इतिहास से खिलवाड़ की राजनीति

भारत-पाकिस्तान के बीच लम्बे युद्ध के बाद 26 मार्च, 1971 में पाकिस्तानी सेना ने भारत के सामने समर्पण किया था और बांग्लादेश आज़ाद हुआ था। बांग्लादेश के पाकिस्तान से मुक्ति के 50 साल पूरे होने पर बांग्लादेश में जश्न मनाया जा रहा है। भारत के बिना बांग्लादेश की स्वतंत्रता नामुमकिन थी। इसलिए भारत की केंद्र सरकार हर साल 16 दिसंबर को विजय दिवस मनाती है। दरअसल इस दिन भारतीय सेना ने उस समय के पाकिस्तान (अब के पाकिस्तान और बांग्लादेश) से उसकी कूटनीतिक चालों और हमलावर नीति से निपटने के लिए युद्ध शुरू किया था। बांग्लादेश की आज़ादी में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की भूमिका को इतिहास कभी विस्मृत नहीं कर सकेगा। इंदिरा के इस साहस की वजह से उन्हें आयरन लेडी (लौह महिला) कहा गया। लेकिन इस बार भारत सरकार के विजय दिवस कार्यक्रम में इस साहसी व्यक्तित्व आयरन लेडी के इस महती योगदान की चर्चा नहीं की गयी।

सवाल यह है अपने पूर्ववर्ती शासकों को मोदी सरकार क्यों भूल जाती है? उसे इस मामले में अपने पूर्ववर्ती राजनेताओं से सीखने की ज़रूरत है। लेकिन देखने में आ रहा है कि अपने महिमामंडन और आत्ममुग्धता के लिए ऐसा प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, कि 2014 से पहले कुछ हुआ ही नहीं। यह कोई पहला मौक़ा नहीं है, जब मोदी सरकार पर इस तरह के सवाल उठ रहे हैं। इतिहास को नये तरीक़े से बताया जा रहा है। आख़िर क्यों सन् 1947 के बाद दक्षिण एशिया का मानचित्र बदलने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के योगदान को मोदी सरकार स्वीकार नहीं कर रही है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते वर्ष 26 मार्च को बांग्लादेश की आज़ादी की 50 वीं सालगिरह के जश्न में शामिल हुए थे। मोदी ने अपने भाषण में सिर्फ़ इतना ही कहा कि 1971 में इंदिरा गाँधी ने क्या योगदान दिया, यह सबको पता है।

लेकिन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और उनकी सरकार की उदारता को याद करते हुए कहा कि उन्होंने बांग्लादेश के एक करोड़ शरणार्थियों को आवास मुहैया कराया। भारत की ओर से सन् 1971 में बांग्लादेश को मान्यता देने की याद में 6 दिसंबर को मनाये जाने वाले मैत्री दिवस के रूप में राजनीयिक सम्बन्धों की स्थापना की स्वर्ण जयंती भी मना रहे हैं।

पूर्व सेना अध्यक्ष वी.पी. मलिक कहते हैं कि बांग्लादेश के बनने में भारतीय राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही और डिप्लोमेट के बीच बेहतर अडंरस्टैडिंग मददगार बनी। मिलकर प्लान बनाया गया और उसे बख़ूबी अंजाम दिया गया। सेना के प्रमुख फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ अपने प्रोफेशनेलिज्म से ही राजनीतिक नेतृत्व से अपनी बात मनवाने में सफल हुए। वी.पी. मलिक ने ‘तहलका’ को बताया कि हमारे लिए नेशनल इंट्रस्ट बेहद अहम होते हैं। लाखों रिफ्यूजी को वापिस भेजना एक चुनौती होता है। लेकिन बांग्लादेश के जन्म के समय पैदा हुई लाखों-लाख शरणार्थियों की समस्या का हल राजनीतिक नेतृत्व से  सम्भव हो सका। भारत-पाकिस्तान की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले एयर कॉमोडोर जे.एल. भार्गव कहते हैं कि हमारा लक्ष्य एक दम साफ़ था। हमने उसी पर काम किया भारत ने पहले लड़ाई की शुरुआत नहीं थी। हमारे सामने पूर्वी पाकिस्तान से देश भर में आये शरणार्थी एक बड़ी चुनौती थे। इसी के मद्देनज़र हमें जो टॉस्क मिला था, उसे पूरा किया गया। 16 दिसंबर को भारत ने जीत हासिल की। बता दें कि 26 मार्च, 1971 को बांग्लादेश अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है। लेकिन सही मायने में आज़ादी 16 दिसंबर, 1971 को, 13 दिन का युद्ध लड़कर भारत ने दिलायी।

दरअसल भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी को भारत का समर्थन देना और इन सबके बीच चली गयी कूटनीति प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की गाथा थी। ब्रिटिश हुकूमत से अगस्त, 1947 में आज़ादी मिलने के साथ जब देश का बँटवारा हुआ था, तब दो पाकिस्तान अस्तित्व में आये थे, एक पश्चिमी पाकिस्तान, जिसे अब पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है। दूसरा पूर्वी पाकिस्तान जिसे बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के बीच की दूरी तो लगभग 2000 किलोमीटर की थी; लेकिन दोनों के बीच सांस्कृतिक दूरियाँ गहरी थीं। पश्चिमी पाकिस्तान में उर्दू और पंजाबी प्रमुख भाषा है, जबकि पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली भाषा थी। मार्च, 1971 तक आवामी लीग का कॉडर सड़कों पर था। प्रदर्शन हो रहे थे। हड़तालें चल रही थीं। पाकिस्तान की सेना खुलेआम बर्बरता कर रही थी। लाखों-लाख शरणार्थी शरण पाने के लिए भारत चले आये। उस समय तक पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाने वाला यह क्षेत्र पश्चिमी पाकिस्तान के दमन का केंद्र बन गया था। भारत ने बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर बांग्लादेश को पाकिस्तान के ज़ुल्मों से मुक्त किया और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश एक अलग देश के रूप में उभरा।

