उत्तराखण्ड में कहर: ग्लेशियर टूटने से हुआ विध्वंस बताता है कि कुदरत हमसे कितनी खफा है

चमोली में 7 फरवरी को ग्लेशियर टूटने से हुई तबाही ने एक बार फिर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। अंधाधुंध कटते जंगल, लकड़ी की तस्करी, पर्यावरण असंतुलन, विकास के नाम पर पहाड़ों की खुदाई और कंक्रीट के खड़े होते जंगल बड़ी तबाही का रास्ता खोल रहे हैं। बादल फटने की घटनाएँ अब तक देश के पहाड़ी राज्यों में हज़ारों लोगों की जान ले चुकी हैं। केदारनाथ में सन् 2013 में ग्लेशियर टूटने से हुई तबाही ने 5,748 लोगों की ज़िन्दगी लील ली थी। लेकिन भविष्य में इसके बचाव के लिए अभी तक कुछ नहीं हुआ, जिसका नतीजा एक बार फिर तबाही के रूप में हमारे सामने है। सरकारों को समय-समय पर विशेषज्ञों की तरफ से जो रिपोट्र्स और सुझाव दिये गये, वो सरकारी अलमारियों में धूल फाँक रहे हैं। इस दु:खद घटना और अब तक की गलतियों से हुई तबाहियों पर सुझावों सहित विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

विज्ञान पत्रिका ‘साइंस एडवांसेज’ की हाल की एक रिपोर्ट बताती है कि हिमालय के लगभग 650 ग्लेशियर ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण तेज़ी से पिघल रहे हैं; जिससे हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र के भारत सहित आठ देशों को गम्भीर खतरा पैदा हुआ है। उधर भारतीय अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि पिछले कुछ साल में ही सतलुज, चिनाब, रावी और ब्यास बेसिन पर 100 से अधिक नयी झीलें बन गयी हैं। सन् 2014 में सतलुज घाटी में 391 ग्लेशियर झीलें थीं, जिनकी संख्या बढ़कर अब 500 हो गयी है। यह आँकड़े उत्तराखण्ड में फरवरी में ग्लेशियर टूटने से आयी विभीषिका और भविष्य के खतरों को इंगित करते हैं। कहा जा सकता है कि पर्यावरण असन्तुलन, घटते पेड़ों और इससे पैदा होती गर्मी ने हमें गम्भीर खतरे के मुहाने पर लाकर खड़ा कर दिया है। एक अध्ययन के मुताबिक, यदि ग्लोबल वॉर्मिंग के खतरे के मद्देनज़र चलाये जा रहे ग्लोबल क्लाइमेट (वैश्विक जलवायु) प्रयास नाकाम हुए, तो साल 2100 तक हिमालय क्षेत्र के दो-तिहाई ग्लेशियर पिघल चुके होंगे। भारत की बात करें, तो ‘तहलका’ की जानकारी बताती है कि ग्लेशियरों के खतरे और कारणों को लेकर देश भर में अब तक एक दर्ज़न से ज़्यादा विस्तृत अध्ययन डरपोट्र्स दी गयी हैं; लेकिन सरकार की तरफ से इस खतरे से निबटने के लिए कुछ खास नहीं किया गया है।

अध्ययन बताते हैं कि हिमालय से लेकर ग्रीनलैंड तक ग्लेशियरों के पिघलने का क्रम बढ़ता जा रहा है। इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्रीनलैंड और अंटार्कटिक में बर्फ की परत लगभग हर साल 400 अरब टन कम हुई है। इससे न केवल समुद्र के स्तर के बढऩे की सम्भावना जतायी जा रही है, बल्कि कई देशों के प्रमुख शहरों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है। जो शहर समुद्र के बढ़ते स्तर से ज़्यादा प्रभावित होंगे, उसमें भारत की आर्थिक राजधानी मुम्बई और पूर्व राजधानी कोलकाता जैसे बड़े शहर भी शामिल हैं। साइंस एडवांसेज में प्रकाशित अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, अमेरिका के 70 और 80 के दशक में अंतरिक्ष में भेजे गये जासूसी उपग्रह से मिले चित्रों को थ्रीडी मॉड्यूल में बदलने से किये गये शोध में खुलासा हुआ है कि सन् 1975 से 25 साल तक हिमालय रेंज के ग्लेशियर जहाँ हर साल 10 इंच तक घट रहे थे, वहीं सन् 2000 से सन् 2016 के बीच हर साल औसतन 20 इंच तक घट गये। अध्ययन में पाया गया कि 2,000 किलोमीटर से ज़्यादा लम्बी पट्टी में फैले हिमालयन क्षेत्र का तापमान एक डिग्री से ज़्यादा तक बढ़ चुका है, जिसकी वजह से ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार दोगुनी हो गयी है।

बिजली परियोजनाओं और बाँध भी बाढ़ और तबाही का सबसे बड़ा कारण बन रहे हैं; खासकर पहाड़ी राज्यों में। सर्वोच्च न्यायालय की गठित एक समिति तक ने सिफारिश की थी कि उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में और बाँध नहीं बनने चाहिए। लेकिन सरकारों ने इसे भी नज़रअंदाज़ कर दिया। केंद्रीय जल बोर्ड के मुताबिक, देश में 5,334 बड़े बाँध हैं; जबकि 411 निर्माणाधीन हैं। इनमें से केवल 34 में ही आपदा प्रबन्धन योजना लागू है। उत्तराखण्ड, हिमाचल और अरुणाचल प्रदेश में बिजली परियोजनाएँ और बाँध लोगों का चैन छीन रहे हैं।

याद करें 15-16 जून, 2013 की सुबह उत्तराखण्ड में चैराबाड़ी ग्लेशियर के टूटने की घटना, जिसने केदारनाथ में तबाही मचा दी थी। एक अनुमान के मुताबिक, इस घटना में 10,000 लोगों की जान चली गयी थी। हालाँकि सरकारी आँकड़े कहते हैं कि इस त्रासदी में 5748 लोगों की जान गयी थी। विशेषज्ञ उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने की एक बड़ी वजह जलवायु परिवर्तन को मान रहे हैं। हिमालय का क्षेत्र अन्य पर्वत शृंखलाओं की तुलना में कहीं तेज़ी से गर्म हो रहा है। तापमान बढ़ाने में लकड़ी की जगह लेने वाले कंक्रीट-सीमेंट के ढाँचों का योगदान भी काफी है। यदि पूरे हिमालय क्षेत्र की बात करें, तो 8000 से अधिक ग्लेशियर झीलें हैं, जिनमें 200 को खतरनाक की श्रेणी में रखा गया है। उत्तराखण्ड सरकार ने 2007-08 में एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन इसकी जाँच के लिए किया था। इसकी रिपोर्ट में यह निष्कर्ष निकला था कि सिर्फ उत्तराखण्ड क्षेत्र में 50 से अधिक ग्लेशियर गर्मी के कारण तेज़ी से आकार बदल रहे हैं। हाय मैप रिपोर्ट, जिसे आईसीआईएमओडी ने तैयार किया है, ग्लेशियर से जुड़े खतरों के वैश्विक तापमान से सम्बन्धों के खतरों से आगाह करती है। इसमें कहा गया है कि हिन्दूकुश हिमालय क्षेत्र में दुनिया के अन्य हिस्सों की तुलना में तेज़ी से खतरा बढ़ रहा है।

उत्तराखण्ड स्थित जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के एक अध्ययन में कहा गया है कि हिमालय के ग्लेशियर साल दर साल छोटे हो रहे हैं। ग्लेशियरों में आ रहा ये बदलाव बड़े संकट की ओर इशारा कर रहा है। ग्लेशियर टूटने से जैसा तांडव चमोली में मचा है, वैसा कम ही दिखायी देता है। जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान ने अपने अध्ययन में पाया है कि साल दर साल हिमालय रेंज के ग्लेशियर छोटे हो रहे हैं। संस्थान ने पिथौरागढ़ के बालिंग और अरुणाचल के खागरी ग्लेशियर का गहन अध्ययन किया था। स्पेस एप्लीकेशन सेंटर अहमदाबाद की मदद से किये गये इस अध्ययन में पाया गया कि दोनों ग्लेशियर हर साल 8 मीटर घट रहे हैं। जी.बी. पन्त राष्ट्रीय हिमालय पर्यावरण संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी किरीट कुमार कहते हैं कि हिमालय रेंज में सभी ग्लेशियर घट रहे हैं। उन्होंने अपने अध्ययन-2 ग्लेशियरों को शामिल किया और पाया गया कि दोनों ग्लेशियरों की ऊँचाई हर साल 8 मीटर के करीब घट रही है। ग्लेशियरों की घट रही ऊँचाई का कारण मानव का जंगलों में बढ़ता हस्तक्षेप और जलवायु परिवर्तन के अलावा जंगलों की आग को बताया गया है।

उत्तराखण्ड में 7 फरवरी की भयंकर तबाही वाली घटना की जाँच और कारणों का पता लगाने के लिए केंद्र ने पाँच वैज्ञानिकों का एक दल वहाँ भेजा था। इसकी शुरुआती रिपोर्ट में कहा गया है कि एक ढीली हो गयी चोटी और एक चट्टान के ऊपर बहुत कमज़ोर हालत में टिके एक ग्लेशियर के कारण आपदा आयी। वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (देहरादून) की टीम घटनास्थल पर गयी और पूरे इलाके को ट्रैक किया (समझा)। इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पाया कि यह आपदा चट्टान के फिसलने और रौंठी ग्‍लेशियर इलाके में एक हैंगिंग ग्‍लेशि‍यर के कारण बनी। घटना का मूल दो चोटियों- रौंठी और मृगथूनी के पास था।

वैज्ञानिकों के मुताबिक, हो सकता है कि एक चोटी, भारी और ठोस स्‍ट्रक्‍चर, प्राकृतिक कारणों से टूटकर अलग हुई और अपने नीचे के ग्‍लेशियर पर गिर गयी, जो समुद्रतल से करीब 5,600 मीटर की ऊँचाई पर था। इससे ग्‍लेशियर टकड़ों में विभाजित हो गया और चट्टान के मलबे के साथ मिल गया। चट्टान और बर्फ का यह जोड़ बहुत तेज़ी से 37 डिग्री वाली सीधी ढलान से नीचे आते हुए करीब 3,600 मीटर की ऊँचाई पर रौंथी गधेरा धारा से टकरा गया। जब यह नदी से टकराया, तो बाँध जैसा एक स्‍ट्रक्‍चर बन गया और बर्फबारी की वजह से कुछ समय तक टिका रहा। अपनी रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने पिछले साल सितंबर से वहाँ जमा पानी और उन ऑब्‍जेक्‍ट्स (वास्तुस्थितियों) की तस्वीरें लगायी हैं जब वो स्‍ट्रक्‍चर वहाँ नहीं था।

