आसान नहीं खडग़े की राह

नवनियुक्त कांग्रेस अध्यक्ष को निकलना होगा गाँधी और ग़ैर-गाँधी के दायरे से बाहर

ज़मीन से जुड़े और 50 साल से राजनीति में अपनी मेहनत से जमे हुए मल्लिकार्जुन खडग़े कांग्रेस के अध्यक्ष बन चुके हैं। उनके सामने अब कांग्रेस का सर्वसम्मत अध्यक्ष बनने की चुनौती है। इसके लिए उन्हें पार्टी के बीच गाँधी और ग़ैर-गाँधी के दायरे से बाहर निकलना होगा। साथ ही पार्टी से बाहर चले गये नेताओं को वापस पार्टी में लाने की बड़ी और चुनौतीपूर्ण शुरुआत करनी होगी। चूँकि वह गाँधी परिवार के पसंदीदा उम्मीदवार थे, उनकी जीत कांग्रेस के बीच गाँधी परिवार की ही जीत है। अर्थात् अध्यक्ष चुनाव के बहाने भी गाँधी परिवार के हक़ में ही पार्टी के अधिकांश नेताओं, कार्यकर्ताओं ने समर्थन दिया है। लेकिन इसके बावजूद यदि खडग़े कांग्रेस अध्यक्ष से ज़्यादा गाँधी परिवार के प्रतिनिधि ही कहलाये जाते रहे, तो भाजपा के पास उन पर आक्रमण करने का अवसर रहेगा और ख़ुद पार्टी के भीतर अध्यक्ष के नाते वह अपनी अथॉर्टी को स्थापित नहीं कर पाएँगे। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि राहुल गाँधी ही भविष्य में कांग्रेस के प्रधानमंत्री पद का चेहरा होंगे। ऐसे में खडग़े यदि मज़बूत अध्यक्ष के रूप में काम करके पार्टी के बीच सभी पक्षों का साथ पाने में सफल रहते हैं, तो वह देश के सर्वोच्च पद के लिए राहुल गाँधी की ही राह आसान करेंगे, जो भारत जोड़ो यात्रा के ज़रिये देश की राजनीति और जनता में अपनी एक नयी छवि गढऩे में सफल होते दिख रहे हैं।

अध्यक्ष का चुनाव करवाकर कांग्रेस ने अब भाजपा को ही चुनौती दे दी है कि वह भी अपने अध्यक्ष का चुनाव करवाये, जहाँ हमेशा मनोनयन से ही अध्यक्ष तय होते हैं। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, जब भाजपा ने कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में खडग़े के नाम की घोषणा होने के कुछ मिनट के भीतर ही उन पर गाँधी परिवार का डमी होने का तमगा चस्पा कर दिया।

देखा जाए, तो यह तो भाजपा में भी है कि जहाँ अध्यक्ष जे.पी. नड्डा को मोदी और शाह के खास के रूप में चिह्नित किया जाता है। ऐसे में समझा जा सकता है कि खडग़े को गाँधी परिवार का प्रतिनिधि कहते रहना भाजपा की रणनीति का हिस्सा है, ताकि कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए खडग़े के चुनाव के ज़रिये चयन को कमतर करके आँका जा सके। यह वैसा ही है, जैसे भाजपा राहुल गाँधी को पप्पू कहकर उनकी छवि को $खराब करती रही है।

लेकिन भाजपा के लिए खडग़े उतना आसान शिकार नहीं होंगे। खडग़े ज़मीनी राजनीति से बख़ूबी वाक़िफ़ हैं और भाजपा की सोच के प्रति उनके तेवर हमेशा तीखे रहे हैं। मुद्दों पर वह बहुत बेहतरीन तर्कों के साथ बात करते हैं और दक्षिण भारत से होते हुए भी उनका हिन्दी प्रेम और भाषा पर उनकी पकड़ उन्हें एक मज़बूत नेता बनाती है। उत्तर भारत में कांग्रेस को हिन्दी भाषी छवि वाला नेता चाहिए और खडग़े हिन्दी भाषी न होते हुए भी जैसी हिन्दी बोलते हैं, उसमें वह किसी को भी अपनी बात समझाने में सफल रहते हैं।