सन् 1971 का युद्ध भारत के लिए सिर्फ़ सैन्य जीत नहीं थी, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से बहुत बड़ी सफलता थी। सिर्फ़ 24 साल पुराने आज़ाद भारत ने पाकिस्तान के ताक़तवर दोस्त अमेरिका और चीन को हैरान कर दिया था। हालाँकि मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने अप्रैल, 1971 की शुरुआत में ही बांग्लादेश की अस्थायी सरकार की घोषणा कर दी थी। भारत सरकार ने 6 दिसंबर को इस सरकार के अस्तित्व को औपचारिक रूप से मान्यता दी। 16 दिसंबर को लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी की अगुवाई में ईस्ट पाकिस्तान आर्मी ने भारतीय सेना के समक्ष समर्पण कर दिया। इसके कुछ हफ़्तों के बाद शेख़ मुजीबुर रहमान को जेल से रिहा किया गया।

भारत ने शुरुआत से ही अपना समर्थन आवामी लीग और मुजीबुर रहमान को दिया था। पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सीधे दख़लअंदाज़ी करने का फ़ैसला नहीं लिया। हालाँकि भारतीय सेना की पूर्वी कमांड ने पूर्वी पाकिस्तान के ऑपरेशन्स की ज़िम्मेदारी सँभाल ली थी।

15 मई, 1971 को भारतीय सेना ने ऑपरेशन जैकपॉट लॉन्च किया और इसके तहत मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को ट्रैनिंग, पैसा, हथियार और साजो-सामान की सप्लाई मुहैया कराना शुरू किया। मुक्ति वाहिनी पूर्वी पाकिस्तान की मिलिट्री, पैरामिलिट्री और नागरिकों की सेना थी, इसका लक्ष्य पूर्वी पाकिस्तान की आज़ादी था।

भारत के लिए सन् 1971 का युद्ध जीतना इसलिए सम्भव हो पाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी ने अपने सैन्य चीफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पर विश्वास किया था। अप्रैल, 1971 में इंदिरा गाँधी पूर्वी पाकिस्तान के हालात देखते हुए कुछ सैन्य क़दम उठाना चाहती थी। लेकिन मानेकशॉ ने इंदिरा गाँधी के मुँह पर इसके लिए मना कर दिया था। एक कैबिनेट बैठक के दौरान मानेकशॉ से इंदिरा गाँधी ने कुछ करने के लिए कहा था। लेकिन मानेकशॉ ने चीन के हमले की आशंका, मौसम की वजह से बाधाओं और सेनाओं की सीमाओं पर तैनाती का हवाला देते हुए उनसे कुछ समय माँगा और इंदिरा गाँधी ने मानेकशॉ पर भरोसा किया।

इंदिरा गाँधी की रणनीति थी कि युद्ध छोटा हो; लेकिन अगर लड़ाई लम्बी खिंचती है, तो दुनिया को पहले से ही पाकिस्तान की करतूत पता होनी चाहिए। इंदिरा गाँधी ने 21 दिन का जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम और अमेरिका का दौरा करके पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार का ज़िक्र किया। इतना ही नहीं, दुनिया के कई नेताओं को ख़त लिखकर भारत की सीमा पर चल रहे हालात की जानकारी भी दी।

भारत की 1971 की जीत सिर्फ़ सैन्य लिहाज़ से ही बड़ी नहीं थी, बल्कि इंदिरा गाँधी ने अपनी कूटनीति का लोहा मनवाया था। अपनी रणनीति से इंदिरा गाँधी ने सिर्फ़ 13 दिन में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे और मानवीयता दिखाते हुए लाखों-लाख शरणार्थियों को पनाह भी दी थी।

उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के सबसे भरोसेमंद सचिव परमेश्वर नारायण हक्सर थे, जिन्हें पी.एन. हक्सर के नाम से जाना जाता था। इंदिरा गाँधी और हक्सर दोनों कश्मीरी पंडित थे और दोनों इलाहाबाद से थे। उनकी जीवनी लिखने वाले लेखकों ने पी.एन. हक्सर को सिर्फ़ इंदिरा गाँधी के आँख-कान के रूप में ही नहीं, बल्कि उने एक अल्टर इगो (अनन्य मित्र) के रूप में भी वर्णित किया है।

बांग्लादेश को मुक्त कराने में इंदिरा गाँधी की कूटनीति में सबसे महत्त्वपूर्ण मोड़ सोवियत रूस के साथ भारत का मैत्री समझौता था। इंदिरा गाँधी ने भारत की गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विचारधारा से समझौता करते हुए यह क़दम उठाया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि रूस के साथ भारत के 20 साल के समझौते की पृष्ठभूमि में बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध ही था।

रूस से समझौते के बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का सामना करना भी पड़ा था। सवाल उठा था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के चैम्पियन के तौर पर भारत ऐसे कैसे कर सकता है? निर्वासित बांग्लादेशी सरकार का खुला समर्थन करना तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के राजनीतिर करियर के सबसे बड़े फ़ैसलों में से एक था। इंदिरा गाँधी के इस फ़ैसले में कूटनीति, विवेक, संयम और कौशल की छाप थी; जिसने एक स्वतंत्र सम्प्रभु राष्ट्र के जन्म को सम्भव किया था।