वैज्ञानिक अब ये पता लगाने की जुगत में हैं कि चोटी आखिर टूटी कैसे? वैज्ञानिकों की सम्भावना के मुताबिक, चट्टान जहाँ से गिरी, वो एक कमज़ोर क्षेत्र था। ऐसा कई साल में एक बार होता है। यह अचानक होने वाली घटना नहीं है, जैसा बादल फटने या सन् 2013 केदारनाथ त्रासदी के समय हुई थी। इन वैज्ञानिकों ने रिपोर्ट में सिफारिश की है कि भारत के सभी 26 ग्‍लेशियरों की लगातार निगरानी ज़रूरी है और ऐसा करके ही भविष्य में आपदा से बचने या उसके प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है।

रूह कँपा देने वाला मंज़र

7 फरवरी की वह रात बहुत भयानक थी। उत्तराखण्ड के चमोली ज़िले में ग्लेशियर फटने के बाद आयी बाढ़ बहुत कुछ अपने साथ बहाकर ले गयी-  ज़िन्दगियाँ, सम्पदा, बिजली परियोजना और बहुत कुछ। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 36 लोगों के शव मिले थे और प्रशासन के मुताबिक, 170 लोग अभी भी लापता हैं। घटना के इतने बाद भी ज़िन्दगी सामान्य नहीं हो पायी है। घटना के बाद देवप्रयाग से हरिद्वार तक हाई अलर्ट जारी किया गया। राज्य में सभी ज़िलों के ज़िलाधिकारियों को हालात पर नज़र रखने के लिए कहा गया है।

चमोली की आपदा ने लोगों के मन में सन् 2013 में केदारनाथ धाम की त्रासदी की याद ताज़ा कर दी। करीब साढ़े 6 साल बाद चमोली की बाढ़ ने अब फिर वो सारे दृश्य नज़रों के सामने ला दिये हैं, जिनमें लोगों ने प्राकृतिक आपदा का वह भयानक रूप देखा था। उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने से हुई त्रासदी से सुरंग में फँसे लोगों को निकालने के लिए अब ड्रोन कैमरे का इस्तेमाल किया जा रहा है। आईटीबीपी, एनडीआरएफ, एसडीआरएफ और अन्य एजेंसियाँ पिछले एक हफ्ते से ज़्यादा समय से टनल में रेस्क्यू ऑपरेशन चला रही हैं। तपोवन की टनल से जेसीबी की मशीनें लगातार मिट्टी निकालने का काम कर रही हैं। रेस्क्यू टीम को दर्ज़नों मीटर जमी मिट्टी हटानी है। बाँध के पास छोटी बस्ती में कई परिवार को सुरंग के भीतर फँसे अपनों के बारे में जानकारी का इंतज़ार है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक लोगों को बचाने या ढूँढने के लिए सेना और अर्धसैनिक बल के करीब 800 जवान दिन-रात जुटे हुए हैं। ग्लेशियर टूटने से आयी बाढ़ की वजह से करीब 175 लोग लापता हो गये। घटनास्थल पर कई मानव अंग मिले हैं। अधिकारियों के मुताबिक, बाढ़ से क्षतिग्रस्त तपोवन-विष्णुगाड हाइड्रो परियोजना की सुरंग में टनों गाद और मलबा जमा हो गया है। इससे बचाव अभियान में आ रही मुश्किलों को देखते हुए उसमें फँसे लोगों को ढूँढने के लिए ड्रोन और रिमोट सेंसिंग उपकरणों की मदद ली जा रही है। ऋषिगंगा घाटी में पहाड़ से गिरी लाखों मीट्रिक टन बर्फ के कारण ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक आयी बाढ़ से 13.2 मेगावाट ऋषिगंगा जल विद्युत परियोजना पूरी तरह तबाह हो गयी; जबकि बुरी तरह क्षतिग्रस्त 520 मेगावाट तपोवन-विष्णुगाड परियोजना की सुरंग में काम कर रहे लोग उसमें फँस गये। आपदा प्रभावित क्षेत्र के साथ ही अलकनंदा नदी तटों पर भी लापता लोगों की खोज की जा रही है।

उत्तराखण्ड से राज्यसभा सदस्य और भाजपा नेता अनिल बलूनी ने कहा कि हिमालय, ग्लेशियर और नदियों के बदलते स्वभाव के कारण आ रही आपदाओं को देखते हुए इसके लिए दीर्घकालिक अध्ययन कर उसके अनुरूप आपदा प्रबन्धन तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। बलूनी ने राज्यसभा में चमोली में आयी आपदा का मसला उठाते हुए कहा कि हाल के वर्षों में उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने, बादल फटने, भूस्खलन की घटनाएँ बढ़ी हैं। उन्होंने पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय से आग्रह किया कि आपदा की इन परिस्थितियों पर विस्तृत अध्ययन की आवश्यकता है। हिमालय, ग्लेशियर और नदियों के स्वभाव पर विस्तृत अध्ययन होना ज़रूरी है और फिर इसी के अनुरूप राज्य का आपदा प्रबन्धन तंत्र विकसित किया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि यह अध्ययन न सिर्फ उत्तराखण्ड, बल्कि देश-दुनिया के लिए भी लाभदायक होगा।

