आम लोगों के लिए मुसीबत बनी बड़ी जल परियोजनाएं

उत्तराखंड में यमुना पर लखवाड़ व्यासी परियोजना पर 6 राज्यों ने अपनी स्वीकृति दे दी है। जल संसाधन मंत्रालय के अंशकालिक मंत्री नितिन गडकरी ने कहा कि गंगा नमामि गंगा योजना के तहत यमुना को साफ रखने के लिए 24 योजनाएं हैं। जिसमें 12 मैदानी क्षेत्र में बनेंगी। लगभग चार हजार करोड़ लागत वाली इस परियोजना से तीन सौ मेगावाट बिजली उत्पादन होगा। बिजली पर पूरा अधिकार उत्तराखंड का होगा जबकि पानी छह राज्यों-उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच बांटा जाएगा। परियोजना के तहत 204 मीटर ऊंचा बांध बनाया जाएगा। 1976 में योजना आयोग की मंजूरी और 1986 में पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के बाद 1987 में जेपी समूह ने उत्तर प्रदेश ंिसंचाई विभाग के पर्यवेक्षण में 204 मीटर ऊंचे बांध का निर्माण शुरू किया। 1992 में जेपी समूह पैसा न मिलने को लेकर परियोजना से अलग हो गया। 2008 में केंद्र सरकार ने इसे राष्ट्रीय परियोजना घोषित किया, जिसके तहत 90 फीसद धन केंद्र सरकार खर्च करेगी और बाकी दस फीसद राज्य करेंगे। 300 मेगावाट बिजली को इससे अलग रखा गया। यमुना पर महाकाय बांधों में 214 मीटर ऊंचा किसाउ बांध भी प्रस्तावित है।

कुमांउ क्षेत्र में भारत व नेपाल के बीच बहने वाली महाकाली नदी पर 315 मीटर उंचा पंचेश्वर बांध और 95 मीटर उंचा रुपाली गाड बांध को बहुउद्देशीय परियोजना बनाए जाने का प्रस्ताव है। इस परियोजना की जनसुनवाई में पर्यावरणीय कानूनों, लोगों की जानकारी के मौलिक अधिकार व न्यूनतम जनतांत्रिक अधिकारों को तिलांजलि दे दी गई। सामाजिक आकलन की प्रक्रिया के लिए गांवों में समिति बनाने और खुली बैठक करने की प्रक्रिया का भी पालन नहीं किया गया। फिर भारत और नेपाल के बीच भी बहुत सारे पेच फंसे हैं। विस्तृत परियोजना रिपोर्ट भी पूरी नहीं हो पाई है। जनसुनवाई के बाद रूपाली गाड परियोजना के बांध स्थल की जगह दो किलोमीटर बदल दी गई।

बड़ी बांध परियोजनाओं से देश को बहुत ज़्यादा फायदा देने के दावे किये गये हैं। इसी साल जून में यमुना की सहायक टौंस नदी और उसकी सहायक सुपिन नामक छोटी सी नदी पर 44 मेगावाट के बांध की जनसुनवाई 12 जून, 2018 को आयोजित की गई। जहां मात्र आंकड़ों के अनुसार पांच गांव की ज़मीन ही प्रभावित दिखाई गई। इसकी पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंधन योजना और सामाजिक आकलन रिपोर्ट 650 पन्नों की है। बांध कंपनी और सरकार ओर से वही किया गया जो पंचेश्वर परियोजना में किया गया था। किंतु यहां लोगों के सख्त विरोध के कारण जनसुनवाई नहीं हो पाई। कई अन्य बांध परियोजनाओं में भी यही किया गया। किसी तरह जनसुनवाई कर ली गई और बाद में लोग परेशान हैं पुनर्वास और पर्यावरण की समस्याओं को लेकर।

उत्तराखंड में जो भी मुख्यमंत्री आता है उसकी प्राथमिकता किसी तरह बांधों के मुद्दे पर ही आगे बढऩे की रही है। मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र ने भी उसी परंपरा का निर्वाह करते हुए सत्तासीन होने के तुरंत बाद लखवाड़ व्यासी परियोजना और अन्य परियोजनाओं पर केन्द्र से बात की। पिंडर नदी पर प्रस्तावित है 252 मेगावाट का देवसारी बांध, इसमें पांच मेगावाट की एक जलविद्युत परियोजना डूब रही है।

