एम्स में नहीं होती कोताही

एम्स में किसी मरीज़ के इलाज में कोई कोताही नहीं होती। यहाँ के डॉक्टर और स्टाफ के लोग तीमारदारों से ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं करते। एम्स एक मिसाल है उन सरकारी अस्पतालों के लिए, जहाँ मरीज़ों और तीमारदारों को हिकारत की नज़र से देखा जाता है। इसी विषय पर बता रहे हैं गोविंद झा

चिकित्सा जगत में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की अपनी गरिमा है। आमतौर पर यह धारणा है कि एम्स में इलाज कराना मुश्किल है। फिर भी लोगों का सपना या विश्वास ऐसा है कि लोग अपने परिजनों का इलाज वहीं कराना पसन्द करते हैं। आमतौर पर देखा गया है कि जब लोग इलाज कराते-कराते थक जाते हैं, तो आिखर में एम्स की ओर रुख करते हैं। भला ऐसा क्यों न हो। ऐसा मैं इसीलिए नहीं कह रहा कि मुझे किसी ने बताया है। विगत दिनों वहाँ की व्यवस्था को नज़दीक से देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ। वैसे तो अन्य मामले में मैं कई बार एम्स जा चुका हूँ। पर इतने करीब से देखने समझने का पहली बार अवसर मिला। लेकिन एक बात ज़रूर कहना चाहूँगा कि एम्स सरीखे एक मात्र अस्पताल से हमारी डेढ़ अरब आबादी का इलाज सुनिश्चित नहीं हो सकती है। इसीलिए इस सरीखे और अस्पताल की ज़रूरत है, जिससे आमजन का इलाज सुगम हो सके। एम्स का स्थान दुनिया के 10 अस्पतालों में से एक है। यहाँ इलाज कराने के लिये लम्बी कतार में खड़ा होना पड़ता है। जिस कारण लोगों का धैर्य बोल जाता है। विगत दिनों लगभग एक पखवाड़ा हमें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में गुज़ारना पड़ा। वहाँ पर मुझे कभी भी जाकर चिकित्सक को यह नहीं कहना पड़ा कि देखिए मेरा मरीज़ को ये चाहिए या वो। मरीज़ के इलाज के लिए जो चाहिए वहाँ के चिकित्सक, नर्स, सफाई कर्मचारी हो या अन्य कोई भी प्रशासनिक कर्मचारी सभी का व्यवहार बहुत ही अनुकरणीय है। कभी किसी मरीज़ के परिजन से ऊँची आवाज़ में बात भी नहीं करते हैं, वहाँ के कर्मचारी।

