उनके साथ उनके रस्ते पर

इलस्ट्रेशनः मनीषा यादव
इलस्ट्रेशनः मनीषा यादव

मिश्रा मन ही मन कितना मुदित था, उसे देखकर कोई भी जान सकता था! खुशी चेहरे से एकदम फूटी पड़ रही थी, हालांकि वह इसे उतना प्रकट नहीं होने देना चाहता था.

हम जिले के एसपी के साथ उनकी जिप्सी में सवार होकर उस डेंटल कॉलेज जा रहे थे जहां हाल ही में उसके बेटे का एडमिशन हुआ था. इस खुशी में आज उसका सूट ही नहीं, उसका तीन चौथाई गंजा सिर भी चमक रहा था, मानो यह कोई बारात हो और वह दूल्हे का बाप हो! और इस बारात में मात्र हम दो लोग शामिल थे- मैं और देवांगन. हम दोनों उसके इस जुगाड़ की दाद दे चुके थे.

‘अबे तूने तो इस बार बहुत लंबा हाथ मारा, यार!’  मैं उसकी इस पकड़ पर जलन होने के बाद भी दंग था.

‘बेटा टोपी, ये तो तेरा तुरूप का इक्का निकला!’ देवांगन बोला था. देवांगन उसे तब से टोपी कहता आ रहा है जब हम तीनों शिक्षक की पोस्टिंग एक गांव में थी, और उन दिनों अपने तेजी से झड़ते बालों को छुपाने के लिए वह दिन भर टोपी पहने रहता था. ‘कहां तो साले तेरे बेटे का एडमिशन मुश्किल था और कहां अब वहीं से ऐसा बुलावा मिल रहा है. तेरे डेढ़ लाख बच गए सो अलग!’

मिश्रा पाई-पाई बचा कर रखने वाले लोगों में से है. ग्रुप में कभी भी चाय-नाश्ते के बाद उसकी जेब से पैसा नहीं निकलता. दूसरा कोई कितना खिला दे, खाने में कोई कमी नहीं करेगा. उसका दूसरा गुण तमाम बड़े अधिकारियों की जी-हुजूरी करके उनका कृपापात्र बने रहना है. फिर इस बार तो एसपी का संग है.

स्कूल स्टाफ में आजकल इसी की चर्चा थी. मैडम लोग बहुत हंसकर मिश्रा को इसके लिए बधाई दे रही थीं. बहुत खुश होकर! वे उसके बेटे का अपने टैलेंट के दम पर राठी इंस्टीट्यूट में एडमिशन हो जाने पर भी शायद ही इतनी खुशी जाहिर करतीं. उनके यों चहकने की असल वजह थी- शहर के नए एसपी गौतम अवस्थी! गौतम अवस्थी में हाल ही में इस जिले का चार्ज संभाला है. और उन पर आलोक मिश्रा की पकड़ से सब हैरान थे. यहां तक कि मैं और देवांगन, जो पिछले पच्चीस सालों से उसके करीबी मित्र हैं. हमको इतना तो पता था कि मिश्रा का साढ़ू भाई राजधानी में सचिवालय में है. चार साल पहले शहर के इस सबसे महत्वपूर्ण स्कूल में मिश्रा का ट्रांसफर सीधे मुख्यमंत्री के आदेश से उसके साढ़ू भाई ने ही करवाया था. इसी बात को बताकर वह अब तक जब-तब इसको-उसको इसकी धौंस भी देता रहता है. यहां तक कि हमारे विभाग के अधिकारी भी जान गए हैं कि इसकी किसी काम में ड्यूटी लगाना ठीक नहीं है, तुरंत सचिवालय से उसका नाम हटाने फोन आ जाता है.

मिश्रा की पकड़ का मुख्य आधार उसका साढ़ू भाई है जो मुख्यमंत्री के सचिवालय में है. दूसरी बात यह कि उसका साढ़ू भाई एसपी गौतम अवस्थी के काॅलेज के दिनों का क्लासफेलो रह चुका है, और यह मित्रता उसके मुख्यमंत्री के सचिवालय में होने के कारण भी है. यह संयोग ही था कि इसी दौरान राज्य पीएमटी की परीक्षा के नतीजे निकले, जिसमें मिश्रा का बेटा चूक गया था. अंक कम होने के कारण अब उसका एडमिशन डेंटल काॅलेज में मैनेजमेंट कोटे से ही हो सकता था.

मिश्रा गया था एडमिशन के लिए इस फेमस इंस्टीट्यूट के चेयरमैन से मिलने. वे साढ़े तीन लाख डोनेशन  मांग रहे थे.

‘सर, कुछ कम नहीं हो सकता? मैं एक स्कूल में मास्टर हूं सर. इतना बड़ा एमाउंट पे करना मेरे लिए बहुत मुश्किल है. अगर दो लाख भी होता तो मैं कर सकता हूं. पर…’ मिश्रा, जो मौके के अनुकूल अपने चेहरे पर भाव ले आने में अभिनेताओं को मात करने की हैसियत रखता है, अपने चेहरे पर सर्वथा दयनीय और उनकी कृपा पर आश्रित भाव लाकर बोला.

