग्ध उत्पादन के क्षेत्र में एक विशेष स्थान रखता है और इसे 2014-15 में 70.4 लाख टन दूध का उत्पादन किया। इस छोटे से राज्य को देश की ‘दूध की बाल्टी’ के रूप में जाना जाता है। राज्य का 80 फीसदी से अधिक दूध अकेले भैंसों से आता है। यह सूबा भैंस की अपनी ‘मुर्रा’ नस्ल के लिए मशहूर है। राज्य सरकार 2014-15 में विभिन्न योजनाओं के माध्यम से अपने स्वदेशी मवेशियों का संरक्षण और विकास करना है। इस राज्य में, 64.6 फीसदी डेयरियों में केवल ईंट और सीमेंट के फर्श थे और 58.3 फीसदी डेयरियों में मवेशियों को खुला में नहीं छोड़ा जाता था। ऑक्सीटोसिन का उपयोग काफी प्रचलन में था, क्योंकि 43.8 फीसदी डेयरियों में मवेशियों पर ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता था। लगभग 91.66 फीसदी डेयरियों में बीमारियों की जाँच के लिए कोई नियमित पशुचिकित्सा की व्यवस्था नहीं थी। 60.42 फीसदी डेयरियों ने अपने बूढ़े, अनुत्पादक मवेशियों को गरीब किसानों को बेच दिया या उन्हें काटने के लिए भेजा। 58.3 फीसदी डेयरियों में बीमार, घायल पशुओं का इस्तेमाल दूध निकालने में किया।

रोज़ाना 145.88 लाख लीटर के उत्पादन के साथ तमिलनाडु दूध उत्पादन में अग्रणी राज्य है। तमिलनाडु को-ऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स फेडरेशन लिमिटेड को गुजरात 15 मॉडल की तर्ज पर 1981 में शुरू किया गया था और इसे ‘आविन’ के नाम से जाना जाता है। सीमांत किसानों को 16 डेयरियों को प्रोत्साहित करने के लिए विभिन्न योजनाएँ 2011 से राज्य सरकार द्वारा शुरू की गयी हैं। यहाँ तक कि 65.6 फीसदी डेयरियों में सीमेंट और ईंट के फर्श थे और 74.3 फीसदी डेयरियों ने हमेशा अपने मवेशियों को बाँध के रखा। 60 फीसदी डेयरियों में ऑक्सीटोसिन का उपयोग पाया गया।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली का देश के कुल डेयरी उत्पादन में 2 फीसदी का योगदान है। इसके सीमांत इलाकों में डेयरियों के विशाल विस्तार है। वसंत कुंज और गाज़ियाबाद, जैसे- क्षेत्रों में एक क्षेत्र में 15,000 मवेशी रखने वाली लगभग 100 डेयरियाँ हैं। अफसोस की बात है कि डेयरी मालिकों के लिए प्रशासन की ओर से बेहतर समर्थन नहीं मिलता है या जिसकी वे उम्मीद करते हैं। यहाँ की डेयरियाँ अक्सर कचरा डंपिंग साइटों, सीवेज लाइनों और अवैध बूचडख़ानों से घिरी होती हैं। 90 फीसदी डेयरियों में ईंटों और सीमेंट के बने फर्श थे। मवेशी ज्यादातर हर समय बँधे रहते हैं। चौंकाने वाली बात यह है कि 100 फीसदी डेयरियों में मवेशियों पर ऑक्सीटोसिन का इस्तेमाल होता है। लगभग 100 फीसदी डेयरियों में कोई भी नर बछड़ा दो महीने से अधिक पुराना नहीं था। उन्हें या तो मरने के लिए छोड़ दिया गया या काटने के लिए बेच दिया गया।

माँग के साथ बढ़ीं चुनौतियाँ

1997 से भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक देश है; लेकिन वर्ष 2014 में इसने पहली बार पूरे यूरोपीय संघ को हरा दिया। भारत के बाद देश के आधार पर अमेरिका सबसे अधिक दूध का उत्पादन करने वाला देश बन गया। चीन तीसरे स्थान पर आता है। हमारी प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता प्रतिदिन 300 ग्राम से अधिक है, जो कि दुनिया के औसत 294 ग्राम प्रतिदिन से कुछ ज्यादा है। हालाँकि, बढ़ती आय व आबादी और बदलती खाद्य प्राथमिकताओं के कारण, दूध और दूध उत्पादों की माँग 2021-22 तक कम-से-कम 2100 लाख टन हो जाएगी, जो कि पाँच वर्षों में 36 फीसदी की वृद्धि होगी। सरकारी आँकड़ों के एक इंडियास्पेंड के विश्लेषण के अनुसार, दूध की पैदावार बढ़ाने के लिए भारत को 2020 तक 1,764 मिलियन टन चारा पैदा करना होगा। लेकिन मौज़ूदा स्रोत केवल 900 मिलियन टन चारे का प्रबंधन कर सकते हैं; इसका मतलब यह है कि 49 फीसदी चारे की कमी। आँकड़ों से साबित है कि चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता का दूध की उत्पादकता की मात्रा और गुणवत्ता पर सीधा असर पड़ता है। 2015 के एसओआईएल रिपोर्ट के अनुसार, तीनों प्रमुख दुग्ध उत्पाद राज्यों ने प्रतिदिन ग्राम उत्पादकता के मामले में राजस्थान (704), हरियाणा (877) और पंजाब (1,032) में चारागाहों के लिए अपनी खेती योग्य भूमि का 10 फीसदी हिस्सा इस्तेमाल किया, जबकि राष्ट्रीय औसत 337 है।

सख्त कानून प्रस्तावित

इस बीच, खाद्य पदार्थों में मिलावट करने वालों को आजीवन कारावास और 10 लाख तक के ज़ुर्माने का सामना करने जैसा सख्त कानून का प्रस्ताव रखा गया है। भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण (एफएसएसएआई) द्वारा प्रस्तावित संशोधनों के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद खाद्य पदार्थों में मिलावट पर अंकुश लगाने के लिए कड़ी सज़ा की सिफारिश की गयी है। नियामक ने अपने सभी राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रवर्तन प्रभागों से कहा है कि वे दूध उत्पादकों की कड़ाई से जाँच करें, ताकि वे खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम का अनुपालन किया जा सके।

(यदि पाठकों के पास दूध में मिलावट या इससे सम्बन्धित कोई तथ्य या सबूत हो, तो तहलका को बताएँ।)