सभी मुख्यमंत्री, सभी सांसद व विधायक बड़े बांधों की पैरवी कर रहे हैं। किंतु जल विद्युत परियोजनाओं से जुड़े पर्यावरणीय और जनहित के सवालों को सुलझाने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव नजर आता है।

किसी भी बांध परियोजना में न तो पर्यावरणीय नियम कानूनों का पालन किया जा रहा है न ही बन चुकी परियोजनाओं की लंबित समस्याओं के समाधान के लिए कोई गंभीर प्रयास नज़र आता है। गंगा घाटी में चल रही लगभग दस बड़ी और 46 परियोजनाओं की यही स्थिति है।

हाल ही में राज्य की ऊर्जा सचिव ने यह कहा है कि राज्य को 1,000 करोड़ की बिजली खरीदनी पड़ रही है। जिसके लिए नए बड़े बांधों की आवश्यकता को सही सिद्ध किया जा रहा है। किन्तु पुराने बांधों की समस्याओं के समाधान पर क्यों कोई बात ही नही करना चाहता?

टिहरी बांध से जुड़े प्रश्नों की सूची ही बहुत लंबी है जिनमें से कुछ ज्वलंत सवाल सामने है। भागीरथी और भिलंगना नदी के 10 पुल टिहरी बांध की झील में डूबे जिसके बदले में चार पुल बनने थे। जो 12 वर्ष के बाद भी अभी तक पूरे क्यों नहीं हुए? सरकार को बताना होगा 2005 से टिहरी बांध का काम चालू हो गया था। पुनर्वास पूरा न होने के कारण 2017 नवंबर में बांध के जलाशय को 815 मीटर की ऊंचाई तक ही रखने का फैसला किया गया यानी 815 मीटर के बीच के लोगों का भविष्य अनिश्चित और असुरक्षित कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल शपथ पत्र के अनुसार 418 लोगों को भूमि आधारित पुनर्वास क्यों नहीं दिया? बांध जलाशय के दोनों तरफ के लगभग 40 से ज़्यादा गांव नीचे धसक रहे हंै जिन गंावों में मकान गिर गए, भूस्खलन हुआ, उनका मुआवजा भी अभी तक क्यों नही दियां? टिहरी बांध की झील में तार बाड़ न होने के कारण कितने ही लोग और मवेशी मारे गए हैं। टिहरी बांध जलाशय के ऊपर हरित पट्टी का पता नहीं। इन गांवों के लिए प्रस्तावित सम्पाषर्विक नीति पर आगे काम क्यों नहीं बढ़ा? जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने इसकी जिम्मेदारी केंद्र, राज्य सरकारों व पुनर्वास निदेशक पर डाली है। हरिद्वार के पुनर्वास स्थलों के हजारों विस्थापितों को आज तक भूमिधर अधिकार क्यों नहीं दिया गया? जबकि 2003 में राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर यह अधिकार तुरंत देने की बात कही थी।

ज़्यादातर ग्रामीण पुनर्वास स्थलों पर जैसे सुमननगर और शिवालिक नगर में बहुत कम लोग बचे हैं। सुमननगर में पानी की समस्या है, शिवालिक नगर के विस्थापितों ने अपनी सारी ज़मीनें बेच दी है चूँकि वहां मूलभूत सुविधायें नहीं थी। यहंा रहने वाले प्रभावित वापस चले गए। यानी समाज पूरी तरह से बिखर गया। ये शब्द पूरी स्थिति नहीं कह पा रहे हैं। क्योंकि समाज का बिखरना इतनी आसानी से लोगो को समझ में नहीं आ पाता।