पर चेअरमैन मदनलाल राठी भी बहुत घुटे हुए खिलाड़ी थे. बोले, ‘सर, मैं तो स्कूल टीचरों की बहुत इज्जत करता हूं. पर बात मेरे अकेले की नहीं है, ट्रस्ट कमेटी की है. आप दो लाख दे रहे हैं, तो ठीक है, बाकी हम आपको बैंक से फाइनेंस करा देते हैं. आप तो यों भी सरकारी कर्मचारी हैं, बहुत इजी वे में हो जाएगा. इसके लिए आप डोंट वरी. आपके हां कहने की देर है. बैंकों में हमारी पकड़ है. कइयों को हमने लोन दिलवाया है.’

‘पर सर, मैं तो अभी अपने हाऊस-लोन से ही नहीं उबर पा रहा हूं. टेन थाउजेंड मंथली आलरेडी कट रहे हंै मेरी पेमेंट से.’ मिश्रा ने अपना दुखड़ा रोया.

‘पर सर, हम भी मजबूर हैं. हमने तो आपको कम ही बताया है क्योंकि आप एक टीचर हैं. हम तो चाहते ही हैं कि साधारण घर-परिवार के बच्चों को ज्यादा से ज्यादा एडमिशन दें, क्योंकि ये पढ़ने वाले होते हैं. बड़े घरों के बच्चे तो बिगड़े नवाब होते हैं, पढ़ाई-लिखाई में उनका वैसा ध्यान नहीं रहता. इसलिए साधारण घर के बच्चे एडमिशन लेते हैं तो हमको सच्ची खुशी मिलती है. पर मैनेजमेंट कोटे का प्रेशर तो आप भी जानते हैं. लोग एप्रोच और थैला दोनों लिए खड़े हैं. बोलते हैं, आप आदेश तो करो राठी साहब. ऐसी कंडीशन में आपको यही सलाह दूंगा कि फाइनेंस करवा लीजिए… बच्चे का भविष्य का सवाल सबसे बढ़कर है भाई. बाहर कितना टफ काॅम्पीटिशन है आपको पता ही होगा. इस साल चूके कि नेक्स्ट ईयर उसे दुगुने लोगों से कम्पीट करना पड़ेगा. ऐसा मौका आप मत गंवाइये. पैसे तो आप फिर भी कमा लेंगे.’ चेअरमैन ने उसे समझाया था.

मिश्रा तत्काल कोई निर्णय नहीं ले सका था, ‘ठीक है सर, मैं डिसाइड करके आपसे मिलता हूं.’ ‘सर, थोड़ा जल्दी डिसाइड करिएगा… क्योंकि सब सीटें जल्दी ही भर जाती हंै.’ चेयरमैन ने उन्हें चेताया.

निराश और विचारों में डूबा मिश्रा कमरे से बाहर निकला तो पाया, बाहर गैलरी में मिलने वालों की लाइन और लंबी हो गई है.

मिश्रा की यह भी आदत है कि कहीं कोई समस्या उसके सामने आई नहीं कि वो इसे सबको बताते फिरेगा. स्कूल का पूरा स्टाफ जान चुका था कि मिश्रा के बच्चे का डेंटल काॅलेज में एडमिशन का प्लान चल रहा है, साढ़े तीन लाख मांग रहे हैं. सब कह रहे थे लोन ले लो. बच्चे के फ्यूचर से बढ़के कुछ नही. क्या होगा अधिक से अधिक? कुछ बरस तंगी में कटेंगे न? फिर तो जब बच्चा कमाने लगेगा सब कष्ट दूर हो जाएंगे. बच्चे के लिए इतना रिस्क लेने में कोई हर्ज नहीं है. फिर ये अच्छा रेप्युटेड काॅलेज है.

मिश्रा फिर भी तय नहीं कर पा रहा था क्या करे. तमाखू हाेंठ के नीचे दबाए हुए, अपनी आदत के मुताबिक कभी मुझसे तो कभी देवांगन से पूछता, ‘बताओ न यार क्या करूं मैं..? क्या एडमिशन लेना ठीक रहेगा?’ और हमने देखा है, मिश्रा को सलाह दो इसके बावजूद वो अक्सर ही अनिर्णय का शिकार हो जाता है, फिर जिस-तिस को अपनी समस्या बताकर हल पाने की कोशिश करेगा… आदत से मजबूर मिश्रा ने इस बार फिर अपने साढ़ू भाई को कष्ट दिया. बताया, ‘यार, मैं बहुत परेशान हूं. कुछ समझ नहीं आ रहा. डोनेशन की इतनी ज्यादा रकम देने की स्थिति नहीं है मेरी. ऐसे ही कर्ज में डूबा हुआ हूं… तुम कुछ कर सकते हो क्या?’

और उसके साढ़ू भाई ने जो किया वो सबके सामने था. एसपी अवस्थी ने चेअरमैन को फोन किया, चेअरमैन ने इसे फ्राॅड समझा. एसपी ने दूसरे ही दिन उसकी तीन बसों को चैकिंग के लिए खड़ा करवा दिया. और काम हो गया! एक लाख में ही. और आगे कोई परेशानी न हो, संबंध मधुर बने रहे, इसलिए आज फाइनल ईयर डेंटल स्टुडेंट्स के फेयरवेल फंक्शन में चेअरमैन ने एसपी को बतौर मुख्य अतिथि आमंत्रित किया है.

