एकल महिलाओं को मिला भूमि अधिकार

ओडिशा के रायगड़ा ज़िले में पहली बार अविवाहित और विधवा महिलाओं को व्यक्तिगत रूप से वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि का मालिकाना हक दिया गया है। इसके पीछे विकट संघर्ष की एक लम्बी कहानी है। कुल मिलाकर एकल महिलाओं को वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि पर अधिकार मिल गया है। यह अधिकार कैसे मिला? बता रही हैं दीपान्विता गीता नियोगी :-

पुरुष प्रधान समाज में एकल, अविवाहित महिलाओं और विधवाओं के लिए भूमि पर अधिकार पाना मुश्किल है। लेकिन गैर-लाभकारी संगठन ‘प्रदान’ की ज़मीनी स्तर पर की गयी पहल से ओडिशा के रायगड़ा ज़िले के बोरीगुडा गाँव में 10 एकल महिलाओं (छ: अविवाहित महिलाओं और चार विधवाओं) को चार साल के लम्बे संघर्ष के बाद वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 के तहत व्यक्तिगत वन अधिकार (आईएफआर) प्रदान किये गये हैं। कुल मिलाकर 75 परिवारों ने आईएफआर के लिए आवेदन किया था।

भूमि अधिकारों पर रायगड़ा में कोलनारा और कल्याण सिंह पुर ब्लॉकों में 2013-14 में किये गये एक सर्वेक्षण के दौरान यह पाया गया कि 40 फीसदी परिवारों के पास सरकारी रिकॉर्ड में ज़मीन नहीं थी। इसके अलावा इन परिवारों ने सरकारी ज़मीनों पर अतिक्रमण किया, ताकि वे वहाँ खेती कर सकें।

सर्वेक्षण में महिलाओं के भूमि अधिकारों पर भी ध्यान केंद्रित किया गया। विशेष रूप से विवाहित और अविवाहित महिलाओं के लिए स्थिति का आकलन करने के बाद यह पाया गया कि महिलाओं की एक नगण्य आबादी के पास ही ससुराल की सम्पत्ति और सह-स्वामित्व का अधिकार था। प्रदान संस्था के कार्यकर्ता अमित दास के मुताबिक, क्योंकि महिलाओं की स्थिति वास्तव में कमज़ोर थी; इसलिए यह महसूस किया गया कि एफआरए उनके जुड़े भूमि अधिकारों का निपटारा करने के लिए एक शक्तिशाली हथियार था। आिखरकार इस साल फरवरी में उनके अधिकारों के मामलों का निपटारा किया गया। हालाँकि, अब तक महिलाओं को अधिकार से जुड़े दस्तावेज़ नहीं मिले हैं। इन्हें पहले ही ज़िला-स्तरीय समिति (डीएलसी) से अनुमोदित किया जा चुका है। दास ने कहा कि हम किसी मंत्री का इंतज़ार कर रहे हैं, जो यह दस्तावेज़ लाभाॢथयों को प्रदान कर सकें।

महिला अधिकारों की सुरक्षा

लांडेसा (रायगड़ा की महिलाओं के भूमि अधिकार से जुड़ी एसएचजी सदस्य) की एक रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं की स्वामित्व की कमी एक प्रणालीगत प्रक्रिया है, जो सामान्य रूप से जटिल सामाजिक संरचना और विशेष रूप से कार्य करने की पितृसत्तात्मक पद्धति में अंतॢनहित है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि हालाँकि महिलाओं ने अपने कई लाभों को देखते हुए खुद की ज़मीन के लिए इच्छा जतायी है, वे भूमि दस्तावेज़ों में अपने नामों के बाहर होने के संदर्भ में उनसे भेदभाव में अपनी कमज़ोरी की पहचान भी करती हैं। इसलिए लिंग समानता सुनिश्चित करने की दिशा में बोरीगुडा का उदाहरण एक महत्त्वपूर्ण कदम है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिक घंटों तक काम करने के बावजूद महिलाओं के पास भूमि के उत्पादन, बाज़ार और धन तक पहुँच और नियंत्रण नहीं है। इसके अलावा खरीद, बिक्री और बिक्री के पैसे के उपयोग सहित ज़मीन से सम्बन्धित निर्णय लेने में उनकी कोई भूमिका नहीं है।

प्रदान संगठन से जुड़े स्थानीय कार्यकर्ताओं ने बताया कि अब तक ज़िला प्रशासन एफआरए के तहत भूमि अधिकार देने के लिए काफी अनिच्छुक रहा है। ज़िले के कोलनारा ब्लॉक में करीब 600 एफआरए मामले अभी भी लम्बित हैं, जिनमें से सबसे अधिक मामले महिलाओं के हैं। अमित दास के मुताबिक, वन विभाग उपयोगी नहीं है, भले ही एफआरए को मूल्यवान संसाधनों पर वनवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया था।

ओडिशा के एक और आदिवासी भूमि अधिकार कार्यकर्ता रंजन प्रहाराज ने बताया कि सामान्य रूप से महिलाओं के भूमि और सम्पत्ति के अधिकार पूरे देश में ही सीमित हैं। लेकिन एकल महिलाएँ विवाहित लोगों की तुलना में अधिक वंचित और कमज़ोर हैं। उन्होंने कहा कि ज़्यादातर समय मेहनत करने और अधिकार होने के बावजूद एकल महिलाओं के पास उनके नाम पर भूमि पट्टिका जैसे कानूनी दस्तावेज़ों की अनुपस्थिति में भूमि पर उनका नियंत्रण नहीं है या नियंत्रण सीमित है।

