इंसान को अच्छा बनाने के लिए हैं मज़हब

मैं कई बार सोचता हूँ कि अगर दुनिया में एक ही मज़हब होता, तो शायद कई झगड़े होते ही नहीं। फिर सोचता हूँ कि मज़हबों ने तो इंसानों को अच्छा बनने की ही तालीम दी है, फिर भी इंसान अच्छा नहीं बन पाया। हर आदमी में कोई-न-कोई बुराई आखिरकार रह ही गयी। आखिर इसके पीछे की वजह क्या है? बड़े-बड़े संत इस बात को कहते-कहते चले गये कि ईश्वर एक ही है। सभी मज़हबों ने भी इंसान को सच्चाई, अच्छाई और प्रेम का रास्ता अपनाने को कहा है। सभी मज़हब इंसानियत को ही सबसे बड़ा धर्म बताते हैं। मगर जिसे भी मौका मिला, उसने निजी स्वार्थों के चलते मज़हबों को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है। आज के अधिकतर सियासतदानों से लेकर फकीर तक अपने-अपने मज़हबों का दुरुपयोग कर रहे हैं। मज़हब तो इंसान को अच्छा बनाने के लिए हैं, फिर मज़हबों का सहारा लेकर इंसान बुरा क्यों होता जा रहा है? इसका सीधा-सा जवाब है- सुख की चाह, लालच और निजी स्वार्थ के लिए।

मेरे बड़े गुरु जी मरहूम रईस बरेलवी साहब से जुड़े ऐसे ही दो वािकयात मुझे याद आते हैं। गुरु जी सभी मज़हबों और मज़हब वालों की इ•ज़त करते थे। उन्हें हर मज़हब की बहुत अच्छी जानकारी थी। नमाज़ बढऩा अमूमन उनकी फितरत में नहीं था। वे जितने शौक से मीठी ईद मनाते थे, उतने ही आनन्द से होली खेलते और दीवाली मनाते। मन्दिर का प्रसाद हो या गुरद्वारे का लंगर, उन्हें सब बराबर थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण पर कई गीत और भजन लिखे हैं। घर में कई देवी-देवताओं की तस्वीरें रखते थे। भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी उनके पास हमेशा रहती थी। भगवान राम पर भी उन्होंने गीत लिखे हैं। शायरी के बड़े उस्तादों में शुमार गुरु जी के शागिर्दों में हिन्दू-मुस्लिम सभी शामिल थे। हालाँकि यह अलग बात है कि उनके कई शागिर्द थोड़ा-सा मकाम पाने के बाद आज अपने से उनका नाम भी नहीं जोड़ते। एक बार मुझसे किसी ने कहा कि हम एक कार्यक्रम कर रहे हैं। आप अपने उस्ताद को मना लीजिए, हम उनका सम्मान करना चाहते हैं। मैंने कहा भी कि आप उन्हें निमंत्रण दे दीजिए, वे आ जाएँगे। वह सज्जन बोले- नहीं, वे बहुत बड़े शायर हैं। हम उन्हें बहुत कुछ नहीं दे सकेंगे; इसलिए हमारी हिम्मत नहीं हो रही है। कृपया आप ही मना लें। हमें पता है कि वे आपकी बात नहीं टालेंगे। हाँ, इतना ज़रूर है कि उन्हें लाने-ले जाने का इंतज़ाम कर देंगे और मंच पर सम्मान करेंगे। हालाँकि उन महाशय की बार-बार सम्मान की बात मुझे अच्छी नहीं लग रही थी; क्योंकि जो खुद सर्वथा सम्मानित हों, उन्हें एकाध मंच पर फूल-माला पहनाकर आप उनके सम्मान में भला क्या इज़ाफा कर सकेंगे? लेकिन फिर भी मैंने हाँ कह दी। कार्यक्रम का दिन आया। मैं सुबह से ही गुरु जी के घर था। वहीं भेजन किया और जब समय आया, तो कोई लेने नहीं आया। उन दिनों लैंडलाइन फोन हुआ करते थे। मैंने गुरु जी के घर से उन महाशय के घर फोन किया, तो पता चला कि वो कार्यक्रम में हैं। सूचना भेजने को कहा, तो कोई आधे घंटे बाद सूचना मिली कि आप उन्हें लेकर आ जाइए, मेहरबानी होगी। मुझे काफी गुस्सा आया। लेकिन गुरु जी बहुत शान्त स्वभाव के थे; सो बोले- ‘कोई नहीं बेटे! कार्यक्रम में व्यस्तताएँ होती हैं। चलो हम चलते हैं।’ जब हम मंच पर पहुँचे, तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं दिखा, जिससे लगे कि एक बड़े शायर का सम्मान होना है। गुरु जी को देखकर उन महाशय ने माइक अपने हाथ में लिया और गुरु जी के बारे में लोगों को बताया, उन्हें मंच पर आने का निमंत्रण दिया और मंच पर वैठा दिया। एक के बाद एक कई र्कायक्रम हुए। कभी नाच-गाने का, कभी भाषणों का; पर गुरु जी को नहीं बुलाया गया। मुझे गुस्सा आ रहा था और आत्म-गिलानी हो रही थी कि आखिर मैंने गुरु जी की तौहीन क्यों करा दी? गुरु जी से चलने को कहा, तो उन्होंने कहा कि नहीं मेज़बान की तौहीन होगी। अन्त में गुरु जी को तब बुलाया गया, जब लोग ऊबकर घर जाने की तैयारी में थे। लेकिन जैसे ही गुरु जी ने गीत और गज़लें पढऩी शुरू कीं, लोग जम गये। फरमाइश एक फरमाइशें होने लगीं। गुरु जी ने करीब ढाई घंटे से अधिक पढ़ा। अन्त में रात के करीब 10:15 बजे आयोजक को कहना पड़ा कि हम किसी दिन आदरणीय बरेलवी साहब का स्पेशल कार्यक्रम आयोजित करेंगे। अभी हमारा कार्यक्रम दो घंटे ज़्यादा चल चुका है। गुरु जी को निमंत्रण देने वाले महाशय ने माफी माँगते हुए गुरु जी का सम्मान किया। अपनी कार से उन्हें घर छोड़ा। दूसरे दिन कार्यक्रम की रिपोर्ट अखबारों में छपी, जिसमें लिखा था- मशहूर शायर रईस बरेलवी ने बाँधा समां। ताज़ुब हुआ कि जो मुख्य कार्यक्रम था, उसका बाद में थोड़ा-सा ज़िक्र था। इस तरह गुरु जी का सम्मान हुआ।

