आसान नहीं है आर्थिक सुधारों की डगर

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अनुसार, कोरोना महामारी के नकारात्मक प्रभावों से निपटने के लिए सरकार खुदरा ऋणों जैसे गृह, कार, पर्सनल (निजी) आदि के िकस्त एवं ब्याज को टालने या मॉरेटोरियम की मियाद बढ़ाने और आतिथ्य, विमानन, रियल एस्टेट आदि क्षेत्रों के ऋण को पुनर्गठित या रिस्ट्रक्चरिंग करने पर विचार कर रही है। फिलहाल ऋण भुगतान में छूट या मॉरेटोरियम की अवधि को 31 अगस्त तक के लिए बढ़ाया गया है, जिसे पुन: बढ़ाने के लिए वित्त मंत्रालय भारतीय रिजर्व बैंक से विमर्श कर रहा है।

इसके अलावा फिक्की की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को सम्बोधित करते हुए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि सरकार ऋण पुनर्गठन की सम्भावनाओं पर भी रिजर्व बैंक के साथ चर्चा कर रही है। वित्त मंत्री के अनुसार, ऋण पुनर्गठन की ज़रूरत को सरकार सैद्धांतिक रूप से सही मान रही है। बैंक भी भारतीय रिजर्व बैंक से तीन लाख करोड़ रुपये के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की माँग कर रहे हैं। मोटे तौर पर यह ऋण आतिथ्य, विमानन और रियल एस्टेट क्षेत्र से जुड़ा हुआ है; क्योंकि इन क्षेत्रों को कोरोना महामारी की वजह से सबसे ज़्यादा नुकसान उठाना पड़ा है।

अप्रैल, 2020 के अन्त तक बैंकों का होटल क्षेत्र पर 45,862 करोड़ रुपये, विमानन क्षेत्र पर 30,000 करोड़ रुपये और रियल एस्टेट क्षेत्र पर 2.3 लाख करोड़ रुपये बकाया था। रेटिंग एजेंसी इक्रा के मुताबिक, खस्ताहाल विमानन क्षेत्र को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए आगामी तीन साल में लगभग 35000 करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। होटल क्षेत्र में कई उधमी कर्ज़ में डूबे हैं। व्यावसायिक परिसम्पत्ति और किराये के कारोबार में भी लगभग 25 फीसदी से ज़्यादा की गिरावट आने की आशंका जतायी जा रही है।

होटल एसोसिएशन ऑफ इंडिया (एचएआई) के अनुसार, महामारी कोरोना वायरस की वजह से पर्यटन और आतिथ्य क्षेत्र में माँग में 90 फीसदी से अधिक की कमी आ चुकी है। इस क्षेत्र में लगभग 4.5 करोड़ लोगों को रोज़गार मिला हुआ था; लेकिन आज करोड़ों लोगों की नौकरियाँ जा चुकी हैं।

मॉरेटोरियम के तहत बैंक से ऋण लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज चुकाने में एक निश्चित अवधि तक के लिए राहत दी जाती है। उदाहरण के तौर पर वर्तमान में 31 अगस्त तक के लिए मॉरेटोरियम की अवधि प्रभावी है, इसलिए इस अवधि तक बैंक से कर्ज़ लेने वालों को िकस्त एवं ब्याज नहीं देना होगा। लेकिन सितंबर में उन्हें इकट्ठे या िकस्तों में िकस्त एवं ब्याज दोनों अपने ऋण खातों में जमा करना होगा, अन्यथा ऋण खाते एनपीए हो जाएँगे।