खडग़े अक्सर उन मुद्दों पर बहुत बेबाक़ी और तर्कों के साथ बोलते हैं, जो राहुल गाँधी के प्रिय विषय रहे हैं। इस तरह खडग़े को राहुल गाँधी का अनुभवी अवतार कहा जा सकता है। ऐसे में खडग़े और राहुल गाँधी एक मज़बूत टीम बनाकर नये तेवर से भाजपा को टक्कर दे सकते हैं। खडग़े के लिए तो यह चुनौती गुज़रात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव से ही शुरू होने वाली है, जहाँ मतदान के लिए मुश्किल से पखवाड़े भर का ही समय बचा है। गुज़रात के चुनाव भी नवंबर-दिसंबर में होने हैं।

हिमाचल में भाजपा के लिए चुनौतियाँ हैं और कांग्रेस ठोस रणनीति से काम करे, तो भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल पैदा कर सकती है। गुज़रात में भी भाजपा को तश्तरी में रखकर सत्ता नहीं मिलने वाली है, जहाँ कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) दोनों ही उसके लिए गम्भीर चुनौती बने हुए हैं। कांग्रेस ने इस बार गुज़रात में ज़मीनी अभियान पर काम की रणनीति अपनायी है, जिसकी और ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी तक अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए संकेत कर चुके हैं। इसके विपरीत आप ने अपना अभियान धमाकेदार तरीक़े से चलाया हुआ है। दोनों ही पार्टियों के अभियान ने भाजपा पर दबाव बनाया है।

खडग़े दोनों ही राज्यों में इस दबाव से कांग्रेस की राह निकाल सकते हैं। हिमाचल और गुज़रात भाजपा के लिए कई कारणों से अहम हैं। गुज़रात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके सबसे नज़दीकी नेता गृह मंत्री अमित शाह, जिन्हें भाजपा में उनके समर्थक चाणक्य कहते हैं; का गृह राज्य होने के कारण चुनावी राजनीति के लिहाज़ से बहुत महत्त्वपूर्ण है। दूसरी और हिमाचल भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का गृह राज्य है और वहाँ भाजपा की जीत / हार पार्टी में उनकी स्थिति पर असर डालेगी। भाजपा किसी भी सूरत में यह राज्य नहीं हारना चाहती। विपरीत नतीजे उसके लिए बड़ा संकट खड़ा कर सकते हैं और उस पर जबरदस्त मनोवैज्ञानिक दबाव बना सकते हैं।

चुनावों में कांग्रेस और खडग़े को मोदी-शाह-नड्डा की मज़बूत तिकड़ी से भिडऩा होगा। खडग़े इतने कम समय में इन दोनों राज्यों के चुनाव के लिए क्या रणनीति बनाते हैं, यह देखना दिलचस्प होगा। वह अपने अध्यक्ष होने की शुरुआत चुनाव में हार से नहीं नहीं करना चाहेंगे। इसके लिए उन्हें निश्चित ही पार्टी के भीतर नकारात्मक माहौल को बदलना होगा, जो हाल के महीनों में बना है। पार्टी के कार्यकर्ताओं में जीत की भूख जगानी होगी और उन्हें यह बताना होगा कि कांग्रेस राज्यों को जीत सकती है। कांग्रेस के लिए यह अच्छा हुआ कि गुज़रात के पूर्व मुख्यमंत्री और क़द्दावर नेता शंकर सिंह बघेला के बेटे महेंद्र सिंह बघेला कांग्रेस में शामिल हो गये हैं, जिसका असर वहाँ दिख सकता है।

हालाँकि अध्यक्ष बनना और उस पर काम करना दो लग चीज़ें हैं। इसलिए खडग़े के सामने एक बड़ी चुनौती है। भाजपा का दबाव, पार्टी के भीतर नेताओं को सन्तुष्ट रखना, चुनावों की चुनौतियाँ, रणनीति बनाना, राज्यों में यूपीए सहयोगियों के साथ तालमेल रखना इनमें शामिल हैं। इसके अलावा पार्टी ने उदयपुर के चिन्तन शिविर में जो फ़ैसले किये थे, उन्हें लागू करने की कठिन ज़िम्मेदारी खडग़े पर रहेगी।