सरकारें रहीं निष्क्रिय

तमाम खतरों को देखते हुए विशेषज्ञ इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि पर्यावरण जैसे संवेदनशील मसले को अब अतिसंवेदनशीलता के साथ लिया जाए, ताकि हो रहे बदलावों के असर से इंसानी ज़िन्दगी बचायी जा सके। चमोली ज़िले में रैणी के ग्रामीणों ने इसी खतरे के चलते नैनीताल हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। गौमुख ग्लेशियर में झील बनने का मामला केदारनाथ आपदा के बाद सन् 2014 में दिल्ली के अजय गौतम की जनहित याचिका के माध्यम से नैनीताल हाईकोर्ट के समक्ष आया था। याचिकाकर्ता ने बताया कि उत्तराखण्ड में ढाई हज़ार के आसपास ग्लेशियर हैं। याचिकाकर्ता ने बताया कि राज्य सरकार के अध्ययन में पाया गया कि 50 से अधिक ग्लेशियर तेज़ी से आकार बदल रहे हैं, लेकिन इसके बाद भी सरकार ने कदम नहीं उठाये। याचिका में कहा गया कि यदि सरकार और सरकारी तंत्र नहीं जागा तो यह स्थिति और खराब होगी। ग्लेशियर पर्यावरणीय लिहाज़ से बेहद संवेदनशील हैं और पर्यावरणविदों का मानना है कि उत्तराखण्ड की नदियों पर बड़े बाँध बनाना काफी खतरनाक है; लेकिन फिर भी बन रहे हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, चमोली ज़िले में ग्लेशियर के टूटने की चेतावनी देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने 8 महीने पहले ही दे दी थी। वैज्ञानिकों ने चेताया था कि उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के कई इलाकों में ऐसे ग्लेशियर हैं, जो कभी भी टूट सकते हैं। उस समय जम्मू-कश्मीर के काराकोरम रेंज में स्थित श्योक नदीं का उदाहरण दिया गया था, जिसका प्रवाह एक ग्लेशियर ने रोक दिया। इससे वहाँ एक बड़ी झील अब बन गयी है। वैज्ञानिकों का कहना था कि झील में ज़्यादा पानी जमा होने से उसके फटने का खतरा है। वैज्ञानिकों ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर की काराकोरम रेंज सहित पूरे हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों ने नदी का प्रवाह रोक दिया है, जिससे कई झीलें बन गयी हैं, जो बहुत खतरनाक स्थिति है।

इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों के अनुसार उत्तराखण्ड के गढ़वाल क्षेत्र में उत्तरकाशी स्थित यमुनोत्री, गंगोत्री, डोकरियानी, बंदरपूँछ ग्लेशियर के अलावा चमोली ज़िले में द्रोणगिरी, हिपरावमक, बद्रीनाथ, सतोपंथ और भागीरथी ग्लेशियर स्थित है। सन् 2013 की भयंकर घटना के बाद से वैज्ञानिक लगातार हिमालय के खतरों पर शोध कर रहे हैं। अब तो देहरादून के भू-विज्ञान संस्थान के शोधकर्ताओं ने एक चेतावनी जारी करके कहा है कि ग्लेशियरों के कारण बनने वाली झीलें बड़े खतरे का कारण बन सकती हैं। वैज्ञानिकों ने उत्तराखण्ड के श्योक नदी समेत हिमालयी नदियों पर जो अध्ययन किया है, वह ‘इंटरनेशनल जर्नल ग्लोबल एंड प्लेनेटरी चेंज’ में भी प्रकाशित हुआ है। विशेषज्ञ हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियर की स्थिति की लगातार निगरानी पर ज़ोर देते हैं। उनका कहना कि समय रहते चेतावनी का सिस्टम विकसित करना ज़रूरी है, ताकि निचले इलाकों को आबादी को किसी भी नुकसान से बचाया जा सके। इस दिशा में काम चल रहा है।

ठण्डे बस्ते में सुझाव व रिपोट्र्स

उत्तराखण्ड में प्रदेश सरकार ने ग्लेशियरों को लेकर एक विशेषज्ञ समिति गठित की थी, जिसने 7 दिसंबर, 2006 को अपनी रिपोर्ट में कई तात्कालिक और दीर्घकालिक सिफारिशें की थीं। उस समय के मुख्य सचिव एन.एस. नपलच्याल ने प्रदेश सरकार के आपदा प्रबन्धन और पुनर्वास विभाग से कहा था कि यह रिपोर्ट ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरों को लेकर बहुत उपयोगी रिपोर्ट है और सरकार इन सिफारिशों के आधार पर ठोस कदम उठाएगी।

तात्कालिक सिफारिशों के तौर पर सबसे पहले प्रदेश के उन आबाद इलाकों का चिह्नीकरण किया जाना था, जो ग्लेशियरों से पैदा होने वाले खतरे से प्रभावित हो सकते हैं। इसके साथ ग्लेशियरों के पीछे खिसकने के हाइड्रोलॉजिकल और क्लाइमेटोलॉजिकल आँकड़े जमा किये जाने थे।

 ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, इन आँकड़ों के आधार पर आने वाली बाढ़ और ग्लेशियरों से पानी के बहाव की निगरानी की जानी थी। यही नहीं, सिफारिश यह भी थी कि प्रदेश में स्थापित होने वाले हर हाइड्रो प्रोजेक्ट के लिए नदियों के उद्गम क्षेत्र में मौसम केंद्र स्थापित करना और नदियों के प्रवाह की निगरानी (मॉनिटरिंग) के लिए केंद्र स्थापित करना ज़रूरी हो और ये आँकड़े प्रदेश सरकार को नियमित मिलते रहें। भागीरथी घाटी की केदार गंगा और केदार धाम के आसपास की ग्लेशियल झीलों की लगातार निगरानी हो और उससे आने वाले पानी की निगरानी भी हो।

रिपोर्ट में सिफारिश की गयी थी कि डीएमएमसी स्कूल और कॉलेज आदि में ग्लेशियरों से जुड़ी आपदाओं व दुर्घटनाओं के प्रति बच्चों और स्थानीय लोगों को सचेत किया जाए। कक्षा 9 से लेकर 12 तक की पाठ्य पुस्तकों में ग्लेशियरों या अन्य कारणों से आने वाली आपदाओं के बारे में जानकारी दी जाए। यह भी कहा गया था कि गौमुख के गंगोत्री ग्लेशियर व सतोपंथ ग्लेशियरों में पर्यटकों पर कड़ा प्रतिबन्ध लगाया जाए। इसके लिए पर्यावरण संरक्षण कानून-1986 के प्रावधानों की मदद ली जा सकती है। इसके साथ नियमित ग्लेशियल वुलेटिन को ऑडियो या वीडियो मीडिया के ज़रिये जारी करने कोशिश की जाए।

विशेषज्ञ समिति ने दीर्घकालिक सिफारिशें भी की थीं, जिनमें इसमें कहा गया था कि ग्लेशियरों और ग्लेशियल झीलों के बड़े परिमाण यानी 1:25000 के मानचित्रों के साथ की इनवेंट्री बनायी जाए। इसमें उनकी पहचान भी स्पष्ट की जाए। उनकी स्नोकवर मैपिंग की जाए यानी बर्फ की चादर का नक्शा बनाया जाए और जाड़ों में स्नोकवर पैटर्न का आकलन किया जाए।

निगरानी सिस्टम को मज़बूत करने के लिए एडब्ल्यूएस नेटवर्क के ज़रिये पर्यावरण और बर्फ, ग्लेशियल झीलों, उनके बनने और सम्भावित विभीषका की निगरानी हो। बर्फ के गलने और उस पर जल दाब व मलबे के भार का आकलन हो।

रिपोर्ट में इस बात की ज़ोर देकर सिफारिश की गयी थी कि ग्लेशियरों के सिकुडऩे, उनकी द्रव्यमान मात्रा (मास वॉल्यूम) में हो रहे बदलाव और स्नोलाइन की निगरानी हो, ताकि पर्यावरण की बेहतर समझ पैदा हो सके। ग्लेशियरों की वजह से बाँधों उनके जलाशयों और जल विद्युत परियोजनाओं की सुरक्षा को पैदा होने वाले खतरों का पहले से आकलन कर लिया जाए। यही नहीं प्रभावी योजना और प्रबन्धन के लिए सभी हिमालयी ग्लेशियरों की जानकारी को जियोग्राफिकल इनफॉरमेशन सिस्टम (जीआईएस) के ज़रिये संकलित और एकीकृत किया जाए। आज तक इस रिपोर्ट और उसकी सिफारिशों पर कुछ नहीं हुआ और यह रिपोर्ट आज उत्तराखण्ड सरकार की आलमारियों में कहीं धूल फाँक रही है।

हिमाचल में भी अलर्ट

हिमाचल अक्सर बादल फटने की घटनाओं से पीडि़त रहा है। यह भी पर्यावरण के असन्तुलन का ही नतीजा है। अब उत्तराखण्ड के चमोली में ग्लेशियर टूटने से हुई बड़ी तबाही के बाद हिमाचल प्रदेश में भी ग्लेशियर टूटने के खतरे को लेकर अलर्ट जारी किया गया है। उत्तराखण्ड और हिमाचल में ग्लेशियर की संख्या लगभग समान है।

हालाँकि हिमाचल में ग्लेशियरों का खतरा कम माना जाता है, जहाँ बादल फटने की घटनाएँ ज़रूर बड़े पैमाने पर तबाही मचाती रही हैं। अब तक हज़ारों लोगों ने इन घटनाओं में अपनी जान गँवायी है। वैसे दोनों राज्यों में ग्लेशियर के खतरे वाले जोन और भौगोलिक परिस्थितियाँ भिन्नता है। हिमाचल के लाहुल स्पीति के छोटा शिगरी और जिंगजिंगबार (पटसेउ) ग्लेशियर पर शोध करने वाले केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला में बतौर पर्यावरण विज्ञान और ग्लेशियर के जानकार असिस्टेंट प्रोफेसर अनुराग कहते हैं कि उत्तराखण्ड और हिमाचल में ग्लेशियर टूटने से होने वाले खतरों में काफी अन्तर है। उत्तराखण्ड में ग्लेशियरों के आसपास लोग बसे हैं। उत्तराखण्ड की घाटियाँ सँकरी हैं और यहाँ लोग नदी-नालों के आसपास अधिक बसे हैं। लाहुल स्पीति और किन्नौर आदि क्षेत्रों में ऐसा नहीं है। लाहुल के अधिकतर ग्लेशियर टूटकर चंद्राभागा नदी में गिरते हैं। यहाँ लोग नदी किनारे नहीं बसे हैं और आबादी भी कम है। क्षेत्रफल अधिक होने से गाँव दूर-दूर बसे हैं।