अमूमन पुनर्गठन के मामले में जब कम्पनियों की माली हालत बहुत ज़्यादा खराब हो जाती है, तो वे बैंकों से ऋण खातों को पुनर्गठित करने के लिए कहते हैं। चूँकि इस विकल्प का चुनाव बैंकों के लिए भी मुफीद होता है, इसलिए वो भारतीय रिजर्व बैंक से नकदी की िकल्लत झेलने वाली कम्पनियों के खातों को पुनर्गठित करने का आग्रह करते हैं। दरअसल कम्पनी के दिवालिया होने पर कम्पनी से बैंक जितनी वसूली कर सकते हैं, उससे कहीं अधिक पैसे बैंक को ऋण खातों के पुनर्गठन से मिलने की उम्मीद होती है। आमतौर पर ऋण की ब्याज दर कम करके या िकस्तों के भुगतान की अवधि में इज़ाफा करके ऋण खातों का पुनर्गठन किया जाता है। इस प्रक्रिया के तहत ऋण के बदले कम्पनी के शेयरों की भी अदला-बदली की जाती है। इसका यह मतलब हुआ कि कम्पनी के शेयरों के बदले बैंक, कम्पनी का कुछ या पूरा ऋण माफ कर सकते हैं। ऋण खातों के पुनर्गठन के तहत कम्पनी बैंक को बांड का कुछ हिस्सा देने के लिए भी राज़ी हो सकते हैं। कम्पनी, बैंक से ब्याज या पूँजी का कुछ हिस्सा माफ करने के लिए भी आग्रह कर सकती है। मामले में बैंक सभी को मॉरेटोरियम या पुनर्गठन का फायदा देने के खिलाफ हैं, जो सही भी है। क्योंकि ऋण चुकाने की हैसियत रखने वाली कई कम्पनियाँ या लोग इस राहत का बेजा फायदा उठा सकते हैं। कुछ लोग आर्थिक रूप से समर्थ होने के बावजूद भी मॉरेटोरियम का फायदा उठा रहे हैं, जिसका वित्तीय क्षेत्र और गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों की सेहत पर बुरा असर पड़ रहा है। हालाँकि उनके इस कदम से उन्हें ज़्यादा ब्याज चुकाना होगा; क्योंकि बैंक आमतौर पर ऋण खातों में चक्रवृद्धि ब्याज प्रभावित करता है और मॉरेटोरियम का अर्थ ऋण माफी नहीं है।

एक अनुमान के मुताबिक, पहले से गैर-निष्पादित परिसम्पत्ति (एनपीए) से जूझ रहे बैंकों के एनपीए में कोरोना महामारी की वजह से और भी ज़्यादा वृद्धि हो सकती है और एनपीए में भारी इज़ाफा होने के बाद सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों का अनुपालन करने में परेशानी का सामना करना पड़ सकता है। क्योंकि इनकी औसत पूँजी पर्याप्तता का अनुपात मार्च, 2020 में 13 फीसदी था; जबकि न्यूनतम पूँजी आवश्यकता सितंबर, 2020 तक बढक़र 11.50 फीसदी होने का अनुमान है। इस तरह सरकारी बैंकों के पास सितंबर महीने में केवल 1.5 फीसदी अधिक पूँजी का कुशन मात्र रह जाएगा, जो मॉरेटोरियम अवधि के समाप्त होने या बड़े कर्ज़ का पुनर्गठन नहीं होने से एनपीए राशि को समायोजित करने में समाप्त हो जाएगा।

वित्तीय जानकारों के अनुसार, वित्त वर्ष 2020-21 में सरकारी बैंकों को नियामकीय शर्तों को पूरा करने के लिए लगभग 50 हज़ार करोड़ रुपये की ज़रूरत होगी। लेकिन सरकार ने अभी तक सरकारी बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के सम्बन्ध में कोई बात नहीं कही है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में बैंकों के प्रमुखों से बातचीत के दौरान उन्हें यह आश्वासन दिया कि उन्हें पैसों की कमी नहीं होगी। साथ ही उन्हें क्रेडिट ग्रोथ बढ़ाने के लिए भी कहा है। क्योंकि एनपीए होने के डर से सरकारी बैंकों के साथ-साथ निजी बैंक भी कर्ज़ देने में फिलवक्त जोखिम उठाने से बचने की कोशिश कर रहे हैं, जिसके कारण क्रेडिट ग्रोथ में अपेक्षित तेज़ी नहीं आ रही है। भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) के मुताबिक, बैंकों की ऐसी प्रवृति की वजह से आर्थिक सुधारों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। वैसे क्रेडिट ग्रोथ में कमी का एक महत्त्वपूर्ण कारण कर्ज़ की माँग में भारी कमी आना भी है। एफएसआर में कहा गया है कि एए और उसके ऊपर की श्रेणियों को छोड़ दें, तो हर रेटिंग श्रेणी को मिलने वाले ऋण में कमी आयी है। उद्योगों को दिये जाने वाले कर्ज़ में बढ़ोतरी के विश्लेषण से भी पता चलता है कि सरकारी बैंक सिर्फ अच्छी गुणवत्ता वाली कम्पनियों को या अच्छे वित्तीय साख वाले व्यक्तियों को ही कर्ज़ दे रहे हैं। सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा उठाये गये नीतिगत कदमों से वित्तीय बाज़ार की स्थिति में कुछ सुधार आया है और बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को नकदी की िकल्लत का ज़्यादा सामना नहीं करना पड़ रहा है, जिससे उधारी की लागत कम हुई है। फिर भी सरकार विकास वित्त संस्थान या डवलपमेंट फाइनेंस इंस्टीट्यूटशन (डीएफआई) की स्थापना करने पर कार्य कर रही है।