ऐसे ही भगवान श्रीकृष्ण पर लिखे गये गीतों-भजनों और घर में उनकी प्रतिमा रखने को लेकर बरेली के कुछ मौलवियों ने गुरु जी के खिलाफ फतवा जारी कर दिया। फतवे में कहा गया कि शायर रईस बरेलवी अपने ही मज़हब की तौहीन कर रहे हैं; लिहाज़ा वे काफिर हैं। इस फतवे को लेकर शहर भर में चर्चा फैल गयी। कुछेक कट्टरवादियों को छोड़कर सभी ने फतवा जारी करने वालों को गलत ही कहा। मज़हबी पंचायत बैठी। गुरु जी से कहा गया कि आपको मालूम है कि आप क्या कुफ्र कर रहे हैं? गुरु जी ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘अगर कुरान में कहा गया है कि अल्लाह एक है और वो ज़र्रे-ज़र्रे में है, तब तो मैं कोई कुफ्र नहीं कर रहा हूँ। और अगर यह झूठ है, तो आप लोग इसे कुफ्र कह सकते हैं।’ फतवा जारी करने वाले मौलवियों का पारा चढ़ गया, एक मौलवी साहब ने गुस्साते हुए कहा- ‘मगर मूर्ति पूजा इस्लाम में हराम है।’ गुरु जी ने उसी सादगी से कहा- ‘मैं मूर्ति पूजा करता ही कहाँ हूँ? मैं तो मूर्ति में भी अल्लाह को देखता हूँ।’ गुरु जी की बात पर कुछ लोग हँस पड़े। एक ने कहा- ‘शाइर साहब हैं, इनसे नहीं जीता जा सकता।’ आखिर मौलवियों को फतवा वापस लेना पड़ा। तब गुरु जी ने कहा कि मज़हबों ने हमें इंसान बनने की शिक्षा दी है। इंसानों या दूसरे मज़हबों से बैर करने की नहीं। कुरान भी यही कहता है। सभी खामोश थे। गुरु जी से बहुत-से लोग और भी प्रभावित हुए। करीब आधे घंटे गुरु जी से उन्होंने प्यार और अम्न की बातें सुनीं। बरेली की हिन्दू-मुस्लिम एकता पर कई िकस्से सुने और गुरु जी से माफी माँगते हुए अपने-अपने घरों को रुखसत हो गये।