‘आ बता दें ये तुझे कैसे जिया जाता है..’

तो नतीजे आ गए। जीतने वालों को बधाई। इसका अर्थ है एक और अवसर नाचने, गाने और मौज मस्ती का। एक ओर झोपड़ी के बाहर हरिया, जुम्मन, माड़ू और मूसू नाच रहे हैं। तो दूसरी ओर राय बहादुर धर्मसेन, लाला नारायण दास और टिंबर किंग अशोक बंसल पांच तारा होटल के प्रांगण में जश्न मना रहे हैं। राय बहादुर, लाला और टिंबर किंग का नाचना तो समझ में आया कि इन लोगों की दौलत पिछले पांच साल में 500 से 1,000 गुणा तक बढ़ गई थी और अब आगे इतना ही और बढऩे की उम्मीद जग गई थी, पर जुम्मन, हरिया का नाचना समझ से परे था। इनकी बस्तियां बिल्डर्स ने उज़ाड कर शॉपिंग मॉल बना दिए थे। हरिया का बेटा पिछले तीन साल से डिग्री हाथ में लिए नौकरी तलाश रहा था। मूसू के भाई ने आढ़ती का कजऱ् न लौटा पाने के कारण अभी छह महीने पहले ही तो आत्महत्या की थी। पर ये सभी नाच रहे थे।

मैं बहुत देर तक इन्हें नाचते हुए देखता रहा। फिर देखा मेरा धोबी भी नाच रहा है। राजा और रंक दोनों को नाचते देख मैं भी नाचने लगा। आखिर मुझ में भी तो राष्ट्र प्रेम है। रोटी कोई मसला थोड़े है, बेरोजग़ारी का मुद्दा भी कोई मुद्दा है। रेहड़ी लगा लो, छाबड़ी लगा लो, चाय बेच लो, पकौड़े तल लो। शराब के ठेके जगह-जगह इसीलिए तो खोले हैं ताकि बेरोजग़ार नौजवान भटके नहीं। बस ठेके के साथ पकौड़े तलने शुरू कर दें। हमारे शराबी दारू पीते हैं ग़म भुलाने के लिए, अब साथ में अगर पकौड़ों जैसा पौष्टिक आहार भी मिल जाए तो सोने पे सुहागा हो जाए।

किसानों के लिए भी एक योजना है। अरे भाई आत्महत्या क्यों? कजऱ् नहीं चुका पा रहे कोई बात नहीं, बैंक वाले या साहूकार तंग करते हैं कोई बात नहीं। उनके गुंडे आकर मारपीट करते हैं कोई बात नहीं। अपनी ज़मीन साहूकार को दे दो, कौन सी छाती पर रख कर ले जानी है। भाई जान है तो जहान है। परिवार को सड़क पर ले आओ। ठेके के पास फड़ी लगा लो। क्या कहा नगरपालिका और पुलिस विभाग के लोग तंग करते हैं? तो भाई उनका हफ्ता बांध दो। बड़े-बड़े उद्योगपति, ठेकेदार, ट्रांसपोर्टर सभी तो हफ्ता देते हैं। हफ्ता दो मजे से चाहे पूरी सड़क घेर कर अपना धंधा जमा लो। आप शराबियों का साथ दो शराबी आपका साथ देंगे। यह अर्थशास्त्र मेरी समझ में आ गया।

बाकी हम सबने क्या लेना है। कोई बैंकों के पैसे लेकर विदेश चला जाए या अपनी सम्पति साल-दो-साल में अरबों रुपए की कर ले। किसी का किसी बैंक में खाता हो। हम तो सभी देशभक्त हैं, कोई सवाल खड़ा करके देशद्रोही थोड़ा बनना है। बेहतर है देशभक्त बनों जीत पर नाचो चाहे पैरों में बेडिय़ां और हाथों में हथकडिय़ां और मुंह पर ताला हो।

बाकी तो ठीक है पर कुछ कलम घसीट नहीं मानते। उन्हें आदत है हर बात में टांग अड़ाने की। हर रोज़ कोई न कोई सवाल खड़ा कर देते हैं। क्या ज़रूरत है पंगा लेने की। वही लिखो जो कहा जाए, वही दिखाओ जो वे चाहते हैं। टीआरपी बढ़ाओ, सर्कुलेशन बढ़ाओ, विज्ञापन पाओ, प्लाट हथियाओ, लोकतंत्र में पूरी छूट है। पर किसी ‘मसीहा’ की बुराई तो मत करो। यह काम तो दुश्मन देश कर ही रहा है, तुम करोगे तो तुम उसी के साथी हुए। तुम्हें वहीं चले जाना चाहिए नही ंतो कोई न कोई देशभक्त गोली मार ही देगा। आखिर देश को बचाने के लिए कुछ लोगों की कुर्बानी कौन सा बड़ी बात है। पहले भी गोलियां मारी गई हैं, कुछ और चल जाएंगी। जो कलम घसीट नहीं नाच रहा उस पर पैनी नजऱ रखो। अजी साहब खुश हो जाइए। हाथों और पैरों में पड़ी बेडिय़ों को भूल कर बस नृत्य करो। किसी शायर ने जिं़दगी और नृत्य का क्या खूबसूरत फलसफा दिया है:-

”कैसे जीते हैं भला, हमसे सीखो ये अदा

ऐसे क्यों जि़ंदा हैं लोग, कैसे शर्मिंदा हैं लोग

दिल पे सह कर सितम के तीर भी

पहन कर पांव में जंजीर भी

रक्स (नृत्य) किया जाता है

आ बता दें ये तुझे कैसे जिया जाता है।’’