खडग़े अनुभवी राजनेता हैं और कांग्रेस की नब्ज़ पहचानते हैं। अध्यक्ष बनते ही उन्होंने सक्रियता दिखायी है। संगठन और चुनाव में 50 फ़ीसदी पद युवाओं को देने की राहुल गाँधी की सोच को उन्होंने अपनी घोषणा में शामिल किया है। देखना दिलचस्प होगा कि खडग़े का आना कांग्रेस के लिए क्या परिवर्तन लाता है? यदि दो राज्यों के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस बेहतर प्रदर्शन करती है, तो यह माना जाएगा कि खडग़े का आना पार्टी के लिए शुभ रहा है।

मज़बूत टीम की ज़रूरत

समय आ गया है कि कांग्रेस अब एक रणनीति के तहत अपनी टीम बनाये, जिसमें खडग़े के ख़िलाफ़ चुनाव लडऩे वाले शशि थरूर से लेकर अशोक गहलोत और कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक का मज़बूत प्रतिनिधित्व हो। महज़ पद भरने वाले नेताओं की जगह संगठन और विचार और मज़बूती दे सकने वाले नेता इस टीम में हों। खडग़े को ग़ुलाम नबी आज़ाद से लेकर उन तमाम मज़बूत नेताओं को वापस कांग्रेस में लाने की मुहिम चलानी चाहिए, जो हाल के वर्षों में पार्टी से बाहर गये हैं। इससे देश भर में पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने में मदद मिल सकती है।

खडग़े पर सबसे मुश्किल ज़िम्मेदारी यह भी है कि राज्यों में बिना कांग्रेस की क़ीमत पर उन्हें सहयोगियों के साथ चलना होगा। अगले चुनाव के लिए अभी भी पौने दो साल हैं और राज्यों में भारत जोड़ो यात्रा जैसे और अभियान चलाकर वह कांग्रेस को खड़ा कर सकते हैं। कांग्रेस के लिए यह इसलिए भी ज़रूरी है कि उसे यदि मुख्य विपक्षी दल बने रहना है और भविष्य में केंद्र की सत्ता हासिल करनी है, तो राज्यों में ज़मीन मज़बूत करनी होगी। अन्यथा आम आदमी पार्टी जैसा दल उसकी जगह लेने में देर नहीं करेगा, जो राज्यों पर फोकस कर अपना देशव्यापी आधार बनाने में जुट गयी है। आम आदमी पार्टी राज्यों में सरकार बनाने के लिए जैसे मेहनत कर रही है, उससे वह निश्चित ही आने वाले समय में कांग्रेस के लिए चुनौती बन सकती है।

खडग़े ने पद का ज़िम्मा सँभालते ही सबसे पहले सीडब्ल्यूसी को भंग कर दिया और उसकी जगह संचालन समिति का गठन कर दिया। इसमें कमोवेश वही चेहरे हैं, जो हाल के वर्षों में कांग्रेस में चर्चा में रहे हैं। हालाँकि यह बहुत अच्छा सन्देश होता यदि खडग़े अध्यक्ष पद के चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी रहे शशि थरूर को भी इस महत्त्वपूर्ण समिति में जगह देते। थरूर पार्टी के ही भीतर के चुनाव में उनके प्रतिद्वंद्वी थे। लिहाज़ा उन्हें स्थान देने से खडग़े की तारीफ़ ही होती और विपक्ष में इसका सन्देश जाता कि चुनाव के बाद पार्टी अब फिर एकजुट है। थरूर और जी-23 के कुछ अन्य नेताओं को भी इस समिति से बाहर रखा गया है, जिनमें मनीष तिवारी भी हैं। इससे यह भी हो सकता है कि पार्टी के भीतर एक विरोधी गुट का अस्तित्व बना रहे, भले चुनाव हो जाने के बाद उनका ज़्यादा दबाव या विरोध शायद अब नाममात्र को ही रहे। इस गुट के आनंद शर्मा जैसे नेताओं को संचालन समिति में लेकर यह सन्देश देने की कोशिश की गयी है। यदि आप सँभल जाते हैं, तो आपके लिए स्थान है। यह तो साफ़ है ही कि खडग़े को अध्यक्ष चुनकर पार्टी के बहुमत ने सोनिया गाँधी (गाँधी परिवार) के ही हक़ में मुहर लगायी है। स्टीरियंग कमिटी बनानी के बाद खडग़े को अब अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का गठन करना है। इसमें महासचिवों से लेकर उपाध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारी मनोनीत होने हैं। यह देखा दिलचस्प होगा कि थरूर जैसे नेताओं को वह कैसे समायोजित करते हैं, क्योंकि अध्यक्ष का चुनाव लड़ चुका नेता शायद महासचिव या उपाध्यक्ष न बनना चाहे।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, खडग़े राज्यों में वरिष्ठ नेताओं को बड़ी ज़िम्मेदारियाँ दे सकते हैं। पार्टी ज़मीन से जुड़े नेताओं को राज्यों का ज़िम्मा देने जा रही है, ताकि संगठन को ज़मीन पर मज़बूत किया जा सके।

