आसान नहीं होगा पटरी पर लौटना

लॉकडाउन के बाद से चौपट पड़े उद्योग धन्धों, कम्पनियों और व्यापारिक संस्थानों में से कुछ को केंद्र सरकार ने चलाने की अनुमति दे दी है। इन उद्योगों में ज़रूरी फूड प्रोसेसिंग, कोरियर सॢवस, बंदरगाह, आईटी हार्डवेयर मैन्युफैक्चरिंग, फार्मा इंडस्ट्री, खनन, बिजली उत्पादन, टेलीकॉम, जूट इंडस्ट्री, कार्गो मूवमेंट, पैकेजिंग मटीरियल, कृषि कार्य और मनरेगा आदि प्रमुख हैं। सरकार की इस अनुमति से परेशानियों से टूट चुके कामगार लोगों को भले ही एक उम्मीद जगी हो, लेकिन अभी उद्योगों, व्यापारिक संस्थानों और कम्पनियों के सुचारू रूप से चलने में काफी समय लग जाएगा। भले ही सरकार ने विश्वास दिलाया है कि उद्योगों के चलने की अनुमति देने से सब धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा और देश की अर्थ-व्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट आयेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। इस पर अभी कई सवाल हैं, जिन पर विचार करने की ज़रूरत है। पहला सवाल तो यही है कि जब अभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट शुरू नहीं हुआ है, तो कैसे मान लिया जाए कि जिन उद्योगों को चलाने की अनुमति सरकार दे चुकी है, वे सुचारू रूप से चल पाएँगे? दूसरा सवाल यह है कि जब लोग घरों में कैद रहेंगे, तो इन उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों में काम कौन करेगा? ये सवाल उठाने का मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि सरकार लॉकडाउन खत्म कर दे और धीरे-धीरे थम रहे कोरोना वायरस के संक्रमण को लोग फिर से तेज़ी से आमंत्रण दे दें। बल्कि सवाल उठाने का मकसद सिर्फ यह बताना है कि सरकार ने जिन उद्योगों और व्यापारिक संस्थानों को चलाने की अनुमति दी है, उसमें काम करने वाले सभी लोगों की पहले कोरोना जाँच होनी चाहिए और उसके बाद उन्हें काम पर लाने और वापस घर भेजने की समुचित व्यवस्था कम्पनी या फैक्ट्री पर छोडऩी चाहिए, ताकि वे सुरक्षित रहकर काम कर सकें और संक्रमण न फैलने पाये। क्योंकि अब अगर संक्रमण फैला, तो उससे निपटना आसान नहीं होगा।

अनेक समस्याएँ

सरकार द्वारा कुछ उद्योग धन्धों को चलाने की अनुमति को लेकर विभिन्न संस्थानों के मालिक खुश भी हैं और हताश भी। इसके पीछे उनकी अनेक समस्याएँ हैं। सबसे पहली समस्या इन उद्योगों में काम करने वाले लोगों के आने की है। क्योंकि अभी सभी लोग घरों में हैं और पुलिस तथा कोरोना वायरस की चपेट में आने के डर से बाहर निकलने से कतरा रहे हैं। ऐसे में जब उद्योगों में कोई आयेगा ही नहीं, तो काम कौन करेगा? दूसरी समस्या यह है कि जिन संस्थानों को सरकार ने चलाने की अनुमति दी है, उनके मालिक खुद ही डरे हुए हैं। उनका कोई एक डर नहीं है। पहला डर तो यही है कि अब अगर वे अपने कर्मचारियों को बुलाते हैं, तो उनकी जाँच और उन्हें काम पर बुलाने के खर्चे बढ़ जाएँगे, क्योंकि कर्मचारियों की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी इन उद्योगों के मालिकों की होगी। दूसरा, यह कि उत्पादन के लिए पर्याप्त माल मिलना एक साथ आसान नहीं होगा; जिससे उत्पादन प्रभावित होगा। तीसरा, अब कर्मचारियों को काम पर वापस लाना आसान नहीं होगा; क्योंकि कर्मचारी इस दहशत के माहौल में आने को राज़ी नहीं होंगे। चौथा, उत्पादनों की बाज़ार में बिक्री फिलहाल बहुत कम होगी। क्योंकि उपभोक्ताओं के बाज़ार से जुडऩे में अभी काफी समय लगेगा।

खपत के बड़े आधार की टूट चुकी है कमर

माना जा रहा है कि बाज़ार में उछाल आने में काफी समय लगेगा। इसका कारण यह है कि देश की बड़ी आबादी आॢथक रूप से काफी कमज़ोर हो चुकी है, इनमें सबसे बड़ा वर्ग मज़दूरों और अन्नदाता किसानों का है, जो कि बाज़ार की रीड़ की हड्डी होते हैं। भले ही यह लोग कम आमदनी वाले होते हैं, लेकिन इनके बिना उद्योग धन्धों को चलाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। इस बार तो किसानों पर दोहरी मार पड़ चुकी है। पहले बेमौसम बारिश ने खेती चौपट कर दी और इसी बीच लॉकडाउन के चलते फसलें नहीं उठ पा रही हैं। इतना ही नहीं, अब जिन किसानों पर सरकारी कर्ज़ है, लेबी पर उन्हें कर्ज़ का पैसा काटकर गेहूँ का भुगतान किया जा रहा है। ऐसे में किसानों की हालत और भी खराब होने वाली है। अगर किसानों की आॢथक स्थिति कमज़ोर होगी, तो बाज़ार की स्थिति अच्छी हो ही नहीं सकती।