शोधकर्ता और विशेषज्ञ कहते हैं कि ग्लेशियर तब अधिक टूटते हैं, जब पिघलकर पानी उसके अन्दर चला जाता है और उसकी स्टोरेज रडार सर्वे से पता नहीं चल पाती है। अनुराग कहते हैं कि ग्लेशियर के खतरे से बचने के लिए लोगों को जोखिम क्षेत्र (रिस्की जोन) में घर नहीं बनाने चाहिए। उनके मुताबिक, जोखिम क्षेत्रों के साथ बहने वाले नदी-नालों से भी लोगों को दूर बसना चाहिए।

बर्फबारी के बाद अब सेंटर फॉर स्नो एंड एवलॉन्च अध्ययन इस्टैब्लिशमेंट (सासे) ने हिमाचल के कुल्लू ज़िले के खनाग-जलोड़ी दर्रे से सोझा क्षेत्र के साथ सोलंगनाला, सोलंग-धुंधी-व्यासकुण्ड, अटल टनल के साउथ पोर्टल, कोकसर-छतडू-बातल, काजा-ताबो- समदो, कृपा- कड़छम-सांगला- छितकुल, नारकंडा से ठियोग, क्लाथ, नेहरूकुण्ड-कुलंग- पलचान- कोठी, कोठी-रोहतांग दर्रा-कोकसर-सिस्सू-तांदी, तांदी-केलांग-दारचा, दारचा-जिंगजिंगबार, अटल टनल के नॉर्थ पोर्टल- सिस्सू-तांदी, जिंगजिंगबार-बारालाचा-सरचू, सरचू- लाचूंगला दर्रा, तंगलंगला, तांदी-कीर्तिंग- थिरोट-कुकमसेरी- त्रिलोकीनाथ, उदयपुर, थमोह-किलाड़, किलाड़-बरवास, गाहर-कालावन-रानीकोट और ट्रैक रूट मणिमेहश में हिमखण्ड गिरने के खतरे की चेतावनी जारी की है।

मनाली से अटल टनल के मध्य और टनल से ज़िला लाहुल स्पीति में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ अक्सर हिमस्खलन आते रहते हैं और आजकल भी इन स्थानों पर हिमस्खलन आने की सम्भावानाएँ बनी हुई हैं। ऐसे में प्रशासन ने सभी लोगों की सुरक्षा को देखते हुए अटल टनल की और जाने वाले वाहनों पर रोक लगायी हुई है। उत्तराखण्ड में चमौली में ग्लेशियर टूटने के बाद आये सैलाब के बाद हिमाचल सरकार भी सतर्क हुई है।

हिमालय में ग्लेशियर जलवायु परिवर्तन परिदृश्य के तहत पीछे हट रहे हैं। यह एक वैश्विक घटना है। समय बीतने के साथ कुछ हिम झीलें (ग्लेशियल लेक्स) अन्तिम पड़ाव (टर्मिनस) के पास अक्सर एक साथ जमा होती हैं और हिम (बर्फ) में आया हुआ मलबा (ग्लेशियल मोरेन) द्वारा क्षतिग्रस्त बड़ी हिम झीलों का निर्माण होता है। ढीले बोल्डर, बजरी, रेत के मिश्रण होते हैं; जिनमें अक्सर बर्फ होती है, जो इन बाँधों में अंतर्निहित कमज़ोरी होती है। ये झीलें हिमालय के ग्लेशियरों को कवर करती हैं, जिसमें ग्लेशियर का निचला हिस्सा बहुत धीरे-धीरे चलता है और कई बार स्थिर रहता है। इसे हिम झील बाढ़ का प्रकोप (ग्लेशियल लेक आउटबस्र्ट फ्लड) कहा जाता है। इससे भारी मात्रा में जल स्राव हो सकता है, जिससे बहाव क्षेत्र में पडऩे वाले क्षेत्रों में क्षति हो सकती है। झील अचानक भंग हो सकती है, जिसका कारण थूथन, हिमस्खलन / भूस्खलन की कटाई, मोराइन बाँध में पाइपिंग, जलग्रहण में बादल फट जाना या एक बड़ा भूकम्प आदि कारण हो सकते हैं।

