उत्तर प्रदेश में जिन्ना और अब्बाजान!

हर रोज़ नये-नये जुमलों से सनी उत्तर प्रदेश की सियासत एक-दूसरे पर छींटाकसी करती नज़र आ रही है। हार का डर सभी को है। लेकिन जनता में वर्चस्व क़ायम करने के लिए योगी एक बार फिर से कमल खिलाने का दम भर रहे हैं, तो अखिलेश यादव विजय यात्रा करके जीत का दावा कर रहे हैं। वहीं प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर हाथ के पंजे को मज़बूत करने की कोशिश में जुटी हैं, तो मायावती परदे के पीछे से राजनीति चल रही हैं।

इन दिनों उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अब्बाजान कहे जाने पर उन्हें ही इसका शिकार होना पड़ रहा है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने ख़ुद अपने सम्बोधन में अब्बाजान शब्द को लम्बे समय तक तकिया कलाम बनाये रखा। सितंबर में जब यह मुद्दा विधान परिषद् में उठा था, तो योगी ने कहा था कि अब्बाजान शब्द कबसे असंसदीय हो गया? इसका मतलब यह हुआ कि अब्बाजान शब्द को योगी साफ़ तौर पर संसदीय घोषित करने की कोशिश कर रहे थे, जिसके बाद सियासी गलियारे में उन्हें अब्बाजान को याद करने वाला जुमला मज़ाक़ बन गया।

भाजपा और योगी ने अयोध्या में भगवान राम के मन्दिर के निर्माण को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में भुनाने की कोशिश के बीच दीपावली पर 12 लाख दीपक प्रज्ज्वलित करके भव्य दीपोत्सव मनाया, जिससे हिन्दुओं की भावनाएँ एक बार फिर उद्वेलित हुई हैं। लेकिन महँगाई, बेरोज़गारी के बीच कोरोना महामारी के बाद प्रदेश भर में डेंगू ने मौत का जो तांडव किया है, उससे लोग सरकार से ख़ासे नाराज़ भी हैं।

भाजपा के लिए हिन्दुत्व पहले भी सबसे बड़ा मुद्दा था और आज भी सबसे बड़ा मुद्दा है। महँगाई और बेरोज़गारी, स्वास्थ्य अव्यवस्था जैसे मुद्दों पर विपक्ष भले ही उसे घेर ले; लेकिन भाजपा की हिन्दुत्व वाली छवि आज भी काफ़ी मज़बूत है। अयोध्या में पाँचवा भव्य दीपोत्सव मनाकर उसने अपनी इसी छवि को मज़बूत किया है। वैसे बाक़ी मुद्दों पर भी पार्टी रणनीतियाँ बनाकर काम कर रही है। लेकिन काम को लेकर केवल प्रचार के अलावा उसके पास कोई ख़ास नहीं है। इसीलिए वह राम मन्दिर, हिन्दुत्व, जातिवाद के ज़रिये जनाधार जुटाने में लगी है। इतना ही नहीं, भाजपा दूसरे दलों में तोडफ़ोड़ का भी कोई मौक़ा नहीं छोडऩा चाहती और विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में भी वह यही कर रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गाज़ीपुर  के सैदपुर से विधायक सुभाष पासी को सपा से तोडक़र अपने ख़ेमे में करना है। माना जा रहा है कि पत्नी समेत भाजपा में शामिल हुए सुभाष पासी से योगी को ग़ाज़ीपुर, आजमगढ़ और जौनपुर के कुछ इलाक़ों में दलितों के मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। मोदी लहर के बावजूद इन इलाक़ों सुभाष पासी का जल्वा क़ायम है। दूसरा, पूर्वांचल में भाजपा के पास कोई बेहतर दलित चेहरा नहीं था, जिसकी भरपायी उसने सपा के सुभाष पासी को तोडक़र कर ली है। वैसे तो सुभाष पासी इन इलाक़ों में ख़ासे लोकप्रिय हैं; लेकिन देखना यह है कि भाजपा में जाने से वह इस लोकप्रियता को बचा पाएँगे या नहीं।