इस बीच मिश्रा साढ़ू भाई की मध्यस्थता से एसपी से अपनी जान-पहचान बढ़ा चुका है. जब इसका आमंत्रण मिला तो एसपी ने कहा, ‘भई, ये तो मुझे तुम्हारे कारण मिला है. तुम भी चलो उस दिन अपने दोस्तों को लेकर.’

मिश्रा तो सदैव ऐसे किसी अवसर की तलाश में रहता है जिसमें उसे अपना रुतबा दिखाने मिल सके. उसने हम दोनों को भी बुला लिया, ताकि उसके जीवन के इन ऐतिहासिक गौरवमयी क्षणों के हम गवाह रहें. ताकि बाद में वह जिस-तिस से आरआईटी (राठी इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाजी) में हुए अपने स्वागत-सत्कार के बारे में बताते हुए यह भी बता सके कि मैं तो इन दोनों को भी वहां ले गया था, पूछ लो इनसे….

हमारी जिप्सी दायां टर्न लेकर उनके एम्पायर में प्रवेश कर रही है. सामने बहुत बड़े-बड़े होर्डिंग लगे हैं इंस्टीट्यूट के, जिसमें हंसते-मुस्कुराते यंग्सटर्स अपनी उंगलियों से जीत का ‘वी’ बनाए हुए हैं, अंग्रजी में यहां की विशेषताओं और उपलब्धियों का बखान है. एक अन्य होर्डिंग इस संस्थान में संचालित तमाम कोर्सेस को बता रहा है. विशाल गेट के बाद लगभग चौथाई किलोमीटर आगे संस्थान के चौमंजिले भवन नजर आ रहे हैं. गाड़ी पलक झपकते वहां हाजिर. सारी बिल्डिंग्स ‘वेल अप टू डेट कंडीशन में, अपनी चमक से देखने वालों को चमत्कृत करते. खिड़कियों में लगे ग्लासेस हों या रेलिंग्स में लगे सिल्वर चमक लिए स्टील के पाइप्स… सब झकास!’

हम संस्थान के विशाल पोर्च के सामने हैं, जिसके आगे संस्थान के विभिन्न आॅफिस हैं. सब पारदर्शी ग्लास मढ़े. यहां पर लड़के-लड़कियों की गहमा-गहमी है. यूथ का ड्रेसकोड हो चुके जींस टी-शर्ट में नई उम्र के लड़के-लड़कियां, जिनमें एक उम्रगत कमनीयता होती है, अपनी ओर सबका ध्यान बरबस खींचते… बायीं ओर जो स्टैंड है वहां ढेर सारे स्कूटी और बाइक्स खड़े हैं… नए से नए माडल के.

इस बिल्डिंग से कुछ पीछे नई बिल्डिंग का निर्माण कार्य चल रहा है. वहां देहाती मजदूर स्त्री और पुरुष काम में जुटे हैं. ईंट-रेत ढोते या दीवार जोड़ते मिस्त्री. ये सांवले, पसीने से भीगे मजदूर… मैं सोचता हूं यहां पढ़ने वाले कितने स्टुडेंट्स का ध्यान इन लोगों की तरफ जाता होगा, या कभी ये इनके बारे में क्षण भर को भी कभी सोचते होंगे? कि इनके बच्चे कहां पढ़ते हैं? क्या इनके मन में कभी भूले से भी नहीं आता होगा कि काश, हमारे बच्चे भी यहां पढ़ सकते?  मैं यह सवाल किसी से नहीं पूछता. ये सवाल यहां करना बेमानी है. यहां ये बस लेबर हैं, जिनका पेमेंट ठेकेदार को दे दिया जाता है. इनका बाकी लोगों से भला क्या लेना-देना?

चेयरमैन पोर्च के नीचे हमारे स्वागत में खड़े हैं- दुल्हन के पिता की तरह.

‘वेलकम सर!’ हमारे गाड़ी से उतरते ही वह बहुत तत्परता से हम सबसे हाथ मिलाते हैं. चौवन-पचपन के राठी जी में गजब की व्यावसायिक दक्षता है. मिश्रा गदगद है.

वहां खड़े स्टुडेंट्स एसपी की गाड़ी देख हमें किंचित भय और आदर के मिश्रित भाव से देख रहे हैं. स्वागत में चेयरमैन आए हैं. निश्चय ही हम लोगों की सूरतें तो ऐसे किसी भव्य अतिथि का लुक कतई नहीं देते. एसपी साहब का लुक ही है मुख्य अतिथि के लायक. सिविल ड्रेस में होने के बावजूद उन्हें पहचानना मुश्किल न था.

हम आॅफिस की ओर बढ़ रहे हैं जो कुछ राउंड लेके जाना पड़ता है, चूंकि बीच में खूब हरा-भरा लाॅन है जिसके चारों ओर क्यारियां हैं जिनमें कहीं-कहीं रंग-बिरंगे फूल खिले हुए हैं. देवांगन मेरे कान में फुसफुसाता है, ‘पहले ये लोग राइस मिल चलाते थे, नेताओं के आगे-पीछे घूमते थे. अब इतनी तरक्की कर ली है कि नेता इनके पीछे घूमते हैं. वो भी सिर्फ दस-बारह बरस में!’