रंजीत रथ, डीजी, जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया

ग्लेशियरों की गहराई मापने की योजना

हिमालय पर्वतमाला पर भी वैश्विक तापमान (ग्लोबल वार्मिंग) का असर पडऩे के मद्देनज़र पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय क्षेत्र में ग्लेशियरों की गहराई मापने की योजना बना रहा है, ताकि वहाँ उपलब्ध जल की मात्रा का आकलन किया जा सके। मंत्रालय में सचिव एम. राजीवन के मुताबिक, इस सिलसिले में परियोजना अगले साल गर्मियों के मौसम में शुरू होगी। मंत्रालय के तहत आने वाले राष्ट्रीय ध्रुवीय और समुद्री अनुसंधान केंद्र (एनसीपीओआर) के निदेशक एम. रविचंद्रन के मुताबिक, देश के सुदूर और अत्यधिक ऊँचाई पर स्थित अनुसंधान केंद्र ‘हिमांश’ भी हिमालय जलवायु का अध्ययन कर रहा है। एनसीपीओआर इस परियोजना का क्रियान्वयन करेगा। इसकी स्थापना सन् 2016 में हुई थी। उन्होंने कहा कि पहले चंद्रा नदी बेसिन में सात ग्लेशियरों का अध्ययन करने की योजना है। चंद्रा नदी, चिनाब नदी की एक बड़ी सहायक नदी है; जबकि चिनाब, सिंधु (नदी) की सहायक नदी है। हिमालय के ग्लेशियर वहाँ (हिमालय) से निकलने वाली नदियों के जल के विशाल स्रोत हैं। हिमालय से निकलने वाली नदियाँ सदानीरा हैं, जो भारत के उत्तरी हिस्से के मैदानी भाग में कई करोड़ लोगों के लिए एक जीवनदायिनी हैं। रविचंद्रन ने कहा कि ग्लेशियरों की गहराई मापने का उद्देश्य उसके घनत्व का पता लगाना है। इससे हमें जल की उपलब्धता समझने में मदद मिलेगी। साथ ही यह भी समझने में मदद मिलेगी कि ग्लेशियर बढ़ रहे हैं या सिकुड़ रहे हैं। उनके मुताबिक, रडार प्रौद्योगिकी का उपयोग किया जाएगा, जिसमें सूक्ष्म तरंग सिग्नल का इस्तेमाल होता है। यह बर्फ की मोटी परत को भेदते हुए उसके पार जा सकती है और चट्टानों तक पहुँच सकती है, जहाँ की तस्वीरें उपग्रह भी नहीं ले सकते हैं। बाद में सिग्नल के चट्टानों पर परावर्तित होने के बाद गहराई समझने में मदद मिलेगी। रविचंद्रन ने कहा कि अमेरिका और ब्रिटेन के पास यह प्रौद्योगिकी है। हम इस प्रौद्योगिकी की मदद ले रहे हैं।

खतरनाक हैं ग्लेशियरों से बनी झीलें

उत्तराखण्ड में ग्लेशियर की वजह से बाढ़ की घटना ने फिर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बताया गया है कि इस घटना के बाद वहाँ ऋषिगंगा नदी की झील बन गयी है। उत्तराखण्ड में ग्लेशियर टूटने से भीषण सैलाब की घटना के बीच एक खास तथ्य यह है कि कुछ ही महीनों पहले हिमालय क्षेत्र के ग्लेशियरों में बन रही झीलों से खतरा शोधकर्ताओं ने भाँप लिया था और इसके बारे में चेताया भी था। शोधकर्ताओं ने कहा था कि हिमालय में कई ग्लेशियल झीलें बन रही थीं, जिनमें से 47 को बेहद खतरनाक मानकर चेतावनी दी गयी थी कि ये फट सकती हैं; जिससे नेपाल, चीन और भारत में बाढ़ और सैलाब जैसे हालात हो सकते हैं। तीनों देशों में कोशी, गंडकी और करनाली नदियों के बेसिन में कुल 3624 ग्लेशियल झीलें देखी गयी थीं। इन शोधकर्ताओं ने देखा कि इन झीलों में से 1410 ऐसी थीं, जो 0.02 वर्ग किलोमीटर या उससे ज़्यादा दायरे में फैली थीं, और कहा गया था कि इनमें से भी 47 झीलों के लिए फौरन शमन (निराकरण) कार्रवाई ज़रूरी थी। नेपाल में संयुक्त राष्ट्र के विकास कार्यक्रम और इंटिग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट के अंतर्राष्ट्रीय केंद्र आईसीआईएमओडी के विशेषज्ञों ने मिलकर यह रिसर्च की थी, जिसमें देखा गया कि 47 में से एक खतरनाक झील भारतीय क्षेत्र में और 25 तिब्बत तथा 21 नेपाल में थीं।

ग्लेशियरों की झीलों का बढऩा पहाड़ी आबादी और क्षेत्रों के लिए कितना बड़ा खतरा है, यह 2011 की एक अध्ययन से समझा जा सकता है। इसमें पाया गया कि नेपाल में पिछले चार दशक में 24 बार इन झीलों की वजह से बाढ़ आयी। जनजीवन, सम्पत्ति, इंफ्रास्ट्रक्चर के तौर पर करोड़ों का नुकसान इससे होता रहा है। पहले भी कई अध्ययनों में यह कहा जा चुका है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते हिमालय क्षेत्र में जो ग्लेशियर जिस रफ्तार से पिघल रहे हैं, 2100 तक तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाएगा और दो-तिहाई हिमालयी ग्लेशियर पिघल चुके होंगे। ग्लेशियरों के पिघलने से झीलें बढ़ती हैं या पहले से मौज़ूद झीलों का दायरा फैलता है। इन्हीं ग्लेशियर झीलों में हाइड्रोस्टैटिक दबाव के चलते भयानक बाढ़ तक की स्थितियाँ बहुत कम समय के भीतर बन जाती हैं। नासा ने पिछले साल (2020) के एक अध्ययन में पाया कि दुनिया भर में सन् 1990 से सन् 2018 के बीच ग्लेशियर झीलों की संख्या 50 फीसदी तक बढ़ गयी है। इसमें खतरनाक बात यह है कि गंगा नदी को बनाने वाले तीन नदियों के बेसिन में ग्लेशियर झीलों का दायरा सन् 2000 से सन् 2015 के बीच 179 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 195 वर्ग किलोमीटर हो गया है। जिन 47 झीलों को बेहद खतरनाक बताया गया, उनमें से 31 को शोधकर्ताओं ने पहली रैंक पर, 12 को दूसरी और 4 को तीसरी रैंक पर रखा, ताकि इनसे पैदा होने वाले खतरे को प्राथमिकता से समझा जा सके। शोधकर्ताओं की रिपोर्ट की मानें तो गंगा की सहायक नदी कोशी के बेसिन में ग्लेशियर झीलों के भयानक हॉटस्पॉट बन रहे हैं। इसी बेसिन में सबसे ज़्यादा करीब 42 खतरनाक झीलें मौज़ूद हैं। कोशी बेसिन में इन झीलों को दायरा 2000 से 2015 के बीच 12 फीसदी फैल गया है, तो गंडकी के बेसिन में 8 फीसदी और करनाली के बेसिन में 1.27 फीसदी का इज़ाफा हुआ है। आँकड़ों को ऐसे भी समझा जा सकता है कि सन् 2000 की तुलना में सन् 2015 में करीब 50 झीलें कम हुईं। लेकिन ये झीलें खत्म न होकर संयुक्त हो गयीं और झीलों का कुल दायरा बढ़ गया। शोधकर्ताओं ने जिन खतरनाक झीलों के बारे में जाना, उनमें से 50 फीसदी झीलें तिब्बत के क्षेत्र में हैं। इससे पहले चीन के शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन जून 2020 में की थी, उसमें तिब्बत की 654 ग्लेशियर झीलों में से 246 को खतरनाक माना था।