अखिलेश यादव की बात करें, तो उन्हें चुनाव के समय जिन्ना याद आ गये। माना जा रहा है कि उन्होंने मुस्लिम मत (वोट) बटोरने के लिए बँटवारे के सबसे बड़े क़ुसूरवार मोहम्मद अली जिन्ना को गाँधी, नेहरू और सरदार पटेल की कतार में खड़ा कर दिया है। इस पर उन्हें असदुद्दीन ओवैसी ने जमकर लताड़ा। दरअसल ओवैसी को यह डर है कि इससे अखिलेश मुस्लिम जनाधार अपने पक्ष में कर लेंगे। हालाँकि अखिलेश के जिन्ना को याद करने से भले ही कुछ मुसलमान ख़ुश हुए हों; लेकिन अधिकतर मुस्लिम नाराज़ हुए हैं। भले ही दूसरी पार्टियों से भी मुस्लिम मतदाता ख़ुश नहीं हैं।

इधर अखिलेश यादव ने मायावती की पार्टी में बड़ी सेंधमारी करके उनके छ: विधायकों और भाजपा के एक विधायक को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। इतना ही नहीं, अखिलेश और उनके समर्थन में आये ओमप्रकाश राजभर ने ममता बनर्जी के ‘खेला होबे’ की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में नारा दिया है- ‘खदेड़ा होबे’। उन्हें विश्वास है कि जिस तरह ममता बनर्जी ने खेला होबे के नारे से बंगाल को जीता, उसी तरह वे भी खदेड़ा होबे के नारे से उत्तर प्रदेश जीत लेंगे।

अखिलेश को भरोसा है कि इस बार उनकी वापसी होने के आसार हैं। शायद इसीलिए वह कभी भाजपा, कभी मायावती, तो कभी कांग्रेस के जनाधार में सेंधमारी करने में जुटे हैं। कांग्रेस की देखादेखी ही उन्होंने लखीमपुर खीरी की घटना से आहत किसानों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की कोशिश शुरू की, ताकि प्रदेश के किसानों का दिल जीत सकें। लेकिन इस मामले में वह प्रियंका गाँधी का मुक़ाबला करते नहीं दिख रहे हैं। कुर्सी की आकांक्षा में बीच-बीच में वह भी भाजपा की तरह ग़लतियाँ करते जा रहे हैं। जिन्ना का ज़िक्र करना और उनके सहयोगी ओमप्रकाश राजभर का माफिया मुख़्तार अंसारी से बांदा जेल में जाकर मिलना ऐसी ही ग़लतियाँ हैं। राजभर ने माफिया मुख्तार अंसारी को ग़रीबों का मसीहा बताते हुए उन्हें उनकी इच्छानुसार जगह से चुनाव लडऩे का न्यौता देकर एक ऐसा पासा फेंका है, जो समाजवादी पार्टी के लिए बेहतर क़दम तो नहीं कहा जा सकता। अखिलेश का चुनाव लडऩे से इन्कार करना भी सपा के लिए बहुत बेहतर नहीं तो माना जा रहा है। लेकिन माना जा रहा कि अखिलेश ने यह क़दम अपनी लोकसभा सीट बचाये रखने, भाजपा के निशाने से बचने और अपने चाचा को शिवपाल यादव को ख़ुश करने के लिए उठाया है। उन्होंने जीतने पर प्रदेश में पेट्रोल सस्ता करने का जाल भी फेंक दिया है। अखिलेश की कोशिश है कि राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया से गठबन्धन करके वह बाज़ीमार लें।

इधर प्रियंका गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में पहले से काफ़ी मज़बूत दिख रही है। माना जा रहा है कि इसका लाभ इस बार कांग्रेस को ज़रूर मिलेगा। यही वजह है कि बसपा, सपा जैसे मज़बूत क्षेत्रीय दलों में ही नहीं सत्ता में मौज़ूद भाजपा को भी कांग्रेस की सक्रियता खटकने लगी है। तीन दशक से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर ही नहीं है, बल्कि लगातार कमज़ोर भी हुई है। लेकिन अब इसे मज़बूत करने का बीड़ा प्रियंका गाँधी ने उठाया है और इसमें वह स$फल होती हुई भी दिख रही हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करना उनके लिए आसान नहीं है। उनके सहयोगी अभी भी दूसरों की नाव में कूद रहे हैं।