हमें शानदार एअर-कंडीशंड हाल के साॅफ्ट लग्जरी सोफे में बिठाया गया है. मैं और देवांगन इस लग्जरियत से तनिक सकुचा रहे हैं, लेकिन मिश्रा बेपरवाह पूरी शान से धंसा बैठा है. और उनके साथ बातचीत में लग गया है. दिल खोलकर संस्थान की तारीफ कर रहा है.

चेअरमैन अपने अर्धवृत्ताकार टेबल के पीछे के शानदार कुर्सी में धंस गए हैं. उनके सामने लैपटाॅप है और एक स्क्रीन है जिसमें वो अपने पूरे साम्राज्य के जिस हिस्से को देखना चाहें देख सकते हैं. हम इनके इन सब नए-नए तकनीकी वैभव से अभिभूत हैं.

युनिफाॅर्म पहना वेटर ट्रे में पानी सर्व कर रहा है.

‘सर, लीजिए पानी…’ राठी साहब में जबानी का फर्ज बहुत अच्छी तरह निभाते हुए बोले, ‘सर, हम तो कब से आपको बुलाना चाह रहे थे…’

‘फुर्सत नही मिल पाती काम के मारे, राठी साहब.’ अवस्थी साहब ने अपनी व्यस्तता जताई, ‘पर ये तो आपका स्नेह है जिसके चलते मैं आ गया.’

‘बड़ी मेहरबानी सर जी आपका जो आपने हमारे लिए अपना कीमती समय निकाला.’ चेअरमैन ने अपनी कृतज्ञता जाहिर की.

एसपी साहब ने कहा, ‘बहुत फैला हुआ काम है आपका. कितने एकड़ में है?’

‘अभी तो अस्सी एकड़ में है… इधर तीस और खरीदने की डील हो गई है, इसके बाद अपन हंड्रेड प्लस में आ जाएंगे…’ अपनी सफलता पर एक बड़ी मुस्कुराहट आई है उनके चेहरे पर. इसके बाद वे अपनी संस्था की तरक्की का इतिहास बताने लगे कि कैसे एक छोटे-से कम्प्यूटर डिप्लोमा सर्टिफिकेट कोर्स से इसकी शुरुआत हुई थी, और कब समय बीतता गया और कब वे यहां तक आ पहुंचे, ये खुद उन्हें भी पता नहीं चला.

देवांगन ने जोड़ा, ‘इधर इंजीनियरिंग और टेक्निकल कोर्सेस ने मार्केट में जो बूम पकड़ा उसके चलते सब अब इसी तरफ आ रहे हैं. अब देखिए न, अपने ही शहर में कितने इंजीनियरिंग कालेज खुल गए हैं! पहले यह कोई सोच भी नहीं सकता था. पूरे छत्तीसगढ़ में ले दे के एक ही ठो इंजीिनयरिंग काॅलेज था, और आज देखे तो पचास के पार हो गई है.’

इस बीच काॅफी आ गई है. चंूकि राठी साहब काॅफी नहीं लेते इसलिए उनके लिए लेमन टी. लगता है दिन भर इसी तरह आगंतुकों की खातिर-तवज्जो में लगे रहते हैं, आखिर कोई दिन भर कितनी चाय और काॅफी पियेगा? पर हम लोग पी रहे थे. इसलिए कि करोड़पति पार्टी की चाय-काॅफी कैसी होती है, ये हम बिचले-निचले लोगों को भी तो पता चले! कप हाथ में लेते हुए लगता रहा, जैसे ताज होटल में चाय सौ रुपये की हो जाती है, और उसकी इस कीमत के कारण ही वह चाय फाइवस्टारी चाय हो जाती है, लगा कुछ वैसे ही यह कुछ स्पेशल होगी. बहरहाल हम संस्थान की साधारण काॅफी भी कुछ ऐसे ही भ्रम और विभोरता में पी रहे थे. और स्वाभाविक है, इस भ्रम और विभोरता का सबसे अधिक प्रदर्शन करना मिश्रा का कर्तव्य था, और इस प्रयास में उसका सांवला रंग कुछ गोरा हो रहा था.

इस समय राठी साहब बता रहे थे, ‘हमारे संस्थान के तीन प्रोफेसर अब विभिन्न विश्वविद्यालयों के चांसलर हो गए हैं, ये बड़ी उपलब्धि है हमारी.’

एसपी साहब ने पूछ लिया, ‘आपके बेटे क्या कर रहे हैं?’

‘सर, यही संभाल रहे हैं. इसे ही संभालने में हालत खराब हो जाती है. वैसे अभी छोटा बेटा जर्मनी से एमबीए कर रहा है. और आपके बच्चे, सर?’ उन्होंने पूछ लिया.

‘एक बेटा है, वो एमबीबीएस कर रहा है बेलगाम से.’ फिर जाने क्या सोचकर बोले, ‘साला, जैसे उसके शहर का नाम है, वैसे ही वहां की फीस भी है- बे-लगाम!’  और हंसने लगे.

साहब के हंसने पर बाकी सब भी हंस पड़े. लगा, एसपी साहब मजेदार आदमी हैं. उन्होंने आगे कहा, ‘बीस-पच्चीस लाख तो अब तक खर्च हो गए हैं. कार्डियोलाजिस्ट बनना चाहता है लड़का. मैंने पूछा, डिग्री के बाद तू नौकरी करेगा कि प्रैक्टिस? तो बोला, नौकरी. मैं बोला, यार तू बेवकूफ है! तेरे पीछे जो इतना खर्च हो रहा है, वसूल कैसे होगा? मैंने कह रखा है, प्रैक्टिस ही करना. तेरे हॉस्पिटल खोलने की जिम्मेदारी मेरी!’

