एकता में समझदारी

भारतीय इतिहास के गर्भ में न जाने कितने ही ऐसे उदाहरण दफ़्न हैं, जिन्हें कुरेदने पर पता चलता है कि एकता और प्यार के सरपरस्त भारत से बड़ा और महान् देश दुनिया के किसी कोने में नहीं। जिस तरह से यहाँ हर तरह की मिट्टी है; हर तरह के मौसम हैं; हर तरह की प्रकृति है; हर तरह की वनस्पतियाँ हैं; हर तरह के जीव और हर महज़ब के लोग हैं। ख़ुशी इस बात की होती है कि अधिकतर लोग अपने भारतीय होने पर गर्व महसूस करते हैं और देश के लिए प्राण न्योछावर करने तक को तैयार रहते हैं। मगर अफ़सोस इस बात का है कि एक ही बग़ीचे में खिले हर रंग के फूलों की तरह यहाँ के लोगों के दिलों में मज़हबी, जातीय, वैचारिक, सांस्कृतिक, पारम्परिक और भाषायी भिन्नता इतने गहरे तक बैठी हुई है कि एक-दूसरे से भेदभाव और ईष्र्या भी बहुत करते हैं। यह भेदभाव, ईष्र्या इस क़दर नस्ली भेदभाव में तब्दील हो चुके हैं कि अब इसे ख़त्म करने के लिए कड़े क़ानून की ज़रूरत है।
हमारे इतिहास में एकता और प्यार की सैकड़ों मिसालें हैं। लेकिन अब हम सिसायत के इशारों पर नफ़रतों की विष बेलें बोने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे सिवाय हमारे नाश के और कुछ हासिल नहीं होने वाला। आज के नफ़रत भरे माहौल में मुझे इतिहास के कुछ ऐसे एकता और भाईचारे वाले उदाहरण याद आते हैं, जिन्हें स्कूलों की किताबों में और बुज़ुर्गों की कहानियों में होना चाहिए, ताकि आज की नयी पीढ़ी और आने वाली पीढिय़ों में इस देश की एकता, अखण्डता और आपसी प्यार को ज़िन्दा रखने की सोच पैदा की जा सके।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की दोस्ती को कौन भूल सकता है। इस जोड़ी ने जो क़ुरबानी वतन के लिए दी, उसे प्रलय तक तो नहीं भुलाया जाएगा। इसी तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस के अति विश्वसनीय कर्नल निजामुद्दीन उर्फ़ सैफ़ुद्दीन थे; जो नेता जी के बहुत क़रीबी और वाहन चालक भी थे। इससे पहले के इतिहास में अगर जाएँ, तो भारत में कई ऐसे राजा हुए, जो मुस्लिम थे; लेकिन बड़ी संख्या में उनके राजदरबारी, प्रधानमंत्री, मंत्री सनातनी (हिन्दू) थे। वहीं कई ऐसे सनातनी शासक थे, जिनके क़रीबी और विश्वसनीय मुस्लिम थे। उदाहरण के तौर पर शेरशाह सूरी के प्रधानमंत्री टोडरमल थे। बताते हैं कि शेरशाह सूरी ने टोडरमल के कार्यों और चतुराई को देखकर उन्हें झूँसी स्थित प्रतिष्ठानपुरी का राजा बना दिया था। बाद में टोडरमल अकबर के अधीन काम करने लगे थे। अकबर के नवरत्नों में तानसेन, बीरबल, राजा टोडरमल और राजा मानसिंह जैसे सनातन धर्मी थे। इसी प्रकार महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम ख़ाँ सूर थे।
महात्मा गाँधी ने 13 जनवरी, 1948 को विभाजन की त्रासदी से उपजे साम्प्रदायिक उन्माद के ख़िलाफ़ उपवास किया था। वह चाहते थे कि बँटवारा हुआ भी है, तो झगड़ा न हो। क्योंकि झगड़े से सिर्फ़ विनाश ही होगा। दुर्भाग्य से यही हुआ। लाखों लोग दोनों ओर मारे गये। क्या मिला? नफ़रत की एक गहरी खाई। एक ऐसी खाई, जो आज तक नहीं पाटी जा सकी।
विडम्बना यह है कि जबसे मनुष्य ने जन्म लिया है, तबसे अपनों से और शत्रुओं से कितनी ही लड़ाइयाँ हुईं हैं; कितने ही भीषण युद्ध हुए हैं। लेकिन ऐसा नहीं कि इसके चलते हम अपनी ज़िन्दगी भी भेदभाव, ईष्र्या, बैर में गुज़ार दें और झगड़े की इसी भट्ठी में अपने बच्चों को झोंक जाएँ। इससे तो हमारे साथ-साथ उनकी ज़िन्दगी भी बर्बाद ही होगी। कितने ही सन्तों ने, महान् लोगों ने भारत को एकता के सूत्र में बाँधे रखने के लिए अपने आप को आहूत कर दिया। अपनी इच्छाओं, अपने परिवारों की बलि चढ़ा दी और हम आज भी भेदभाव, ईष्र्या और बैर की भट्ठी में जल रहे हैं, जहाँ हम भी राख होकर निकलेंगे।
अभी दुनिया भर में फैली कोरोना वायरस नाम की महामारी से मौतों के बाद यह देखा गया कि ज़्यादातर शवों को स्वजन भी हाथ नहीं लगा रहे थे। ऐसे में हमारे देश के कितने ही मुस्लिम भाइयों ने सनातनियों के शवों का अन्तिम संस्कार उनके परम्परानुसार से किया। वहीं कई सनातन-धर्मियों ने भी मृतक मुस्लिमों की विदाई इस्लाम रीति-रिवाज़ से करायी।
यह एक बड़ा सत्य है कि इस धरती पर किसी का अधिकार नहीं है और न ही संसार से बहुत लम्बा नाता। हम यह भी नहीं जानते कि हमें मरने के बाद जाना कहाँ है? लेकिन एक सत्य अटल है कि सभी में आत्मा का स्वरूप एक जैसा ही है और इससे बड़ा सत्य यह है कि ईश्वर एक ही है। लेकिन फिर भी लोग सियासी और कट्टरपंथी लोगों चक्कर में फँसकर ख़ून-ख़राबा करते हैं।
सच यह है कि राजनीति और धर्म का चोला ओढ़े लोग आम लोगों को बाँटे रखना चाहते हैं। क्योंकि इसके पीछे उनके अपने स्वार्थ निहित हैं। लेकिन यह बात आम लोगों को समझनी होगी कि इस दुनिया में रहकर हम आपस में कितना भी लड़-झगड़ लें, किन्तु मरने के बाद किसी को कोई छुए; कोई भी कपड़े बदले; कोई भी कहीं फेंक दे; जला दे या दफ़्न कर दे; कोई फ़र्क़ नहीं पडऩे वाला। क्योंकि मरने के बाद का एक सत्य यह है कि इस शरीर को इसी मिट्टी में मिल जाना है। यहाँ मुझे मशहूर शायर मुनव्वर राणा की ग़ज़ल के ये अश्आर याद आ रहे हैं :-
‘थकन को ओढ़ के बिस्तर में जा के लेट गये।
हम अपनी क़ब्र-ए-मुक़र्रर में जा के लेट गये।।
तमाम उम्र हम इक दूसरे से लड़ते रहे,
मगर मरे तो बराबर में जा के लेट गये।’’