डीएफआई सरकार के स्वामित्व वाली संस्था होगी और उन उद्योगों के लिए ऋण मुहैया करायेगी, जिन्हें वाणिज्यिक ऋणदाताओं से ऋण नहीं मिला है। इस तरह इसका स्वरूप कैसा होगा? निवेश कौन करेगा? आदि की रूपरेखा अभी पूरी तरह से साफ नहीं हुई है। लेकिन कहा जा रहा है कि उद्योगों की ज़रूरतों को पूरा करने में यह महती भूमिका निभा सकता है। रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास के अनुसार, फँसे हुए कर्ज़ या एनपीए से जूझ रहे बैंक उद्योग जगत की बहुत ज़्यादा मदद कर पाने में समर्थ नहीं हैं; इसलिए उद्योगों की बुनियादी ढाँचा वाली परियोजनाओं के लिए रकम जुटाने के लिए नये रास्ते तलाशने होंगे। भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर के इस बयान से डीएफआई की अहमियत बढ़ गयी है। गौरतलब है कि इस सन्दर्भ में एक उच्चस्तरीय समिति ने पाँच वर्षों में लगभग 111 लाख करोड़ रुपये की बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के लिए निवेश योजनाएँ भी तैयार की हैं।

कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी ने अर्थ-व्यवस्था को बुरी तरह से चौपट कर दिया है। हालाँकि अर्थ-व्यवस्था के पूरी तरह से गतिशील होने के बाद ही कॉरपोरेट क्षेत्र का पूरा नुकसान सामने आयेगा; लेकिन अभी भी अर्थ-व्यवस्था की तस्वीर किसी भी दृष्टिकोण से गुलाबी नहीं है। आम और खास के साथ-साथ उद्योग भी ऋण की िकस्त और ब्याज जमा नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए मॉरेटोरियम अवधि में बढ़ोतरी और बड़े कर्ज़ के पुनर्गठन की माँग की जा रही है। हालाँकि मौज़ूदा स्थिति में सरकार को सभी प्रकार के कर्ज़ को पुनर्गठित करने की ज़रूरत है; तभी आर्थिक सुधारों की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़ा जा सकता है।

इसके लिए सरकार और बैंक दोनों को मिलकर काम करना होगा। चूँकि जोखिम कम होने पर ऋण के एनपीए होने की सम्भावना कम होती है और ऐसे ऋण अगर एनपीए हो भी जाते हैं, तो उसकी वसूली की उम्मीद बेहतर होती है। इसलिए एनपीए होने की आशंका से कोरोना-काल में बैंक ऋण देने में विशेष सावधानी बरत रहे हैं। अस्तु क्रेडिट में वृद्धि के लिए सरकार को बैंकों को भरोसा देना होगा कि सरकार उनके साथ खड़ी है। बैंकिंग क्षेत्र में बढ़ते एनपीए को देखते हुए सरकार को बैंकों का पुनर्पूंजीकरण भी करना होगा, ताकि सरकारी बैंक पूँजी पर्याप्तता अनुपात मानक का अनुपालन करने में आगामी महीनों में भी सक्षम रहें। इसके अलावा सरकार को सूक्ष्म, लघु और मझोले उद्योगों के कर्ज़ पर गारंटी योजना के दायरे को अन्य क्षेत्रों के लिए भी बढ़ाना होगा, ताकि आर्थिक सुधारों की रफ्तार तेज़ हो सके।

( सतीश सिंह एसबीआई के कॉरपोरेट केंद्र, मुंबई के आर्थिक अनुसंधान विभाग में मुख्य प्रबन्धक हैं।)