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राठी साहब ने कहा, ‘बिल्कुल ठीक सोच रहे हैं, सर. सरकारी नौकरी में ज्यादा से ज्यादा क्या मिलेगा- 30 हजार या 40 हजार! इसमें क्या बनेगा आदमी? इसीलिए आप देखो अपने यहां के टैलेंट बाहर जा रहे हैं और लाखों कमा रहे हैं. हमारे यहां से ही कितने तो बच्चे आज बाहर हैं.’

‘आपके यहां हॉस्टल है?’ एसपी ने पूछा.

‘अरे क्या बताएं साहब! हमारे हाॅस्टल का काम ही नहीं रुक रहा है. हर साल कम पड़ जाते हैं. लड़कों के हाॅस्टल बढ़ाने का इरादा तो हमने पिछले साल से ड्राॅप करके रखा है, क्योंकि लड़के तो कहीं भी एडजस्ट हो जाते हैं… किराए से या पेइंग गेस्ट. पर लड़कियों के लिए तो सोचना पड़ता है. उनके पैरेंट कैंपस के बाहर उन्हें कहीं रखना नहीं चाहते. और बात भी सही है. माहौल बड़ा खराब हो चला है. तो अभी सात सौ लड़कियां हाॅस्टल में रह रही हैं. अगले साल फिर बनवाना पड़ेगा.’

‘और खाना? खाना ठीक है?’

‘सर, आप हाॅस्टल में रहने वाली किसी भी लड़की से पूछ लीजिए खाना कैसा बनता है! मैं अपने मुंह से अपनी तारीफ करूं तो अच्छा नहीं लगेगा. सर, हमारे मेस में हमारे घर जैसा ही खाना बनता है. आज तक हमको किसी से कोई शिकायत नहीं मिली. जबकि हर हाॅस्टलर से साल में पचास बार तो खाने की पूछता हूं. इसमें कोई शिकायत नहीं मिलनी चाहिए.’

‘और मिलेगी भी नहीं’, एसपी साहब बोले, ‘वो इसलिए कि खाने में मारवाडि़यों का कोई मुकाबला नहीं! मैं तो यहां बैठकर अपने बेटे के नसीब को रोता हूं. वो अच्छा नार्थ इंडियन खाने के लिए तरस जाता है! काश कि उसको यहां के जैसा खाना मिल पाता! सुनिए एक मजेदार बात! हमारे एक भाई हंै. मुझसे उमर में पांच साल बड़े. एडवोकेट हैं. तो केस के सिलसिले में उनको अक्सर यहां-वहां जाना पड़ता है. तो वे सीधे कंडक्टर को पकड़ते हैं. और कहते हैं, देखिये, मेरे पास केवल प्लेटफार्म टिकट है. और मुझे फलानी जगह तक जाना है. मान लीजिए वहां तक का किराया तीन सौ है तो वे कंडक्टर को सीधे छह सौ देंगे, और कहेंगे बर्थ का इंतजाम कर दो… इस डबल रकम देने पर कंडक्टर गौर से देखता है तो भाई साहब उनसे कहते हैं, देखिये, अगर आपकी लिस्ट में अग्रवाल, जैन या मारवाड़ी हों तो मुझे उनके पास की बर्थ मिल जाए तो बहुत अच्छा. इस पर कंडक्टर पूछते हैं, क्यों, आप क्या मारवाड़ी हैं? भाई साहब बोलते हैं, जी नहीं. मारवाड़ी तो नहीं हूं. लेकिन ये लोग खाने-पीने का बहुत सा सामान लेके चलते हैं, और थोड़ी मित्रता हो जाने पर खाना फ्री में हो जाता है.’

सब लोग उनके किस्से पर दिल खोल के हंसे. सब खुश थे कि आमंत्रित मुख्य अतिथि के द्वारा हंसाए जा रहे हैं. इस पर ज्यादा प्रसन्न राठी साहब थे. कहने लगे, ‘देखिए, आप आए हैं तो कितना अच्छा लग रहा है! लगता है अपने घर का ही कोई आया है! वहीं नेताओं को बुलाओ तो उनके दस ठो नखरे सहो. वो तो उद्घाटन करके चले जाएंगे, और सहयोग एक नहीं करेंगे. बड़ी मुश्किल  होती है इन नेताओं से. मगर क्या करें, उनके बगैर हमारा काम नहीं चलता!’

‘और आपके बगैर उनका?’

‘हां, ये भी बात ठीक है.’ धीरे से बोले राठी साहब. फिर जैसे उन्होंने विषय बदलने के लिहाज से कहा, ‘हम अपने गेस्ट को अपने इंस्टीट्यूट का विजिट जरूर कराते हैं. हमने आज आपका भी विजिट रखा है. इसमें कोई आधा घंटा लगेगा. इसके बाद फंक्शन में चलेंगे.’

अब हम चार लोग चेयरमैन के साथ संस्था का भ्रमण कर रहे हैं.