हाँ, वहाँ के सुरक्षा गार्ड को बहुत ही मसक्कत करनी पड़ती है, मरीज़ों के परिजनों का समझाने में कि आप का मरीज़ का इलाज सुचारू ढंग से हो रहा है। आप मिलने के उचित समय पर आइए बीच में आकर अपना व मरीज़ों की चिकित्सा में व्यवधान उत्पन्न करने की कोशिश नहीं कीजिए, जिससे आपके मरीज़ का इलाज व्यवस्थित ढंग से हो सके। ऐसा मैं यूँ ही नहीं कह रहा। वहाँ पर आये मरीज़ गरीब हों या अमीर, एक बार चिकित्सकों के निगरानी में आने के बाद बिना किसी भेदभाव के यथोचित इलाज किया जाता है। वे लोग सभी मरीज़ों का इलाज चिकित्सीय वरीयता के हिसाब से करते हैं। उस दौरान उनके समक्ष एक मरीज़ होता है, न कि अमीर या गरीब। कुछ वर्ष पहले हमारे नज़दीक रेहड़ी-पटरी पर छोले-भटूरे लगाने वाले श्रमिक के सबसे छोटे बेटे को ब्लड कैंसर हो गया था। उस दौरान उस व्यक्ति को लगभग एम्स के नज़दीक छ: महीने रहना पड़ा था। वहीं स्थित धर्मशाला में रुककर उन्होंने अपने बच्चे का इलाज कराया। आज लगभग इस बात को 10 साल हो चुके हैं। वह बिल्कुल तंदुरुस्त है। इस इलाज के लिए उनको किसी पैरवी की ज़रूरत नहीं हुई थी। सरकारी व्यवस्था के अनुरूप जो खर्चा लगना था, लगा। लेकिन आप यह नहीं कह सकते कि वहाँ के किसी चिकित्सक या कर्मचारी ने आपके मरीज़ को चिकित्सा सुविधा न मुहैया करायी हो, जिसके लिये आपको उनसे एक दो होना पड़ा हो। हाँ, एक बात ज़रूर है कि वहाँ पर अपनी बारी आने की लम्बी प्रतीक्षा का इंतज़ार करना पड़ता है। क्योंकि हमारे देश की आबादी के हिसाब से हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह अनुकूल नहीं है। मैं एक व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ऐसा कह रहा हूँ। क्योंकि मैंने अपने चाचा जी को लेकर पिछले वर्ष से लगातार एम्स का चक्कर लगाये हैं। शुरू में ओपीडी में अपनी बारी आने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ी। लेकिन एक बार इलाज शुरू होने बाद कभी किसी अरचन के सामना नहीं करना पड़ा। लेकिन इससे पहले हमने कई बार राम मनोहर लोहिया और जीबी पन्त अस्पताल के चक्कर काटे हैं। जहाँ से उनका इलाज पहले चल रहा था। वहाँ कई बार चिकित्सकों से उलझना पड़ा था। जीबी पन्त से एम्स को स्थानांतरित करने के बाद आरम्भिक दिनों को छोडक़र कभी भी किसी तरह नहीं झेलना पड़ा। मेरे चाचा जी अब इस दुनिया में नहीं रहे; लेकिन वहाँ पर काम कर रहे चिकित्सकों, नर्सों, कम्पाउंडरों या फिर सफाई कर्मचारियों ने व्यवहार बहुत अच्छा किया, उनकी तत्परता चिकित्सा जगत के लिए मिसाल है। ऐसा यूँ ही नहीं कह रहा हूँ। पिछले दिनों चाचा जी को लेकर जब आपातकालीन विभाग में गया, तो उनकी रोग की गम्भीरता को देखते हुए उनको भर्ती कर लिया गया। आपातकालीन विभाग में मरीज़ के साथ एक परिजन को रहने दिया जाता है। उस दौरान मैंने यह महसूस किया कि चाहे परिजन थककर एक झपकी ले लेते हों, लेकिन वहाँ पर तैनात चिकित्सक या नर्स हर 15 मिनट के बाद आपके मरीज़ के पास आकर उचित चिकित्सा प्रदान करने को तत्पर रहते हैं। दूसरा वाकया यह है कि जब चाचा जी को सघन चिकित्सा की ज़रूरत हुई, तो वरिष्ठ चिकित्सक के परामर्श के महज़ 10 मिनट के अन्दर उनको सीसीयू में स्थानांतरित कर दिया गया। स्थानांतरित करते समय उनके साथ वहाँ के सहायक और एक चिकित्सक सीसीयू तक जाकर मरीज़ की सारी स्थिति को वहाँ के चिकित्सकों को जानकारी दी, जिससे मरीज़ का उचित इलाज हो सके। सीसीयू में परिजनों को साथ रुकने की इजाज़त नहीं है। परिजन प्रतीक्षालय में रुक सकते हैं। आवश्यकता पडऩे पर आवाज़ लगाकर बुलाया जाता है और आपके मरीज़ की उचित स्थिति को समझाया जाता है या फिर आवश्यक सहयोग लिया जाता है। मरीज़ से मिलने का तीन समय निश्चित है, उस समय कोई भी परिजन बारी-बारी से जाकर अपने मरीज़ से मिल सकते हैं। बाकी का काम वहाँ के कर्मचारी करेंगे। यहाँ तक की शौचादि तक करवाने में पूरी तत्परा और बिना मन मलिन किये अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं। वहाँ पर सुबह के नाश्ते से लेकर लंच, डिनर तक आवश्यकतानुसार उपलब्ध कराया जाता है। खाने की गुणवत्ता ऐसी कि अगर आपका मरीज़ नहीं खाता है, तो आप उस खाने को चाव से खा सकते हैं। भारतीय श्रमिक वर्ग को तो इस तरह का खाना आम दिनों में मिलना चुनौती है। वहाँ का खाना मरीज़ के अनुकूल और स्वास्थ्यवर्धक होता है।

यह सब देखकर मैं बेहिचक कह सकता हूँ कि अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में इलाज के लिए जाने के बाद आप संयमित रहे। जनसंख्या विस्फोट होने के कारण सभी को वहाँ तक पहुँचना दुरूह है। लेकिन अगर आप वहाँ पहुँच गये, तो मान लीजिए कि चिकित्सक अपने चिकित्सीय प्रशिक्षण के अनुरूप वरीयता के अनुरूप आपके मरीज़ का इलाज करते हैं। वहाँ के चिकित्सक, नर्स, कम्पाउंडर, कर्मचारी मरीज़ के परिजनों से बहुत ही पेशेवर तरीके से व्यवहार करते हैं, जिससे उनके अन्दर की मानवता झलकती है। लेकिन हम ही अपने सम्बन्धी से लगाव के कारण अफरा-तफरी करने लगते हैं। जिससे हम और आप वहाँ बैठे सुरक्षा गार्डों से कई बार ऊल-जुलूल बहस कर बैठते हैं। आप अन्दर जाकर अपने मरीज़ का ही नुकसान करते हैं। अन्दर जाकर आप स्वयं तो कुछ करने से रहे, जो करना है वहाँ के चिकित्सक ही तो करेंगे। क्योंकि आपके साथ बाहर से किस तरह का कीटाणु जाता है, आपको पता नहीं होता है। जिस कारण आपके मरीज़ का नुकसान हो सकता है। इसीलिए वहाँ की व्यवस्था को देखते हुए मुझे यह कहने में परहेज़ नहीं कि आप संयमित रहिए। वहाँ दािखला मिलने के बाद आपके मरीज़ को यथोचित इलाज होता है।