कलाकृति लाती है जीवन में सुंदरता

यह तो है कि हमारे समय और समाज में जितनी महत्वता अन्य शक्तियों जैसे राजनीति, आर्थिक, धर्म, मीडिया आदि की है उतनी कला की नहीं। कम लोग ही कला या कलाओं के पास जाते हैं। अधिकांश के पास उसके लिए समय नहीं होता। फिर भी ऐसे प्रयत्न होते रहते हैं कि कला सहज सुलभ होती रहे।

ऐसा ही एक प्रयत्न इन दिनों म्यूजियम ऑफ गोवा में चल रहा ‘गोवा फेस्ट ऑफ अफोर्डेबल आर्ट’ है। जिसका शुभारंभ पिछले सप्ताह हुआ। इसमें लगभग 100 कलाकारों की कृतियां शामिल की गई हैं। इनमें से अधिकांश कलाकार युवा हंै और अगर सबा हसन, मंजूषा गांगुली जैसे पहले से कुछ जाने जाते नाम हैं तो अधिकांश लगभग अनजान हैं। दाम भी कुछ हजार से लेकर दो-तीन लाख है। पिछले ऐसे फेस्ट में लगभग तीस लाख रुपए की कलाकृतियां बिकी जो एक शुभ लक्षण है।

अगली सुबह कला विदुषी सविता ने मुझ से कविता, कला आदि के बारे में बात की। यहां एक म्यूजियम एक कलाकार ने अपने साधनों से बनाया है, जिनका नाम है सुबोध केरकर। पहले पेशे से वे डाक्टर थे। अब डाक्टरी छोड़ पूरी तरह से कलाकर्म में लगे हैं। म्यूजियम में जिस तरह का वातावरण और गतिविधियां हैं उनसे स्पष्ट है कि यह एक गतिशील कला केंद्र है। रजा फाउंडेशन ने यहां ‘रजा संवाद’ की एक सिरिज़ शुरू करने का निश्चय किया है। चूंकि आधुनिक भारतीय कला के एक अन्य मूर्धन्य फ्रांसिस न्यूटन सूजा मूलत: गोवा के थे और रज़ा हुसैन के साथ प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप के संस्थापकों में से एक थे। हमने इस संवाद को ‘रज़ा-सूजा संवाद’ कहने का निश्चय किया है।

कला की सामाजिक उपयोगिता को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। कला अद्वितीय मानवीय रचना और आविष्कार होती है। पशु-पक्षी, नदी-पर्वत, आकाशगंगाएं आदि सुंदर होते हुए भी सचेत ढंग से कला नहीं रचते। यह काम मनुष्य की करते हैं। इस अर्थ में कला मनुष्य के कुछ अन्य आविष्कारों जैसे भाषा, अमूर्तन, ईश्वर, अध्यात्म की तरह एक अनूठी परिभाषिक उपलब्धि है। उसका किसी चीज के बारे में होना ज़रूरी नहीं है। वह स्वंय उपस्थित होती है। अगर आप किसी कलाकृति को किसी दीवार पर टांगते हैं तो उसमें एक खिड़की खुल जाती है जिससे कुछ मोहक – सुंदर, कुछ अप्रत्याशित कुछ रहस्य और विस्मय, कुछ बेचैन या राहत देने वाला अनायास अंदर आ जाता है। कला का बस भले न चले। अगर आप थोड़े से संवेदनशील और सजग हैं तो वह आपको घेरने लगती है। तरह-तरह की विकृतियों, बकवास और बहुतायत से घिरने की बजाए किसी कलाकृति से घिरना बेहतर है क्योंकि यह आपके जीवन में कुछ सुंदरता ला देती है। कला हमारे बस में न हो, हम कला के बस में हो जाते हैं।