बड़ी-बड़ी बिल्डिंग्स. इनमें आलीशान एयर कंडीशंड हाल. कमरों या हाल के दरवाजों के बगल में उनके विभागों को दर्शाती गोल्डन नाम-पकिएं लगी हैं. राठी साहब हमें एक हाल में ले जाते हैं. यह किसी थिएटर की तरह सीढ़ीदार है, क्रमश: ऊंची होती हुई. लंबे-लंबे डेस्क हैं, जिनमें हर स्टुडेंट के लिए डेस्कटाप एलसीडी कम्प्यूटर फिट हैं.

राठी साहब बहुत गर्व से बता रहे हैं, ‘सर, हमारे यहां स्टुडेंट्स को कागज-कलम की बिल्कुल जरूरत नहीं! सारा एजुकेशन कम्प्यूटर पर! हमारा जोर-ई लर्निंग सिस्टम पर है. ये देखिए, हमारे टीचर इस मिरर से हर एक बच्चे के कम्प्यूटर पर नजर रख सकते हैं! ढेर सारी वेबसाइट पर काम करते हैं, लेकिन कोई भी अवांछित वेबसाइट नहीं खोल सकता. हमने इसकी सुरक्षा तगड़ी रखी है. हमको तुरंत इंफरमेशन मिल जाती है.’

और हमें मिरर में वाकई सबके कम्प्यूटर दिख रहे हैं. कुछेक सिस्टम आन हैं… उनके माॅनीटर चमक रहे हैं.

‘आइए, आपको एक और चीज बताते हैं.’ उनके कहने पर हम जो मानो किसी म्युजियम में चकित भाव से सब देख रहे हैं, उनके पीछे-पीछे मंत्रमुग्ध चलते जाते हैं.

वे हमको कांच से बने एक कक्ष में ले आए हैं, जहां दो नौजवान लैपटाॅप लिए काम कर रहे हैं.

राठी साहब बताते हैं, ‘इसे हम अपना कंट्रोल रूम कह सकते हैं. हमारे सारे सिस्टम यहां से कंट्रोल होते हैं. हमने इसे प्ठड के सहयोग से तैयार किया है. आप देख सकते हैं ये सर्वर…’

वहां मौजूद दाढ़ी वाला युवक इसकी टेक्निकल बातें हमको समझाने लगता है. हम सब सर्वर में चमकते लाल-हरी टिमकियों को चमकता देखते हुए अपना अज्ञान खाली हां-हूं करके छिपाते हैं, मन ही मन अपनी तकनीकी अज्ञानता पर खुद को कोसते और कमतर महसूस करते हुए. हमारी समझ में क्या खाक आता! हम बाहर आते हैं. बाहर एक बड़ा स्टेज है, तीन तरफ बड़ी बिल्डिंग से घिरा हुआ. काफी स्पेस लिए हुए.

वे बता रहे हैं, ‘ये देखिए हमारा स्टेज… इतना बड़ा स्टेज आपको आस-पास के और किसी इंस्टीट्यूट में नहीं मिलेगा. चार सौ आदमी बड़े आराम से आ जाएंगे. बीच में इतना बड़ा गार्डन, और उसके चारों तरफ स्टुडेंट्स के बैठने की व्यवस्था. हमारे एनुअल फंक्शन यहीं होते हैं. देश के जाने-माने सेलिबि्रटि कलाकार यहां आ चुके हैं… सोनू निगम, सुनिधि चौहान, इमरान हाशमी, अमीषा पटेल… हम हर साल देश के किसी जाने-माने सेलिबि्रटि को बुलाते हैं, यही है आज के जनरेशन की चाॅइस. खूब इंजाॅय करते हैं बच्चे.’ फिर मिश्रा से मुखातिब होके बोले, ‘मिश्रा जी, अब आपका बेटा भी हमारे परिवार में शामिल हो गया है. वो भी इंजाॅय करेगा ये सब!’

‘श्योर-श्योर!’ मिश्रा मुस्कुराकर कृतज्ञ भाव से हामी भरता है, ‘सर, हमने तो उसे आपको सौंप दिया है.’

हमारे चारों तरफ राठी साहब का अस्सी एकड़ का साम्राज्य फैला हुआ है. ऊंची-ऊंची बिल्डिंग… अत्याधुनिक भवन निर्माण शैली… वेल पाॅलिश्ड, वेल फर्निश्ड…. सब कुछ साफ-सुथरा और निथरा. सुसज्जित. जगह-जगह तैनात सफाई कर्मचारी और सुरक्षागार्ड… हम लोग सोचने लगे, इतनी जमीन, इतनी बिल्डिंगेें, इतनी जायदाद कि हिसाब लगाना मुश्किल. ये कैसे संभालते हैं? कैसे मैनेज करते हैं? फिर इनके यहां तो लक्ष्मी हर साल यों आती जान पड़ती है जैसे बांध का गेट खोलने पर पानी का रेला! इनका ये कई करोड़ों का कारोबार हमारी साधारण बुद्धि से परे है.

गैलरी में चलते-चलते देवांगन फिर धीमे से मेरे कान में फुसफुसाता है, ‘ये तो यहां के अंबानी हैं! टाटा बिरला हैं!’

मैं हताश भाव से मुस्कुराकर रह जाता हूं. शिक्षा का नया कारोबार इन्हें अकूत मुनाफा दे रहा है, तभी तो खड़ा है इनका ये साम्राज्य!

