‘एक दिन ऐसे जाऊंगा कि कोई मुझे देख नहीं पाएगा’ …विष्णु खरे

लगता है एक युग समाप्त होने को है। एक पूरी पीढ़ी जिसने साहित्य की समझ तैयार की, किसी अनंत की ओर प्रस्थान कर रही है। सांझे हिन्दुस्तान की यादों से बनी और अब तक के हर बदलाव को सींचती फटकारती-पोसती यह पीढ़ी बहुत तेजी से विदा हो रही है। इस वर्ष हिन्दी साहित्य के कई बड़े नामों ने हम से विदा ली, जिसमें अभी-अभी विष्णु खरे के बारे में हम आज बात कर रहे हैं।

मैं विष्णु खरे से कभी नहीं मिली। देखा जरूर है। उनके दिल्ली आने के बाद यह सोचा भी कि जिन रचनाओं के अनुवाद विद्यार्थी पढ़ते हैं, उन रचनाओं के बड़े अनुवादक और ‘मार खा रोई नहीं’ कविता के रचनाकार से उन्हें मिलवा दिया जाए। पर जो सोचा जाए, हो भी जाए, जरूरी नहीं। खैर… वैसे इस बात से कोई अंतर भी नहीं पड़ता कि मैं या मेरे विद्यार्थी उनसे नहीं मिले। रचनाकार से मिलने का दूसरा ज़रूरी रास्ता है- उनके टेक्स्ट के माध्यम से मिलना। हम इसी रास्ते उनसे मिले, और इस रास्ते न जाने हिन्दी के कितने ही बड़े रचनाकारों से हम ही नहीं दूरदराज कस्बों, गाँवों में बैठे पाठक मिलते-बतियाते हैं। प्रेमचन्द हों या निराला, वे स्मृति शेष न हुए, ऐसे ही आज भी जीवित हैं। विष्णु भी रहेंगे…

एक नजऱ उनकी प्रमुख रचनाओं पर –उनकी रचनाओं में काल और अवधि के दरमियान, खुद अपनी आंख से, पिछला बाकी, लालटेन जलाना, सब की आवाज के पर्दे में, आलोचना की पहली किताब, पाठांतर शामिल है। अनुवाद संग्रहों में टीएस इलियट का अनुवाद ‘मरु प्रदेश और अन्य कविताएँ तथा एलिआस लोंरोटो द्वारा फिनलैंड के राष्ट्रीय महाकाव्य ‘कालेवाला’ का इसी नाम से अनुवाद है। नवभारत टाइम्स के सम्पादक और पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रसि़द्ध विष्णु खरे को अनेक सम्मान भी प्राप्त हुए जिनमें ‘ऑर्डर ऑफ द व्हाईट रोज़ ऑफ फिनलैंड’, रघुवीर सहाय सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान तथा एस्टोनिया के राष्ट्रीय महाकाव्य क्लैवेपोग का ‘क्लेवपुत्र’ नाम से किए गए अनुवाद पर प्राप्त सम्मान शामिल है। पत्रकारिता के क्षेत्र में वे टाइम्स ऑफ इंडिया में वरिष्ठ सहायक संपादक भी कार्यरत रहे। सिनेमा समय की रचना की। इसके अलावा उन्होंने जवाहरलाल नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय में दो साल तक वरिष्ठ अध्येता के रूप में भी काम किया।

आलोचना ने विष्णु खरे की कविताओं को दो तरह से परखने की कोशिश की। एक ओर उनकी कविताओं को कहन की श्रेणी में डाला गया और गीत या लय को स्वीकार नहीं किया। उनकी कविताओं की सीमा यही मानी गई कि वे कही जाती हैं कथन की तरह। गद्य उनकी कविताओं में इतना कहा गया है कि कुछ कम कहने की ज़रूरत है। दूसरी ओर आलोचक मानते हैं कि इसी कहन प्रवृत्ति ने आने वाले कवियों को प्रभावित किया। कविता जैसे जैसे गद्य की ओर बढ़ी, उसकी आरंभिक झलक विष्णु की कविताओं में मिलती है। एक तरफ कहन को सीमा मानती और दूसरी ओर कहन को ही शक्ति मानती आलोचना के बीच विष्णु खरे की कविता फोटोग्राफिक अंदाज में लिखी प्रतीत होती है। उनकी कविताओं को देखकर लगता है कि कहीं कैमरे की तीसरी आँख इन कविताओं पर नजऱ रख रही है और उस आँख से कविता को खोलने के कई रास्ते मिल जाते हैं। उनकी कविता ‘मार खा रोई नहीं’ को ही देखें तो विवरणों का वहाँ अभाव है- मात्र तीन चित्र पहला पुलिस थाने का जिसका होना यह अहसास दिलाता है कि रोजमर्रा के अत्याचारों के प्रति पुलिस थाना गूंगा और बहरा हो चुका है। दूसरा चित्र उस पिता का है जो अपने संघर्ष और विवशता का नपुंसक क्रोध उन बच्चियों पर उतारता है। तीसरा दृश्य उन बच्चियों का है जो मार खाकर रोती नहीं बल्कि उदासी के गहरे पर्वतों के बीच मोड़ तक उसी पिता को देख रही हैं जो लौटेगा शायद … भूख और विवशता के बीच लडख़ड़ाता हुआ। कैमरे की संवेदना से खड़ा दर्शक सन्न रह जाता है और कहीं उस कविता के शीर्षक से निराला तक पहुँच जाने की कोशिश करने लगता है।

