ऊँची जाति को आरक्षण, काश मुद्दों पर विपक्ष बात करता

भारतीय अर्थव्यवस्था फिलहाल आकर्षक नौकरियां नहीं दे पा रही है। या फिर हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसे ‘लायक स्कॉलर’ नहीं पैदा कर पा रही है जो अर्थव्यवस्था में भागीदारी कर सकेें। इस नाकामी के ही चलते ऊँची जातियों में शिक्षित राजपूत हमेशा यह शोर करते हैं कि उनके लिए आरक्षण तय किया जाए। चूंकि हम ज़्यादा नौकरियां पैदा नहीं कर सकते। तो यही संकेत जाता है कि संाकेतिक तौर पर ऊँची जाति के गरीबों को आरक्षण देने की कोशिश की जाए। वह भी जब निजी क्षेत्र में नौकरियां ही बहुत कम हैं। देवेश कपूर तो बताते हैं कि छठे दशक की तुलना में आज आईएएस अधिकारी कहीं कम हैं।

दरअसल भारत को दलितों के लिए सकारात्मक और प्रभावशाली आरक्षण करना चाहिए। लेकिन मंडल के बाद हमारी आरक्षण नीति बहुसंख्यक की राजनीति में बदल गई हैं यानी राजनीति और ताकत के आधार पर अब ज़रूरी चीजें पूरी होती है न कि नैतिकता के आधार पर। इसके चलते ऐतिहासिक तौर पर जहां दलितों को मौका मिलना था वह ठहर गया। उनकी जगह हर दूसरा समुदाय रख दिया गया। जबकि आरक्षण का मकसद था भेदभाव दूर करना और उन्हें मुख्यधारा में सक्रिय करना। जो हुआ ही नहीं। हाल यह है कि गरीबी हटाओ कार्यक्रम भी आज बोझ बन गया है।

कुछ राजनीतिज्ञ जैसे नीतीश कुमार इस मुद्दे पर सोच भी रहे थे, लेकिन एक महत्वपूर्ण संवैधानिक संशोधन सदन में चुनाव के कुछ सप्ताह पहले ही पेश कर देना बताता है कि सरकार किस तरह छटपटा रही हैं पहले की तरह यह आरक्षण पर गंभीर नहीं है बल्कि यह एक नीति है इसके तहत वर्तमान ओबीसी आरक्षण में भी उलट फेर संभव है।

अब देखिए योग्यता में पूरे साल की आमदनी रुपए आठ लाख मात्र रखी गई हैं (यानी ओबीसी से क्रीमी स्तर को हटाना)। यदि वाकई आरक्षण का लाभ पहुंचना ही था तो योग्यता का आधार उदार होना चाहिए था। फिर क्यों कुछ ही समुदाय-जातियों को लाभ मिले।

इस प्रस्ताव में एक अच्छी बात भी है। वह है आरक्षण का धब्बा धो डालने की कोशिश। आरक्षण परंपरा से जातियों से जुड़ा रहा है। जिन्हें आरक्षण मिलता था उन्हें ऊँची जाति के लोग काफी हास-परिहास से देखते थे। अब वे इस स्थिति में नहीं होगे। हालांकि राहें और भी थी उस लक्ष्य तक पहुंचने की।

कुल आरक्षण 50 फीसद से ज़्यादा नहीं होगा ऐसा निर्देश सुप्रीम कोर्ट का है। हालांकि इस सीमा का औचित्य बहुत साफ नहीं है। लेकिन यह एक असहज सामाजिक दृश्य है जहां दो अलग-अलग विचारों में संतुलन बिठाने की कोशिश है। यानी संस्थाओं की वैधता को उनके प्रतिनिधि जानें-परखें और यह विचार कि पहचान बेमतलब होगी जब नौकरियां दी जाएंगी। दलितों की ऐतिहासिक मान्यता को इससे बल मिलता है साथ ही दूसरी पिछड़ी जातियों को और दूसरी जातियों के उपयुक्त प्रार्थियों को मौका।

यदि आरक्षण का दायरा बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन करना ही है तो ओबीसी की मांग भी ध्यान में रखी जानी चाहिए कि उन्हें भी उसमें शामिल किया जाए। सरकार आखिर जातियों का पूरा डाटा क्यों नहीं जारी करती। आरक्षण के दायरे में दूसरी जातियों और मुसलमानों को भी लाना चाहिए। मुसलमानों में भी एक वर्ग अनुसूचित जाति के हमारे लोगों से कहीं पीछे है। उन्हें भी शामिल करना चाहिए। इसी तरह लैंगिक असमानता के लोगों को भी।

काश विभिन्न पार्टियां इस जुमले पर मुद्दों को रख पाती। लेकिन वह हुआ नही।