एक कोने में बांस सरीखे पेड़ों के झुरमुट हंै, खूब हरे. उनकी पतली लचकती शाखों में ढेर सारे घोंसले लटक रहे हैं. घास की बहुत महीन बुनावट वाले सुंदर और अद्वितीय घोंसले. ये बया के हैं.

इंजीनियरिंग काॅलेज में इंजीनियर बर्ड! मैंने सोचा, चलो कुछ तो यहां ऐसा है जो उनकी मुनाफा-नीति के कारण नहीं है. लगता है, राठी साहब की नजर इन पर नहीं पड़ी, वरना इनसे भी डोनेशन वसूलते!

img1एक शानदार तिमंजिले इमारत के सामने राठी साहब रुके हैं.

‘ये हमारे डेंटल काॅलेज की बिल्डिंग है.’ अपनी गर्वीली विनम्रता से राठी साहब बता रहे हैं, ‘हमारे यहां डेंटल की एक सौ बीस सीट है. हर साल इतने ही डाॅक्टर यहां से निकल रहे हैं. इस हिसाब से हमने पांच सौ डाॅक्टर बना दिए.’

हम ग्राउंड फ्लोर की ग्रे मारबल की चिकने फर्श वाली गैलरी में चल रहे हैं. इससे लगे बड़े-बड़े हाल है,ं जिनमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर जाने कितने डेंटल चेयर्स सेट हैं. इन्हें गिन पाना मुश्किल है. अभी तक हमने किसी डेंटिस्ट के यहां ही देखे हैं, एक या दो.

राठी साहब सगर्व बताते हैं, ‘सर, देखिए हमारे डेंटल चेअर्स. अपने यहां है- वन चेअर फाॅर वन स्टुडेंट! ऐसी फेसिलिटि आस-पास और कहीं नहीं.’

बिल्डिंग के आखिरी हिस्से में प्रिंसिपल का आॅफिस है. यही से ऊपरी मंजिल के लिए सीढि़यां गई हैं. डेंटल काॅलेज के प्रिंसिपल डाॅ. चावरे हैं, अधेड़, मोटे और नाटे व्यक्ति. हमसे लपककर मिलते हैं. खुशमिजाज आदमी जान पड़ते हैं. अब वह भी हमारे साथ सीढि़यां चढ़ने लगते हैं. सामने जो कमरा है वहां हमें थोड़ी भीड़ नजर आती है लोगों की. ये गांव-देहात के लोग लगते हैं, दुबले, काले, अधेड़, बीमार….

राठी साहब बहुत उत्साहित होकर बताते हैं, ‘सर, ये देखिए हमारी समाज-सेवा. हमारा ओपीडी… यहां हम मरीजों का बहुत नाॅमिनल चार्ज पे इलाज करते हैं. आस-पास के गांवों से आते हैं ये पेशेंट…’

दस-बारह मरीज बाहर लगी बेंच पर बैठे हैं, अपनी बारी का इंतजार करते.

‘गुड!’ एसपी साहब खुशी जाहिर करते हैं.

खुशमिजाज चावरे एसपी साहब से मजाक करते हैं, ‘सर, कभी हमको सेवा का मौका दीजिए न…. कभी आपको दांत तुड़वाना हो, या दांतों की कैसी भी तकलीफ हो… हम बहुत सस्ते में करते हैं. …प्लीज… वेलकम!’

‘अरे, भगवान न करे कभी वो दिन आए.’

‘अरे ऐसा मत बोलिए, सर,’ चावरे तुरंत बोले, ‘बल्कि बोलिए कि भगवान करे वो दिन जल्दी आए, वरना हम लोगों की रोजी-रोटी का क्या होगा? ये लड़के बेचारे जो सीखने आए हैं, कैसे सीखेंगे? ये सीखने के लिए ही तो आए हैं. इसीलिए तो हम हर पंद्रह दिन में आसपास के गांव में कैम्प लगाते हैं. फ्री चेकअप और दवाई फ्री. विदाउट प्रैकिटस दे वोंट बिकम अ गुड डाॅक्टर…’

सामने ओपीडी काउंटर है. कांच के पीछे एक लड़का बैठा है. हमें देखते ही उठ खड़ा हुआ. राठी साहब उससे पूछते हैं, ‘क्यों भई, कितने पेशेंट हुए आज?’

लड़का रजिस्टर देखकर बताता है, ‘सर, एक सौ सत्ताइस.’

राठी साहब बोले, ‘दो सौ पेशेंट तो रोज के हैं, साहब! कई बार तो इनको लौटाना पड़ जाता है.’

आगे डेंटल के अलग-अलग डिपार्टमेंट हैं, जिनमें लड़के-लड़कियां काम में जुटे हैं, दांतों से संबंधित तरह-तरह के काम करते. हम उन्हें देख रहे हैं. इस हाल में अपेक्षाकृत नए चेअर्स हैं, बहुतों के तो जिलेटिन कवर नहीं निकले हैं. ये नए हैं, चमकते हुए, पिस्ता रंग के.

चेअरमैन राठी हमें बताते हैं, ‘सर, ये चेअर्स इंपोर्टेड हैं. इन्हें हमने ब्राजील से मंगवाया है.’