मुंबई के लिटफेस्ट में

देश भर में अलग-अलग जगहों पर जो साहित्य-समारोह लिटफेस्ट होते हैं, उसमें दो बातें सफल होती दिखी हैं। एक, तो साहित्य की परिधि में राजनीति, धर्म, मीडिया, फिल्म, आर्थिक, विज्ञान आदि ला दिया है जिन पर व्याख्यान या चर्चा सुनने बड़ी संख्या में श्रोता जुड़ते हैं। दूसरे श्रोताओं की रुचि में कुछ विस्तार होता है। वे एक से अधिक विषयों की और आकर्षित होते हैं। इस बार टाइम्स ऑफ इंडिया की ओर से मुबई के बांद्रा में महबूब स्टूडियों में आयोजित लिट-फेस्ट में आमंत्रित था। उर्दू कवि गुलजार बता रहे थे कि इस स्टूडियों में जिसका परिसर विशाल है, थोडी बहुत शूटिंग अब भी होती है।

मैं तीन सत्रों में उपस्थित रहा। एक में वक्ता की तरह दो में श्रोता की तरह। अंग्रेजी लेखक अमिताब घोष ने सुंदरवन की अपनी यात्राओं के बारे में विस्तार से बात की। अपनी नई पुस्तक ‘गन आइलैंड’ से कुछ अंश पढ़े। साथ ही एक वीडियों भी दिखाया। सब कुछ जल के बारे में था। एक द्वीप पर एक देवी का पूजाघर भी था जो ‘बंदूक सौदागर’ की देवी थी और जिसके पूजाघर में, जनश्रुति को सही सिद्ध करते हुए एक किंग कोबरा सांप भी निकल आया था।

संयोग से सबसे रोचक सत्र अगला, फिर जल के बारे में था। जिसमें राजेंद्र सिंह और सोपान जोशी के बीच लंबी बातचीत थी। जल के बारे में राजेंद्र सिंह जिस तरह की जिज्ञासा और चिंता अपने वक्तव्य में करते हैं वह रोमांचकारी है। उनका आग्रह इस पर था कि हमारी सारी जल-तकनॉलॉजी ने सामान्य विवेक की अवहेलना की है। जबकि हमारी परिस्थिति में वह अधिक प्रामाणिक और कारगर है। वे पेशे से डाक्टर हैं और रतौंधा से पीडि़त राजस्थान के एक गांव में काम करने गए थे। वहां एक बुजुर्ग ने उन्हें डाक्टरी छोड़ कर जल के काम में लगने के लिए प्रेरित किया। अब वे इस क्षेत्र में अपने मूल्यवान काम और पहल के कारण उचित ही जल पुरूष के रूप में प्रसिद्ध हैं।

तीसरा सत्र जिसमें पवन वर्मा और मनीष पुष्केले के साथ मैं शामिल था ‘भाषा की सुगंध’ पर था। जिसका उपशीर्षक यह था कि हिंदी कैसे भारत का सार निचोड़ कर प्रस्तुत करती है। भारत धर्म-भाषा-भोजन-पोशाक- रीतियों की अपार और अदम्य बहुलता का देश है। और कोई भी भाषा फिर वह कितनी ही बहुसंख्यक क्यों न हो उसका सार समाहित नहीं कर सकती। फिर हिंदी की अपनी 46 बोलियां हैं जिनके अपने सक्रिय मुखर अंचल हैं। एक और समस्या यह है कि हिंदी अंचल इन दिनों धर्मांधता, सांप्रदायिक और जातिवादी धृणा, आर्थिक-पिछड़ेपन से घिरा अंचल है। इसका मध्य वर्ग लगातार अपनी मातृभाषा से दूर जाता वर्ग है। इस सबके बावजूद हिंदी साहित्य अपनी निर्भीकता, खुलेपन, ग्रहणशीलता, बहुलता के सहज स्वीकार आदि के कारण हिंदी समाज का प्रतिपक्ष बन कर उभरा है। उसे धृणा -संकीर्णता, हिंसा-हत्या के पक्ष में नहंी खींचा जा सका है। यही उसकी सच्ची भारतीयता है। हिंदी में इतने अनुवाद होते हैं कि आप जान सकते हैं मोटे तौर पर कि भारतीय साहित्य में क्या हो रहा है।