ओडिशा और झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में प्रथा के अनुसार महिलाओं के लिए भूमि पर अधिकार प्रतिबन्धित है। लगभग सभी आदिवासी समुदायों में महिलाओं को परिवार के सदस्य के रूप में उपज का हिस्सा जैसे उपयोगकर्ता अधिकार आदि तो मिल सकते हैं, लेकिन उन्हें उनके नाम के मालिकाना हक के साथ कानूनी अधिकार या भू-सम्पत्ति का हिस्सा नहीं मिल सकता है।

यदि एक महिला एक लडक़े को जन्म देने में असमर्थ है, तो उसकी बेटी भी माता-पिता के भूमि अधिकारों से वंचित हो जाती है। एकल महिलाओं के बाद में शादी करने के मामलों में निर्णय अभी तक दस्तावेज़ में शामिल नहीं किये गये हैं। लेकिन अगर उसे ज़मीन का एक टुकड़ा आवंटित किया जाता है, तो सामान्य तौर पर यह शादी के बाद भी महिला के पास रहेगा। भूमि आवंटन के तहत सभी मालिकाना हक को लीजहोल्ड सम्पत्ति माना जाता है। जिसे बेचा, स्थानांतरित या विभाजित नहीं किया जा सकता है। महिला की मृत्यु के बाद उसके पति और बच्चे उस आवंटित भूमि के कानूनी उत्तराधिकारी होंगे।

एक नयी शुरुआत

प्रहाराज ने कहा कि काम करने के वर्षों के अनुभव के बाद उन्होंने महसूस किया कि सुरक्षित भूमि अधिकारों के बिना, भूमि आधारित ग्रामीण आजीविका सुनिश्चित करना मुश्किल है। प्रदान संगठन से जुड़े ब्रज किशोर दास ने कहा कि रायगड़ा ज़िले में गाँव के आकार के आधार पर 23 फीसदी से 40 फीसदी एकल महिला आबादी है। उनके मुताबिक, उनका फीसदी ज़िले में काफी अधिक है। बोरीगुडा गाँव में आईएफआर का दावा करने वाली एकल महिला किसान हैं और वे लम्बे समय से संघर्ष कर रही हैं। इन महिलाओं के दावों को वन अधिकार समिति (एफआरसी) ने मंज़ूरी दे दी, जिसकी अध्यक्ष सबित्री हिकाका हैं; जो खुद एकल महिला हैं। ब्रज किशोर दास के मुताबिक, इसके बाद डीएलसी ने ट्रांसफर को मंज़ूरी दे दी। इसके मुताबिक, एफआरसी में गाँव के वे सदस्य होते हैं, जिन्होंने सबसे पहले सर्वेक्षण किया और दावे किये। फिर उन्होंने इन्हें डीएलसी को भेज दिया।

हालाँकि बोरीगुडा के मामले में डीएलसी ने दावों को मंज़ूरी दे दी है, लेकिन मालिकाना हक के दस्तावेज़ अभी तक भौतिक रूप से उन्हें नहीं सौंपे गये हैं।

ब्रज किशोर दास बताते हैं कि एफआरसी का गठन जनवरी, 2017 में किया गया था। दावों की निगरानी के बाद उन्हें फरवरी में सत्यापन के लिए भेजा गया था। मालकाना हक हासिल करने वाली सभी महिलाएँ कपास, दाल और सब्ज़ियों की खेती करती हैं। अब उन्हें आकार में एक से तीन एकड़ के बीच पेट्रा जंगल (गैर-सिंचित) भूमि प्रदान की गयी है। उन्होंने बताया कि हमारे क्षेत्र क्षेत्र में 1,014 दावे किये हैं। लेकिन हम आरक्षित वनों के मामले में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। क्योंकि वन विभाग सहयोग नहीं कर रहा है।

आदिवासी भूमि अधिकार कार्यकर्ता प्रहाराज के अनुसार, कार्यान्वयन के 12 साल के बाद भी विभिन्न स्तरों पर जागरूकता का अभाव है। ग्राम वनों (ग्राम सभाओं) के सहयोग से सामुदायिक वनों की बेहतर सुरक्षा, पुनस्र्थापना और प्रबन्धन किया जा सकता है। ग्राम समुदाय को अपनी सामुदायिक वन अधिकार प्रबन्धन योजना को लागू करने के लिए उपलब्ध धन और तकनीकी मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता है; ताकि ग्राम सभाओं में स्वामित्व की भावना विकसित हो सके। वे कहते हैं कि यदि कोई भी एजेंसी पारदर्शी प्रणाली अपनाने की इच्छुक है, तो समुदाय के अधिकारों को मान्यता देने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। वन प्रबन्धन और संरक्षण का अंतिम लक्ष्य इस तरह से सुनिश्चित किया जा सकता है।

प्रहाराज एकल महिलाओं को भूमि के हक सौंपने की पहल का स्वागत करते हैं। वह बताते हैं कि एकल महिलाओं को आवेदक मानने के लिए सरकार  पहले अनिच्छुक थी। वह स्वीकार करते हैं कि निश्चित रूप से एफआरए महिलाओं पर भूमि अधिकारों का निपटारा करने का एक शक्तिशाली ज़रिया है। क्योंकि आईएफआर के मामले में अनिवार्य रूप से संयुक्त अधिकार का प्रावधान है।