राहुल का प्रभाव

यह तय है कि संगठन में राहुल गाँधी से असहयोग करते रहे नेताओं को अब जगह नहीं मिलेगी। एक पद-एक व्यक्ति के नियम का भी पालन होगा। ज़ाहिर है जो व्यक्ति विधायक या सांसद हैं, उन्हें दूसरा पद शायद न मिले। इससे यह भी लगता है कि प्रदेश के पदाधिकारी यदि विधायक बनते हैं, तो उन्हें पदाधिकारी का पद छोडऩा पड़ेगा। राहुल गाँधी आने वाले समय में सभी चुनाव घोषणा-पत्र जनता की राय से बनाने के हक़ में हैं। तेलंगाना को लेकर तो उन्होंने यह कह ही दिया है।

हिमाचल प्रदेश और गुज़रात में विधानसभा चुनाव में पार्टी ने तामझाम वाले प्रचार की जगह ज़मीनी स्तर के प्रचार अभियान की रणनीति अपनायी है। देखना दिलचस्प होगा कि इसका क्या नतीजा निकलता है। गुज़रात में कांग्रेस को देखकर लगता है कि वहाँ वह प्रचार में कहीं नहीं है; लेकिन हक़ीक़त यह है कि उसने प्रचार और जनता तक पहुँचने के लिए अलग रणनीति अपनायी है। उसके नेता ज़मीनी स्तर पर मैदान में डटे हुए हैं। इसके नतीजे दिलचस्प हो सकते हैं। खडग़े के अध्यक्ष बनने से पहले ही यह रणनीति बना ली गयी थी। हालाँकि इसमें उनकी भी सहमति थी।

वास्तव में इस रणनीति के पीछे गुज़रात के चुनाव प्रभारी अशोक गहलोत थे। राहुल गाँधी चाहते थे कि कांग्रेस भारी भरकम प्रचार अभियान की जगह ज़मीनी स्तर पर जनता तक पहुँचे। यही किया गया। यही कारण है कि पार्टी ने अभियान में बड़े नेताओं की $फौज नहीं झोंकी है। आख़िरी दिनों में हो सकता है कि राहुल गाँधी की सभाएँ पार्टी करवाये।

उधर आम आदमी पार्टी और उसके नेता केजरीवाल बहुत उम्मीद में हैं कि वह पंजाब की तरह गुज़रात में सत्ता पा सकते हैं। भारतीय मुद्रा (करंसी) पर गणेश जी और लक्ष्मी जी की तस्वीर लगाने की माँग करके केजरीवाल ने एक तरह से भाजपा वाली हिन्दुत्व की लकीर पकड़ ली है। हाल में महीनों में केजरीवाल ने ऐसे बहुत-सी चीज़ें की हैं, जिनसे ज़ाहिर होता है कि वह हिन्दुत्व को अपनी राजनीति का मज़बूत हिस्सा बनाकर रखना चाहते हैं। कई बार ऐसा लगता है कि वह इस मुद्दे पर भाजपा को भी मात देने की कोशिश कर रहे हैं। देखना होगा कि चुनाव में उन्हें इसका क्या लाभ मिलता है।

