आरएसएस को भीतर से जानने की कोशिश

तकरीबन 35 साल पहले भारतीय राजनीति का भूभाग बेहद या कहें पूरी तौर पर एकदम अलग सा था। तब कांग्रेस प्रणाली की राजनीति थी। तभी 1984 में हुए चुनाव। मतदाताओं ने एक प्रभावशाली नतीजा दिया। जनता पार्टी की लाइन से एकदम अलग एक ऐसा कि विपक्ष छोटे-बड़े दलों में एकता की संभावना बनी। कांग्रेस विरोधी खेमेबंदी 1988 में और मज़बूत हुई। वजह थी राजीव गांधी की कुछ भूलें और कुछ बेहद महत्वपूर्ण विषयों का गलत फैसले। भारतीय जनता पार्टी यानी बीजेपी तो जनता दल से बाहर थी। नए विपक्षी गठजोड को जनता पार्टी कहा जाता था। इसकी अलग कोई पहचान नहीं थी।

भाजपा की गैर हाजिरी का पार्टी के उन नेताओं पर खासा असर पड़ा था। जो जनता पार्टी में रहते हुए निशाने पर लिए गए थे, क्योंकि उनका जुड़ाव राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ (आरएसएस) से था। लेकिन भाजपा नेताओं ने जनता दल के साथ राजनीतिक संबंध रखे थे। वे इससे गहराई से जुड़े नहीं थे। उन्हें उम्मीदें थी कि इससे पदों में नाटकीय बदलाव संभव है। 1980 के दशक के आखिरी दौर में एक कम महत्वपूर्ण राजनीतिक पार्टी की तुलना में भाजपा दो चुनावों में यानी 1989 और 1991 में अच्छा खासा उभार लेकर आई। खास तौर पर राममंदिर का मुद्दा, जिस मुद्दे को भाजपा और सहयोगी विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने खासा उभार दे दिया था।

हालांकि वीएचपी ने 1983 में यह आंदोलन छेड़ा। लेकिन 1980 के दशक के मध्य में ही इसने गति पकड़ी जब विवादित ढांचे के ताले मजिस्ट्रेट के आदेश पर खोले गए। उसके बाद तो श्रद्धालुओं की तादाद बढ़ती गई। स्थानीय मीडिया तो पहले से ही सक्रिय था अब राष्ट्रीय भी खासी रुचि लेने लगा। आरएसएस के संस्थापक केबी हेडगेवार की जन्म शताब्दी खासी धूमधाम से पूरे देश में मनाई गई। तब मीडिया ने और विश्वविद्यालय परिसरों में उनके बहाने कुकरमुत्तों की तरह उगी छोटी-छोटी संस्थाओं ने जन्म शताब्दी के बहाने हेडगेवार को जाना समझा। इन्हीं संस्थाओं को बाद में संघ परिवार नाम दे दिया गया। इनके विद्वतापूर्ण संकलन भी अलबत्ता आने शुरू हो गए। संघ के महत्वपूर्ण दूसरे नेताओं की जीवनियां भी आने लगी। हालांकि इनमेें जो भी सामग्री थी उसमें गुणवत्ता, आलोचनात्मक नज़रिए का अभाव बहुत रहा।

भारत में आरएसएस के जन्म, विकास और फैलाव पर काफी पुस्तकें तो आई, लेकिन वाल्टर के एंडऱसन और उनके सहयोगी श्रीधर डी दामले की पहली पुस्तक, ‘ब्रदरहुड इन सैफरॉन: राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ एंड हिंदू रिवाईवलिज्मÓ का प्रकाशन तभी हुआ। इस किताब ने एक संगठन और उसके राजनीतिक भाईचारे पर खासी रोशनी डाली जो तब अंधेरे में थी।