मगर प्रियंका इसकी फ़िक्र किये बग़ैर ही कार्यर्काओं को पार्टी में शामिल करने और योजनाएँ बनाने में चुपचाप जुटी हुई हैं। वह भाजपा की तरह ही सोशल मीडिया के ज़रिये प्रचार कर रही हैं। यूट्यूब व अन्य चैनलों के ज़रिये जनता के मुद्दों को उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश में लगी हैं। वह भाजपा की तरह धर्मवाद और जातिवाद की राजनीति में न फँसकर सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश करती दिख रही हैं, जिसमें उन्होंने महिलाओं को प्रमुखता दी है और बेरोज़गारी के अलावा किसानों व पीडि़तों के मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठा रही हैं। कुल मिलाकर प्रियंका गाँधी सहानुभूति वाली राजनीति कर रही हैं। हालाँकि प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बंजर ज़मीन उपजाऊ बनाने की कोशिश में लगी हैं। देखना यह है कि वह इस पर 2022 में कितनी फ़सल उगा पाती हैं। उन्होंने जनाधार की फ़सल उगाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है और प्रदेश की पाँच करोड़ महिलाओं तक अपनी पहुँच मज़बूत करने के लिए ‘लडक़ी हूँ, लड़ सकती हूँ’ का नारा दिया  है। इस समय उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभन सीटों में कांग्रेस के पास सिर्फ़ एक और विधानसभा की 404 (403+1) में सिर्फ़ सात सीटें ही हैं।

उत्तर प्रदेश में के चुनावी रण में यूँ तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी थके हुए महारथी की तरह खड़ी है; लेकिन अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि उसकी लड़ाई किससे है? क्योंकि मायावती सभी पार्टियों पर बरसती दिखायी दे तो रही हैं; लेकिन पहले की तरह ताक़त चुनाव में झोंक नहीं रही हैं। भले ही उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन से लेकर प्रबुद्ध सम्मेलन तक करने का काम किया है। लेकिन बसपा की राजनीति ट्विटर से आगे नज़र नहीं आ रही। दीपावली पर मायावती और उनकी पार्टी बिल्कुल शान्त नज़र आयीं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा से जीतकर आये उनके विधायकों में भगदड़ मची है। ऐसा लग रहा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को अस्तित्व की लड़ाई लडऩी होगी; क्योंकि 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद वह प्रदेश में लगातार कमज़ोर होती दिख रही है। मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह ब्राह्मण मतदाताओं के ज़रिये बड़ा धमाका करने की तैयारी में हैं। लेकिन उनका दलित मतदाता उनके हाथ से खिसकता दिख रहा है। अब देखना यह है कि क्या बसपा इन्हें पछाडक़र आगे निकल पाएगी?

केंद्र सरकार के ग़रीबों को मुफ़्त राशन योजना से वंचित करने की ख़बरों के बीच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रधानमंत्री अन्न योजना को होली तक बढ़ाने का ऐलान करके मतदाताओं को भाजपा से टूटने से बचाने का प्रयास किया है। दूसरी तरफ़ उप चुनावों में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन के बाद केंद्र की एक्साइज ड्यूटी में कटौती के फ़ैसले के बाद राज्य सरकार ने पेट्रोल-डीजल की क़ीमतों में मामूली कटौती की है। प्रदेश सरकार की दोनों घोषणाएँ लोगों को थोड़ी राहत देने वाली ज़रूर हैं; लेकिन महँगाई से परेशान जनता क्या इतने से सन्तुष्ट होकर फिर से भाजपा को प्रदेश की सत्ता सौंपेगी?

कुल मिलाकर इस समय हर पार्टी अपना क़िला बचाने में लगी है, जिसके चलते सियासी गर्मी बढ़ी हुई  है। लेकिन सत्ता में वापसी किसती होगी। यह तो वक़्त ही बताएगा।