हिमाचल प्रदेश में पार्टी ने साझे नेतृत्व के साथ लडऩे की रणनीति बनायी है। वहाँ भाजपा डबल इंजन की सरकार की बात कह रही है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर उतने बेहतर रणनीतिकार साबित नहीं हुए हैं। लिहाज़ा भाजपा की नैया पार हुई, तो प्रधानमंत्री मोदी के नाम पर ही हो पाएगी। वहाँ कांग्रेस मज़बूती से भाजपा का मुक़ाबला कर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इस बार चुनावी दृश्य से बाहर हैं, क्योंकि उन्हें टिकट नहीं दिया गया है। इस पहाड़ी राज्य में धूमल ऐसे नेता थे, जो भाजपा को आश्चर्यजनक नतीजा देने की क्षमता रखते थे। राजनीति के बहुत-से जानकार मानते हैं कि बिना धूमल के बिना भाजपा का ‘रिवाज़ बदल देंगे’ नारा फेल हो सकता है। राजनीतिक विश्लेषक बी.डी. शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि पिछली बार भाजपा को सत्ता में लाने का काफ़ी श्रेय धूमल को जाता है। मुख्यमंत्री नहीं बनने के बावजूद वह ज़मीन पर लगातार पार्टी के लिए काम करते रहे हैं। धूमल को टिकट नहीं मिलने से पार्टी के एक बड़े वर्ग ही नहीं, जनता में भी मायूसी है। इसका भाजपा के मिशन रिपीट पर विपरीत असर पद सकता है।

पंजाब में सरकार बनाने के बाद आप को भरोसा था कि हिमाचल में उसको चुनाव में लाभ मिलेगा। लेकिन हाल के महीनों में पार्टी इस पहाड़ी राज्य में अपना आधार नहीं बना पायी। उसके पास कोई ऐसा नेता नहीं, जो उसका मज़बूत नेतृत्व कर सके। यहाँ तक कि उसके पास मज़बूत उम्मीदवार भी नहीं हो पाये। ऐसे में वह कितनी सीटें जीत सकेगी या कितने फ़ीसदी मत (वोट) ले सकेगी, यह देखना दिलचस्प होगा। साथ ही यह भविष्य में उसकी सम्भावनाएँ भी तय करेगा।

गाँधी परिवार कहाँ?

काफ़ी साल बाद कांग्रेस को ग़ैर-गाँधी अध्यक्ष मिलने के बाद सभी के मन में यह सवाल उठा कि क्या अब गाँधी परिवार पार्टी में अप्रासंगिक हो गया? इस सवाल का एक ही जवाब नहीं कि ऐसा बिलकुल नहीं है। अध्यक्ष पद सँभालने के बाद खडग़े ने तो यह कहा ही कि पार्टी के लिए गाँधी परिवार हमेशा महत्त्वपूर्व रहेगा। पार्टी के अधिकांश नेता भी मानते हैं कि गाँधी परिवार की पार्टी में भूमिका को $खत्म करने का मतलब होगा, पार्टी को शून्य कर देना। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कांग्रेस को नये विचार और नेतृत्व की ज़रूरत थी; लेकिन यह भी सच है कि यदि कांग्रेस के भीतर देशव्यापी पहचान किसी नेता की है, तो वह गाँधी परिवार के ही नेता हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि हाल के वर्षों में भाजपा की तरफ़ से इतने झटके मिलने के बाद भी गाँधी परिवार के ही कारण कांग्रेस मज़बूती से अपना अस्तित्व बनाये रख पायी है।

भाजपा यदि आज भी किसी पार्टी या नेता से ख़ुद के लिए चुनौती मानती है, तो वह कांग्रेस और गाँधी परिवार ही है। यहाँ तक कि खडग़े को भी राहुल गाँधी की पसन्द माना जाता है। भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गाँधी दक्षिण राज्यों में जैसे भीड़ खींचने में सफल रहे हैं, उसकी चर्चा अब हर जगह है। यह कहा जाने लगा है कि भविष्य के चुनावों में कांग्रेस दक्षिण में बहुत बेहतर नतीजे ला सकती है। लिहाज़ा इन तमाम हालात में यह तो साफ़ है कि कांग्रेस में गाँधी परिवार की भूमिका हमेशा रहेगी। उनके प्रति वफ़ादार नेताओं में ज़्यादातर ऐसे हैं, जिनका ज़मीनी आधार भी है। ख़ुद खडग़े को इस श्रेणी में रखा जा सकता है। जबकि हाल के महीनों में जिन नेताओं ने विरोध का स्वर उठाया था, उनमें से कई ऐसे हैं, जिनकी राजनीति हाल के वर्षों में राज्यसभा तक सीमित रही है।