जल्द नहीं उबरेंगे छोटे उद्योग

इस लॉकडाउन से आम आदमी की जो हालत हुई है, उससे यह तय है कि छोटे उद्योग धन्धे जल्दी नहीं उबरेंगे। क्योंकि लघु और मध्यम उद्योगों के अधिकांश उपभोक्ता निम्न और मध्यम वर्ग से आते हैं। इस बार दोनों ही वर्गों को बड़ा नुकसान हुआ है और कइयों के छोटे-मोटे धन्धे और रोज़गार खत्म हो गये हैं। ऐसे में छोटे उद्योगों पर इसका असर लम्बे समय तक रहेगा। हालाँकि बड़ी कम्पनियाँ और बड़े उद्योग भी एक साथ नहीं उबर पाएँगे। क्योंकि बड़े लोगों की आॢथक स्थिति भी आम लोगों पर टिकी होती है।

धीरे-धीरे पटरी पर लौटेगी अर्थ-व्यवस्था

जो भी हो, अगर संस्थान भी चलने लगेंगे, मगर अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने में लम्बा समय लगेगा। हालाँकि एक साथ न सही, तो धीरे-धीरे सही; पर देश की अर्थ-व्यवस्था पटरी पर लौटने ही लगेगी। कुछ उद्योगपतियों का मानना है कि उद्योगों को ठीक से चलने में अभी चार-छ: महीने तो लग ही जाएँगे। फिर बाज़ार के रुख पर भी उत्पादन और उद्योगों के चलने की गति निर्भर करेगी। हाल ही में इंडस्ट्री चैम्बर एसोचैम के महासिचव दीपक सूद ने एक मीडिया चैनल से कहा था कि अगर सब कुछ सही रहा, तो 30 से 40 फीसदी आॢथक गतिविधियाँ बहाल हो सकती हैं। उन्होंने यह भी कहा है कि सरकार का फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन अभी तो सरकार की प्राथमिकता कोरोना वायरस पर काबू पाना है।

सरकार के आदेश

कुछ उद्योगों को चलाने की अनुमति के साथ ही सरकार ने कुछ आदेश भी दिये हैं। इन आदेशों में कहा गया है कि सभी कामगार कृषि और मनरेगा के अतिरिक्त औद्योगिक गतिविधियों, मैन्युफैक्चङ्क्षरग, निर्माण आदि कार्यों को कर सकते हैं। लेकिन सरकार ने कामगारों की आवाजाही को लेकर कुछ दिशा-निर्देश भी जारी किये हैं। इन दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि मज़दूर और कर्मचारी जिस राज्य में हैं, उस राज्य में ही काम कर सकेंगे और फिलहाल उन्हें बाहर जाने की अनुमति नहीं होगी। लोग बसों में यात्रा के दौरान आपसी दूरी का ध्यान रखें। वहीं बसों को अच्छी तरह से साफ रखा जाना चाहिए। इसके साथ ही यात्रा के दौरान स्थानीय प्रशासन को मज़दूरों के खाने-पीने की व्यवस्था करनी होगी। किसी संस्थान के जो कर्मचारी अपने राज्य जा चुके हैं, वे वापस नहीं आ सकेंगे। उद्योग चाहे ग्रामीण क्षेत्र में हो या फिर शहर में सरकार के दिशा-निर्देशों और आदेशों का सभी को पालन करना होगा। अगर कोई ऐसा नहीं करेगा, तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।

लम्बे समय तक नहीं लौटेगी बाज़ारों की रौनक

यह हो सकता है कि चार-छ: महीने में कम्पनियाँ और उद्योग धन्धे ठीक से चलने लगें, मगर बाज़ारों की रौनक जल्दी नहीं लौटने वाली। ऐसा इसलिए होगा, क्योंकि आम उपभोक्ता का हाथ तंग हो चुका है। ऐसे में बाज़ारों की बिक्री पर लम्बे समय तक असर रहेगा। इससे वस्तुओं की खपत कम होगी और अगर खपत कम होगी, तो उत्पादन घटाना पड़ेगा। इससे अर्थ-व्यवस्था को भी पटरी पर लौटने में लम्बा समय लग जाएगा। बाज़ार छोटा हो या बड़ा, उस पर देश की अर्थ-व्यवस्था निर्भर करती है। क्योंकि बड़ी मात्रा में पैसे का लेन-देन बाज़ारों के माध्यम से ही होता है। जहाँ कोई भी उपभोक्ता हर खरीद पर किसी-न-किसी रूप में टैक्स देता है, जो देश की अर्थ-व्यवस्था का सबसे बड़ा माध्यम है।