कपड़ों की औक़ात

यह दुनिया बड़ी विचित्र है। इसमें भी सबसे विचित्र प्राणी इंसान है। इंसान की फ़ितरत भी बड़ी विचित्र है। किसी भी हाल में हो, या तो बेचैन रहता है, या असन्तुष्ट। इंसान ही वह प्राणी है, जो अपना स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। अब स्वार्थ ही एक ऐसी कड़ी बन चुकी है, जो एक इंसान को दूसरे इंसान से जोड़े रहती है। अगर स्वार्थ दोनों तरफ़ से न भी हो, तो एक तरफ़ से तो ज़रूर होता  यही वजह है कि एक इंसान दूसरे इंसान से उतना ही मिलकर रहता है, जितना उसका स्वार्थ जुड़ा होता है। हालाँकि अगर किसी को संसार अथवा इंसानी समाज से अलग कर दो, तो वह जी भी नहीं सकेगा। क्योंकि सच्चाई यही है कि इंसान का अस्तित्व दूसरों के बग़ैर, ख़ासकर जिन लोगों और चीज़ें पर वह निर्भर है, उनके बग़ैर कुछ भी नहीं है। लेकिन इतने पर भी उसे यह भ्रम रहता है कि उसके बग़ैर न तो दूसरे का कोई अस्तित्व है और न ही उसके बग़ैर कुछ होगा।

यह भ्रम मज़हबी कट्टरपंथियों में हद से ज़्यादा ही दिखता है। इसकी वजह यह है कि ये मज़हबी कट्टरपंथी अपनी असली पहचान भूलकर ख़ुद के अस्तित्व से बाहर दिखावे की पहचान को ही अपनी असली पहचान समझते हैं। ऐसे लोगों ने यह पहचान मज़हबों में खोज रखी है। जब सिर्फ़ मज़हबों से काम नहीं चला, तो इन लोगों ने शरीर की प्राकृतिक बनावट में ऊपरी बदलाव किया। इससे भी काम नहीं चला, तो वेशभूषा में बदलाव किया और रंगों को मज़हबों की पहचान से जोड़ दिया।

विडम्बना यह है कि इन कट्टरपन्थियों ने न केवल मज़हबों को, बल्कि उनसे जुड़ी शारीरिक बनावट, वेशभूषा और रंगों को अपनी जान से भी क़ीमती समझ लिया। हद तो यह है कि कई बार इन कट्टरपंथियों ने अपने दिखावे अथवा इन दिखावे की पहचानों को बचाने की मूर्खता में एक-दूसरे की जान भी ली है; और अब भी इस पर बहुत-से मूर्ख आमादा हैं। यह लोग इस बात को भी नहीं समझते कि जिस शरीर को इन्होंने मज़हब के हिसाब से दिखाने की कोशिश की है, वह शरीर भी मर जाएगा। और ज़िन्दगी भर उस मज़हब में ख़ुद को ढाले रहने के लिए हज़ारों बार नश्वर शरीर को बनावटी रूप देना पड़ेगा। कितनी ही बार मज़हबी कपड़े बदलने पड़ेंगे। इन लोगों को यह बात भी समझ नहीं आती कि किसी की कोई भी बाहरी पहचान स्थायी नहीं है; शरीर के बराबर भी स्थायी नहीं। प्रकृति बार-बार इन पहचानों को नष्ट करती है और कट्टरपंथी बार-बार इसे मज़हबी रूप देते रहते हैं; चाहे वो शारीरिक बनावट हो, चाहे वेशभूषा हो। इन्हीं सब चीज़ें की बिना पर इंसान इस क़दर बँट गया कि उसे अपने ही भाइयों में दुश्मन, विरोधी और ग़ैर इंसान नज़र आने लगा।

सन्त कहते हैं कि दुनिया के प्राणियों में शरीरों का भेद ऊपरी है। लेकिन आत्मा सबकी एक ही परमपिता का अंश है। इस प्रकार पृथ्वी की गोद में पलने वाले सभी प्राणी एक ही प्रकाश से प्रकाशित हैं; अर्थात् एक ही परमेश्वर के अंश हैं। प्रकृति की गोद में सब एक जैसे हैं। लेकिन इतने पर भी एक-दूसरे की पहचान कपड़ों से करते हैं।

अभी हाल में उठा हिजाब का मुद्दा इसी का एक उदाहरण है। हैरत की बात यह है कि जो मज़हबी कपड़े अन्तिम यात्रा के दौरान ख़ुद मज़हब वाले ही उतार देते हैं, उन्हीं कपड़ों के लिए कट्टरपंथी लोग ज़िन्दगी भर लड़ते हैं और उनकी रक्षा के लिए दूसरों की हत्या जैसा जघन्य पाप करने तक से नहीं चूकते। ये लोग इतना भी नहीं समझते कि कपड़े तो शरीर ढँकने का साधन मात्र हैं। रही रंगों की बात, तो ऐसा कोई रंग नहीं, जिससे कोई ख़ुद को अलग रख सके। क्या विडम्बना है कि जिस इंसान को मरने के बाद यह भी पता नहीं रहता कि उसके शरीर के साथ क्या हो रहा? वह जीते-जी इंसानियत की सारी हदें लाँघकर उन कपड़ों के लिए लड़ता है, जिन्हें उसे फटने पर जीते-जी फेंकना पड़ता है। यह भ्रम क्यों? क्योंकि लोगों के विचारों में फ़र्क़ है। पहले लोगों के मतभेद पर तर्क-वितर्क होते थे, अब मनभेद होते हैं। मतभेदों से मनभेद तक पहुँचने वालों की मूर्खता की पराकाष्ठा यह है कि वे एक-दूसरे से हद से ज़्यादा नफ़रत करने लगते हैं।

लोगों को समझना चाहिए कि दुनिया में कोई एक सत्य स्थायी नहीं है। एक व्यक्ति को जो सच लगता है, वह दूसरे व्यक्ति को झूठ भी लग सकता है। अथवा एक व्यक्ति के लिए जो सही है, वह किसी दूसरे के लिए ग़लत भी हो सकता है। जो बात किसी एक को सन्तुष्ट करती है, वह दूसरे को असन्तुष्ट भी कर सकती है। रंगों और कपड़ों के मामले में भी यही बात लागू होती है। फिर झगड़ा किस बात का? लेकिन झगड़ा है। ज्ञानी लोग कहते हैं कि झगडऩा मूर्खों का काम हैं। मशहूर शाइर ग़ालिब ने इसे बड़े अनोखे अंदाज़ में बयाँ किया है। वह कहते हैं-

‘‘बाग़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे’’

अर्थात् ग़ालिब कहते हैं कि मेरे सामने यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान है, जिसमें रात-दिन मेरे सामने तमाशा होता रहता है। यह बात शायद सब लोगों की समझ में न आये; ख़ासकर उनकी, जिनकी आँखों पर मज़हबी पर्दा पड़ा है। दुनिया की नश्वरता समझने वाले कभी रंगों, कपड़ों और मज़हबों के लिए किसी की जान नहीं ले सकते; किसी को परेशान नहीं कर सकते। अफ़सोस यह है कि इस तरह के कट्टर लोग आज दुनिया के हर मज़हब में हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या यह कट्टरपंथी इंसान हैं?