विष्णु की कविताओं में दृश्यात्मकता के अनेक चित्र हंै और शायद यह अकारण नहीं कि वे पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण इन चित्रों को सहज ही कविता में ले आए। मिथक, इतिहास, पुराण से लिए गए चित्र उनकी कविता के बीच मौजूद हैं। चित्तौड़ पर लिखी कविता में ‘संग्राम सिंह का खण्डहर /महल की ध्वस्त गुम्बद पर/ बैठा गिद्ध/टूरिस्ट गाड़ी को ऊपर आती देखता है’ अथवा ‘प्रलय संकेत’ में ‘एक गरुड़ दिखता है जिसके माथे पर चोटी और सींग हैं उसके तीन पँजे हैं और चोंच के स्थान पर चार दाढ़ें हैं’

(महाभारत के प्रसंग पर आधारित) यह दृश्यात्मकता उनकी काव्य भाषा की ऐसी सहज उपलब्धि है जिसकी चर्चा उस भाषा की गद्यात्मकता के समानांतर अपेक्षित है।

विष्णु ने चंद्रकांत देवताले के काव्य की विस्तृत समीक्षा की तथा पाठ को केंद्र में रखकर आलोचना का सूत्र तैयार किया। खरी-खरी कहने वाले विष्णु ने अपनी ‘आलोचना की पहली किताब’ में ही भारतीय जनमानस की भीरुवृत्ति पर टिप्पणी की। भारतीय जनमानस में जो भीरु हिन्दू बैठा हुआ है वह कभी राम के आगे शिव का आत्म-समर्पण करवा देता है, कभी कृष्ण को शिव से ‘ओब्लाइज़’ करवा देता है, कहीं बुद्ध को विष्णु का अवतार बना देता है, अटलबिहारी को जवाहरप्रेमी कर देता है। कर्म, पुनर्जन्म और माया की अवधारणाएँ इसी महाभय से निजात पाने की तरक़ीबें हैं, जय जवान जय किसान, गरीबी हटाओ, हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई आदि समस्याओं की भयावहता से न उलझ पाने से पैदा होने के टोटके हैं।’’  जिन समस्याओं पर आज भी बात करने का साहस नहीं जुटाया जाता, उन पर टिप्पणी करने के साथ साथ कविताओं में भी विष्णु बहस खड़ी करते रहे।

ऐसी बहस खडी करने वाला कवि अक्सर गुस्सैल होता है। गुस्सा अपने आस पास की गंदगी को देखते हुए, लगातार भरोसे को छीजते देखते हुए। शायद इसीलिए कविता उनके समय से सपाटबयानी की ओर तेजी से बढ़ती है। व्यक्तिगत रूप से कठिन जीवन जीते हुए भी उनके भीतर का आदमी छीजा नहीं।

उनकी कविता रोशनी को ढूँढने की पहल करती है। अँधेरे के बीच तारों की टिमटिमाहट भी मिल सके, तो रोशनी हो जाएगी। मृत्यु की बात करते हुए भी उनकी कविता तारों की रोशनी की बात करती रही। उनकी आरंभिक कविता विष्णु कान्त खरे ‘शैलेश’ के नाम से मिलती है जिसमें वे मृत्यु की आहट से पैदा हुए खालीपन के बारे में भी बात करते हुए कहते हैं कि उनके जाने के बाद या तो तारे ही उन्हें याद करेंगे या विचार ही …

मुझे शायद याद करें वे टिमटिमाते तारे

रातों में जिन्हें देखता था मैं

मुझे न पाकर रोएँगें मेरे पागल विचार

अनजाने ही जिन्हें था लेखता मैं

बरखा मुझे न देखकर कहे

क्या चल दिया वह?

कई बड़े रचनाकारों ने मृत्यु पर कविता लिखी। विष्णु ने भी। मृत्यु पर कविता पढऩा जितना सूनापन आपके भीतर भरता है, रचनाकार का जाना दुनिया को और सूना कर देता है। कहीं सोचने की ज़रूरत है कि रचनाकार की नियति में इतना अकेलापन क्यों है। जाते हुए भी और रहते हुए भी। सत्ता और कलम जिस तरह हमेशा विपक्ष में रहे हैं, विष्णु का जीवन और कलम उसका सबूत है।

विष्णु खरे को ब्रेख्त क्यों प्रिय थे? ब्रेख्त ने कभी किसी की परवाह किए बगैर डिटैचमेंट को सिद्धांत के रूप में चुना । क्या विष्णु का खरा व्यक्तित्त्व उसी सिद्धांत को ब्रेख्त के माध्यम से ढूँढ रहा था? पता नहीं। पर उनके जानने वाले कहते हैं कि उनके व्यक्तित्व के भीतर खरापन और नाराज़गी दोनों मौजूद थी। व्यक्तिगत तौर पर तो पता नहीं, पर उनकी कविताओं की शक्ति वही खरापन है जो हर जगह उनकी रचनाओं में मौजूद है।

मैंने आरम्भ में ही कहा था कि रचनाकार को जानने का सही जरिया है – उसकी रचनाओं में झांककर देखना और इस झाँकने से जो छवि बनती है उस छवि की आहटें अब सुनाई नहीं देंगी, इस कारण

पाठक के रूप में हम उदास हैं, भले ही व्यक्तिगत रूप से हम विष्णु से मिले नहीं। व्यक्तिगत और सामाजिक के बीच खड़े हम पाठकों की ओर से उनकी स्मृतियों को नमन।