‘वाह!’ एसपी साहब के मुंह से निकला, ‘ये तो बहुत बढि़या हैं!’ फिर मुझसे मुखातिब हो बोले, ‘बनवासी जी, मैं लेखक तो नहीं हूं, लेकिन छिट-पुट पढ़ता जरूर हूं. जरा सोचो, इनमें लेटकर पढ़ने में कितना मजा आएगा!’

हम सब एसपी साहब की ऐसी कल्पनाशीलता पर हंस पड़े.

उन्होंने राठी साहब से पूछा, ‘क्यों राठी साहब, क्या कीमत होगी इसकी? सोचता हूं एक ठो घर में रख ही लूं.’

‘सर, एक-एक कम से कम अस्सी हजार की होगी.’

‘बाप रे! तब तो ये आपको ही मुबारक!’ मुस्कुराकर कहा.

‘चलिए सर, अब हम अपने फंक्शन हाल में चलते हैं.’ राठी साहब ने कहा.

‘चलिए.’ हम उनके सभा कक्ष में हैं. खूबसूरत हाल. फाइनल ईयर के स्टुडेंट्स, जिनमें ज्यादातर लड़कियां हैं. अपनी फेयरवेल पार्टी के लिए उन्होंने भिड़कर इस हाल की सीलिंग और दीवारों को रंगबिरंगे फूलों, गुब्बारों, रिबनों, और पन्नियों से सजाया है. ये किसी के जन्मदिन या शादी के सालगिरह का माहौल ज्यादा लग रहा है, डाॅक्टरों के फेयरवेल का कार्यक्रम कम.

कुछ ही देर बाद कार्यक्रम शुरू हो गया. हम सबका फूलों से स्वागत. स्वागत भाषण राठी साहब दे रहे हैं जिसमें वे बहुत कर्मठ और ईमानदार एसपी गौतम अवस्थी साहब के आने को अपने इंस्टीट्यूट और बच्चों का बहुत बड़ा सौभाग्य बता रहे हैं.

इसके बाद मुख्य अतिथि को बोलना है. उन्हें इन डाॅक्टर बनने जा रहे युवक-युवतियों को आशीष और शुभकामनाएं देनी हैं.

एसपी साहब संस्था के चेअरमैन, प्रिंसिपल आदि को अपने यहां बुलाने का धन्यवाद देते हुए कहते हैं, ‘प्यारे नौजवान दोस्तों, मुझे लगता है, इन लोगों ने गलत आदमी को आपके सामने खड़ा कर दिया है. हमारा विभाग तो ऐसे ही मारने-पीटने के लिए बदनाम है. मुझे लगता है, एक ही हिंसक समानता हममें आपमें है, वो ये कि आप मरीजों के दांत तोड़ते हैं, और हम अपराधियों की कुटाई करते हैं. बहरहाल, अभी हम लोगों को आपके काॅलेज का भ्रमण करवाया गया, जिसे देखने के बाद मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूं कि इससे बड़ा, प्रतिष्ठित  और सारे इक्विपमेंट से सुसज्जित इंस्टीट्यूट इस प्रदेश में दूसरा और कोई नहीं! (तालियां!) आप लोग भाग्यशाली हैं जो ऐसे हर लिहाज से परफेक्ट और प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट में बीडीएस की पढ़ाई कर रहे हैं. (राठी साहब के इशारे पर तालियां!) आप लोग तरक्की कीजिए. अच्छे कुशल डाॅक्टर बनिए और देश की सेवा कीजिए. डाॅक्टर्स आज अपनी मोटी फीस के लिए बदनाम हैं. मैं आशा करता हूं आप कम फीस लेकर गरीबों की सहायता करेंगे. अपनी सेवाएं शहरों को नहीं, गांवों को देंगे, जहां आप जैसों की बहुत जरूरत है. मुझे फिल्म काला पत्थर के डाॅक्टर राखी और संजीव कुमार याद आ रहे हैं… शायद आप लोगों ने भी देखी हो… जो कोयले खदान के गरीब, लाचार और बीमार मरीजों का इलाज करते हैं. मुझे देश के एक महान चिकित्सक डाॅक्टर कोटनिस की याद रही है. सुना है आप लोगों ने उनके बारे में? (श्रोताओं से कोई जवाब नहीं मिलता) डाॅक्टर कोटनिस चीन गए थे. वहां महामारी फैली थी और वे अपनी जान की चिंता किए बगैर उनकी जान बचाने में लगे रहे. ठीक ऐसे ही हमारे महात्मा गांधी कुष्ठ रोगियों की सेवा किया करते थे. आपको इन महान लोगों से प्रेरणा लेकर देश के लिए काम करना चाहिए. मैं आप सबके अच्छे उज्जवल कैरियर और सुखमय भविष्य की कामना करता हूं.’

तालियां. ये तालियां वैसी ही औपचारिक थीं जैसे किसी बड़े-बुजुर्ग की बात हम इस कान से सुनकर दूसरे कान से निकाल देते हैं. बल्कि उनकी असल उत्सुकता और रोमांच भाषण के बाद होने वाले अपने डांस कार्यक्रम को लेकर थी.

इधर हम लोग नाश्ता कर रहे थे, उधर वे मंच पर नाच रहे थे, ‘मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए….’

(यह कहानी तहलका के संस्कृति विशेषांक में स्थानाभाव के कारण प्रकाशित नहीं हो सकी थी)