इन झीलों की निगरानी करते हुए इनसे खतरे को भाँपने के लिए विशेषज्ञों ने देशों से मिलकर काम करने की ज़रूरत बतायी। भारत, चीन और नेपाल के बीच ग्लेशियर झीलों को लेकर रिसर्च और निगरानी सहयोग को बढ़ाने के आईसीआईएमओडी के प्रयासों को देशों के बीच चल रहे सियासी तनावों से झटका लगता रहा है। सन् 2007 में जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल (आईपीसीसी) ने कहा था कि हिमालय का क्षेत्र डाटा के लिए ब्लैक होल (काल कोठरी) बन गया है, जबकि यहाँ वैश्विक औसत से ज़्यादा तेज़ी से तापमान बढऩे का असर दिख रहा है।

ग्लेशियर और बादल फटना

भारत में पानी के बड़े स्रोतों के रूप में ग्लेशियर मौज़ूद हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है, जिस कारण ग्लेशियर भी पिघल रहे हैं। भूगर्भीय हलचल जैसे भूकम्प आदि से भी हिमालय के अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के हिमखण्ड टूटकर नीचे की ओर बहते हैं। उनके साथ चट्टानें भी बहकर आ जाती हैं। एक स्थान पर यह बहाव रुक जाता है और झील का रूप ले लेता है। इसे ग्लेशियर झील कहा जाता है। ग्लेशियर झीलों में जब पानी का दबाव बढ़ जाता है, तो एक समय ऐसा आता है, जब यह उस दबाव को सहन नहीं कर पाती और फट जाती है। ऐसे में जल प्रलय होती है, जिसकी ज़द में आने वाली हर चीज़ तबाह हो जाती है। अगर नदी पर कोई बाँध या बिजली परियोजना है, तो नुकसान और ज़्यादा बढ़ जाता है। भारत में बहुुत-सी ग्लेशियर झीलें नदियों के किनारे पर ही स्थित हैं। ऐसे में यहाँ जब भी ऐसी आपदा आती है, भारी नुकसान झेलना पड़ता है। बादल फटने से भी जल प्रलय की कई घटनाएँ भारत में हो चुकी हैं। बादल फटने की सबसे ज़्यादा घटनाएँ हिमाचल प्रदेश में हुई हैं। जब भी कोई बादल फटता है, तो लाखों लीटर पानी एक साथ गिरता है, जिससे उस क्षेत्र में बाढ़ आ जाती है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, बादल फटने से उस क्षेत्र में 75 एमएम से लेकर 100 एमएम प्रतिघंटे की दर से बारिश होती है। भारत में बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से उठे मानसून के बादल जब उत्तर की ओर बढ़ते हैं, तो हिमालय उनके लिए अवरोधक का काम करता है। हिमालय से टकराने के बाद बादल फट जाते हैं। कई बार गर्म हवाओं से टकराव होने के कारण भी बादल फटने की घटनाएँ सामने आयी हैं। 26 जुलाई, 2005 में मुम्बई में गर्म हवा के कारण ही बादल फटने की त्रासदी हुई थी, जिसमें 50 से ज़्यादा लोकल ट्रेनों और 950 बेस्ट बसों के क्षतिग्रस्त होने समेत भारी नुकसान हुआ था। वैज्ञानिक अध्ययनों से ग्लेशियर झीलों की स्थिति का पता लगाकर यह अनुमान लगाना सम्भव है कि अगर कभी ग्लेशियर झील फटी, तो कहाँ तक? तथा कितना क्षेत्र और कितनी आबादी उससे प्रभावित होगी? नयी परियोजनाओं में वैज्ञानिक उन उपायों को लागू भी कर रहे हैं, जिससे अगर कोई परियोजना इन प्राकृतिक आपदाओं की ज़द में आ जाए, तो भी नुकसान कम-से-कम रखा जा सके। हालाँकि चुनौतीपूर्ण पहलू यह है कि बादल फटने का पता लगाना या इसे रोकने की कोई तकनीक नहीं है। इस कारण ऐसी आपदाओं से बचने के लिए बाढ़ प्रबन्धन ही एकमात्र उपाय है।