भारतीय दक्षिणपंथी राजनीति को जानने समझने के लिए तब यही एक प्रामाणिक पुस्तक मानी जाती थी। इसके जरिए ही देश में दक्षिणपंथ के प्रति लोगों में झुकाव भी बढ़ा। इस किताब के लेखक वाल्टर के एंडऱसन ने तो अमेरिकी विदेश विभाग की ओर से कई पदों पर काम करते हुए देश में कई वर्ष बिताए। जबकि श्रीधर डी दामले ने संयुक्त राज्य में रहते हुए कई वर्ष शोध में गुजारे। इनकी पहली पुस्तक खासी चर्चा में रही। देश-विदेश में उसका महत्व समझा भी गया।

अभी हाल में इन्ही दोनों लेखकों की नई पुस्तक पेग्विन से आई है। इसका शीर्षक है ‘द आरएसएस: ए व्यू टू द इनसाइडÓ। आज जिस व्यापक तरीके से आरएसएस संगठन का फैलाव हुआ है, साथ ही इस परिवार की पूरे देश के प्रांत-प्रांत में संघ परिवार का जो विकास दिखता है उस लिहाज से यह किताब बड़ी अधूरी लगती है। अब आरएसएस सिर्फ सांस्कृतिक संगठन नहीं है बल्कि आज देश की राजनीति में इसकी इतनी महत्वपूर्ण भूमिका है कि यह सिर्फ अपनी राजनीतिक पार्टी भाजपा ही नहीं बल्कि उससे गठबंधन रखने वाली दूसरी पार्टियों के नेताओं के साथ मिल बैठ कर नीति बनाती है। पिछले 25 साल में हुआ है आरएसएस का यह विकास। कभी सोचा भी नहीं गया था जब पुराना संघ और जनसंघ पार्टियां थी। आरएसएस की ही अब एक और पारिवारिक इकाई सी है ‘स्वदेशी जागरण मंचÓ। यह नव उदारवाद के विरोध में काफी समय से खड़ी रही। लेकिन अब लगभग निष्क्रिय है। पिछले तीन दशक में देश में केसरिया उभार इतना जबरदस्त रहा है कि उसे एक छोटी सी किताब में पिरोया नहीं जा सकता। क्योंकि जो कुछ भी हुआ उसका असर न सिर्फ आरएसएस और भाजपा पर पड़ा है बल्कि देश और इसकी राजनीति पर भी पड़ा है।

शायद इस बात को ही ध्यान में रख कर लेखकों ने एक किताब में दो हिस्से बना दिए हैं। पहला भाग है जहां उनकी पहली किताब में संघ परिवार में बदलाव की बात खत्म होती है। दूसरा अध्याय है जहां लेखक ‘केस स्टडीÓ करते हैं। यह कह सकते है कि विषय पहले से ही सोच लिए गए – जैसे मुसलमानों से व्यवहार, जम्मू और कश्मीर, गौरक्षा के बहाने, आर्थिक सुधार, राम मंदिर और गोवा में छोटा विरोध आदि। लेकिन किताब कतई यह नहीं बताती कि किस ओर आरएसएस जा रही है और इसके सामने क्या चुनौनियां हंै। लेखक बंधु केसरिया परिवार में ऊपर तक अपनी पहुंच बताने में कहीं झिझके नहीं। इनमें मोहन भागवत हैं और नरेंद्र मोदी भी। इस बेरोकटोक प्रवेश का मुआवजा फिर अदा तो करना ही पड़ता है। एंडरसन की मुलाकात 1970 और 1980 के दशक में एमएस गोलवलकर और आरएसएस के दूसरे नेताओं से हुई। लेकिन तब का जमाना और था। तब आरएसएस को किसी ऐसे की जरूरत थी जो उनकी राजनीति और उनकी सोच को बाहरी दुनिया को बता सकें। अब वैसी स्थिति नहीं है, क्योंकि इसके नेता अब तो यह मानते हैं कि दुनिया खुद उन तक आएगी।

इस किताब की खासियत है कि यह पाठकों पर है कि वे खुद निष्कर्ष निकालें। जिस तरह तर्क है और तथ्य दिए गए हंै। पाठकों को भी यह आज़ादी है कि वे आलोचनात्मक विश्लेषण करें। इस पुस्तक में आरएसएस का संविधान भी है। उसे पढ़ा जाना चाहिए।