अंतर्विरोध की सर्जनात्मकता

लिटफेस्ट के अगले दिन एक सत्र उस्ताद विलायत खां पर केंद्रित था। जिसमें बोलना था पर अचानक अस्वस्थ हो जाने के कारण जा नहीं सका। उनकी एक जीवनी नमिता देवीदयाल ने अंग्रेजी में हाल में ही प्रकाशित की है जो सुलिखित है। संयोग यह है कि बांग्ला में उस्ताद की लिखी आत्मकथा ‘कोमल गांधार’ का हिंदी अनुवाद जल्दी ही रजा पुस्तक माला के तहत आ रहा है। जब मैं दिल्ली में अध्यापक था तो 1963 में सप्रू हाउस में उनकी अदभूत संगीत सभा सुनी थी। वह सुबह तीन बजे समाप्त हुई थी और मैं उससे अभिभूत पैदल ही निजामुद्दीन लौटा था। हालांकि कई कारों ने रुक कर लिफ्ट देने की पेशकश की थी। विलायत खाँ सरकारी संस्थाओं से दूर रहते थे और उन्होंने कई सरकारी सम्मान ठुकरा दिए थे।

इतने पुरस्कार ठुकराने वाले विलायत खाँ ने लेकिन मध्यप्रदेश सरकार का कालीदास सम्मान स्वीकार किया था क्योंकि वह एक स्वतंत्र और प्रसिद्ध जूरी ने चुना था। उससे पहले शास्त्रीय संगीत और नृत्य की एक बड़ी सभा में जब यह प्रस्ताव आया कि एक समिति सिफारिशें तैयार करे कि इस क्षेत्र में किसको क्या करना चाहिए तो उन्होंने खड़े होकर उसकी अध्यक्षता के लिए मेरा नाम अप्रत्याशित रूप से प्रस्तावित किया जो सर्वसम्मति से मान लिया गया। वे स्वंय उसके सदस्य हुए।

मैं जब दिल्ली आ गया तो एक बार इंडिया इंटरनेशनल सेंंटर में अकस्मात उनसे भेंट हुई तो उन्होंने तपाक से पूछा- सरकारी नौकरी को लात मार दी कि नहीं? उनसे आखिरी मुलाकात मुबई में हुई थी जब अरविंद पारेख ने उनके शिष्यत्च के 50 वर्ष पूरे होने पर उनका अभिनंदन आयोजित किया था। मंच पर हम लोग थे। अरविंद भाई, बरसों बाद उनसे मिल रहे थे उनके भाई उस्ताद इमरत खाँ सभी अंग्रेजी में बोल रहे थे। उस्ताद ने मुझ से पूछा कि आप तो हिंदी में बोलेंगे न? मैंने कहा कि हां, तो बोले मैं भी, हिंदी में बोलूंगा। उस समय मैंने कहा था कि सितम को आने पर विवश करने वाले विलायत खाँ साहब राग के बहाने अपने को बजाते हैं जो कि दुर्लभ बात है।

नमिता ने अपनी पुस्तक में यह प्रश्न उठाया है कि अराजकता और सुसंगति दोनों एक साथ कैसे रह सकते हैं? जीवन भर लगभग स्थायीभाव बना दुख सौंदर्य में कैसे परिणत हो सकता है? उनके अनुसार खाँ साहब बावले और दिव्य एक साथ थे। तुनक मिजाज, स्वार्थी, नफरत भरे और अक्सर प्यार से लबरेज अंतत: उनका संगीत सब कुछ को अतिभ्रमित करता था और श्रोता का मन करता था कि वह उन्हेें आलिंगन में ले ले और संसार को भी।

बंदे खाँ ने विलायत को सिखाते हुए कहा था,’बेटा सारी दुनिया के सारे राग काठ के इस उपकरण में हैं- तुम्हें एक-एक करके उन्हें मुक्त भर करना है।’ नमिता ने उचित ही कहा है, विलायत खाँ ने अंतर्मुखी संगीत रचा। जो अकेला था, सहयोगी होने की बजाए। उनका जीवन और कला दोनों ही प्रतिरोध के आख्यान थे।