टिहरी बांध से व्यापारियों खास कर ग्रामीण व्यापारियों की स्थिति बहुत खऱाब हुई। उनका आकलन सही नहीं हो पाया था और जहाँ पर उनकों पुनर्वास दिया गया और दुकानें दी गयी, वे दुकानें चलने जैसी स्थिति में नहीं थी। टिहरी बांध विस्थापित क्षेत्र 45 किलोमीटर भागीरथी घाटी में और 25 किलोमीटर भिलंगना घाटी में है। भागीरथी घाटी का छाम बाजार व भिलंगना घाटी का घोंटी बाजार पर 25-25 से ज़्यादा गांवों के आश्रित थे। इन बाजारों का काम चारधाम यात्रामार्ग से भी बहुत चलता था।

ग्रामीण व्यापारियों का सर्वे बहुत आंदोलनों के बाद हो पाया। मुआवज़ा भी सही से नही मिल पाया और दुकानें किसी को कहीं मिली तो किसी को कहीं मिली। इस लम्बी प्रक्रिया में लोगों ने अपनी आजीविका खो दी। जहां दुकानें मिली वहंा ग्राहक नहीं हैं। तो दुकानदार क्या करेंगे?

शहरी विस्थापन के लिये जो टिहरी शहर बसाया गया वहां पर भी 40 प्रतिशत ही पुरानी टिहरी शहर के लोग हंै। बाकी अलग-अलग जगह से आये। जो व्यापारी थे उनका व्यापार छूटा या बेच कर कहीं चले गए। लोगों को वापस बसने और व्यापार बसाने में भी एक लम्बा समय लग गया।

उत्तराखंड के दूसरे तमाम बांधों की समस्याओ का समाधान क्यों नहीं किया? मनेरी भाली एक और दो कि अनियमितताओं के कारण छह से ज्यादा लोग मारे गए हैं। एक मज़बूत निगरानी व्यवस्था की ज़रूरत है। श्रीनगर बांध में अलकनंदा नदी का पानी रोक दिया गया। बांध से शहर की ज़रूरत के लिए पानी की उचित व्यवस्था नहीं है। लोगों के मुआवजें रुके हुये है। अलकनंदा, भागीरथी और दूसरी नदियों में बांध कंपनियां पर्यावरणीय मानकों का उल्लंघन करते हुए मलबा डाल रही हैं। एनजीटी के जुर्माना लगाने पर सरकार बांध कंपनियों के ही पक्ष में खड़ी नजर आती है। विष्णुप्रयाग बांध की सुरंग से प्रभावित चाई व थैंग गांव के लोगों का उचित पुनर्वास क्यों नहीं किया गया? विष्णुगाड-पीपलकोटी बांध के प्रभावित अपनी जमींन मकानों की सुरक्षा के लिए आवाज़ उठाने के कारण क्यों मुकद्दमे झेल रहे हैं?

फिर परियोजना प्रभावित लोगों के लिये बनाई गई इन लाभकारी नीतियों को न तो प्रचारित किया गया न ही लागू किया गया है जिनसे उनकी समस्याओं के समाधान हो सकता है। 1-पर्यावरण और पुनर्वास की चुनौतियों का सामना करने के लिए राज्य को मिलने वाली 12 फीसद मुफ्त बिजली। 2-स्थानीय क्षेत्र विकास कोष (परियोजना प्रभावित) के लिए परियोजना से मिलने वाली एक फीसद मुफ्त बिजली। 3-प्रत्येक प्रभावित परिवार को उत्पादन चालू होने के अगले 10 वर्ष तक 100 यूनिट बिजली या उसके बराबर पैसा प्रतिमाह मिलने का प्रावधान।

अकेले टिहरी बांध से ही दो हज़ार करोड़ से ज़्यादा रुपये सरकार को 12 प्रतिशत मुफ्त बिजली से मिले हैं। राज्य में भूस्खलन से प्रभावित 350 गांवों को राज्य सरकार नहीं बसा पाई है चूँकि उनके लिए ज़मीन नहीं है। हर बारिश में तमाम जगह भूस्खलन से उजडऩे वालों की संख्या बढ़ रही है।

फिर बड़े बांधों में बिना ज़मींन दिए लाखों लोगों को उजाडऩे के लिए सरकार क्यों इतनी जल्दी कर रही है। राज्य सरकार को इस हरित राज्य में गंगा, यमुना से महाकाली नदियों तक बांधों की नई दौड़ से पहले इन सवालों का जवाब देना होगा, इन समस्याओं का समाधान करना होगा।