आपदा से लें सबक

‘तहलका’ ने अपने अंकों में उन खतरों की ओर सरकारों और सम्बन्धित अधिकारियों का ध्यान आकर्षित किया गया था, जो तेज़ी से पिघलते ग्लेशियरों के कारण पैदा हो सकते हैं। देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के वैज्ञानिकों का हवाला देते हुए ‘तहलका’ की रिपोर्ट में कहा गया था कि वैश्विक जलवायु (ग्लोबन वार्मिंग) का सबसे बड़ा सुबूत दुनिया भर के पर्वतीय ग्लेशियरों का घटना और गायब होना है। इसके बाद ‘तहलका’ (अंग्रेजी) ने एक और रिपोर्ट ‘ग्लेशियर : महाविनाश के छिपे हुए स्रोत!’ में भी यह सुझाव दिया गया कि प्रकृति और मानवता के सभी शुभचिन्तकों को बढ़ते ग्लेशियरों के पिघलने और उसके बाद आने वाली आपदाओं से सावधान रहना होगा।

‘इंडियन एक्सप्रेस’ अखबार के साथ देहरादून में रहते हुए मैंने सन् 1991 में उत्तरकाशी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर तबाही करने वाले भूकम्प की आपदा को कवर किया था। इसके बाद सन् 1978 में भागीरथी में और सन् 1970 में अलकनंदा में भीषण बाढ़ आयी थी। सन् 2013 में उत्तराखण्ड के केदारनाथ में बाढ़ की विभीषिका भी सबने देखी, जिसमें करीब पौने छ: हज़ार लोगों की जान चली गयी थी। हर उस व्यक्ति की यादों में अभी भी वो भयंकर मंज़र ताज़ा है, जिसने उसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देखा। सात साल भी नहीं बीते कि अब चमोली में इसी 7 फरवरी को जबरदस्त तबाही हुई है, जिससे न केवल पर्वतीय क्षेत्र के लोगों की रूह काँपउठी है, बल्कि दूसरे लोग भी सहम गये हैं। इस ग्लेशियर के फटने से ऋषि गंगा नदी पर 13.2 मेगावाट की छोटी पनबिजली परियोजना बह गयी और एनटीपीसी की 520 मेगावाट की तपोवन विष्णुगाड परियोजना क्षतिग्रस्त हो गयी। विशेषज्ञ ग्लेशियर के फटने के कारणों की जाँच कर रहे हैं, वहीं अधिकारी यह जाँच रहे हैं कि कहीं ग्लेशियर टूटने से जोशीमठ के पास 400 मेगावाट की विष्णुप्रयाग परियोजना और पीपल कोटि की 444 मेगावाट परियोजना को तो नुकसान नहीं पहुँचा है। बचाव कार्य जारी है।

विदित हो कि सन् 2013 की केदारनाथ त्रासदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय की तरफ से गठित एक समिति ने सिफारिश की थी कि राज्य में और अधिक बाँधों का निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। हालाँकि बावजूद इसके अलकनंदा नदी पर कई और बाँध बनाये गये हैं, जो इस बार ग्लेशियर के फटने का कारण बने हैं। यह त्रासदी चेतावनियों को नज़रअंदाज़ करने की सज़ा है और यह भी याद दिलाने की कि विकास के हमारे मॉडल में कहीं तो खामी है। उत्तराखण्ड में 98 बड़े, मध्यम और छोटे बाँध हैं और इनमें से 50 पनबिजली परियोजनाएँ अकेले अलकनंदा और भागीरथी बेसिन पर हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि इस पर बहस की नहीं, सुधार की सख्त ज़रूरत है। आपदा के कारण क्या थे? और हमने पिछली भूलों से कोई सबक क्यों नहीं लिया? ये वो सवाल हैं, जो हर संवेदनशील व्यक्ति के अन्दर उठ रहे हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार, प्रकृति की मार उतनी गम्भीर नहीं होती, यदि हिमालय क्षेत्र की नाज़ुक पारिस्थितिकी को ध्यान में रखा गया होता और इसके आधार पर ही बड़े बाँधों, होटलों और अन्य बुनियादी ढाँचों का निर्माण और उनके विकास मॉडल को तैयार किया गया होता। नाज़ुक पर्यावरण अधिक टिकाऊ मार्ग अपनाने की सलाह देता है। दुर्भाग्य से अधिकांश बड़े बाँधों में आपदा प्रबन्धन की योजना नहीं है। केंद्रीय जल आयोग के अनुसार, भारत में निर्माणाधीन 411 के अलावा 5,334 बड़े बाँध हैं। सन् 2017 की ऑडिटर जनरल की एक रिपोर्ट कहती है इन बाँधों में से केवल 349 में ही आपदा प्रबन्धन की योजना थी। निश्चित ही यह बड़ी चिन्ता का विषय है, जिस पर गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए।