आईआरएस सर्वेक्षण-2013: सर्वे पर सब रुष्ट

  • नागपुर में 60,000 की प्रसार संख्या वाले अंग्रेजी दैनिक हितवाद की पाठक संख्या शून्य है.
  • चेन्नई के बिजनेस अखबार बिजनेस लाइन की पाठक संख्या चेन्नई के मुकाबले मणिपुर में तीन गुना ज्यादा है.
  • आंध्र प्रदेश में हर अखबार की रीडरशिप 30 से 65 फीसदी तक गिर गई है.
  • हरियाणा में दैनिक हरिभूमि सबसे तेजी से बढ़ रहा हिंदी अखबार है.
  • दैनिक हिंदुस्तान पाठक संख्या के मामले में दैनिक भास्कर को पछाड़ कर दूसरे स्थान पर आ गया है.
  • मुंबई में अंग्रेजी अखबार की पाठक संख्या में 20.3% की दर से वृद्धि हो रही है, जबकि दिल्ली में अंग्रेजी अखबार की पाठक संख्या 19.5% की दर से गिर रही है.

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ये इंडियन रीडरशिप सर्वे (आईआरएस) के कुछ अविश्वसनीय आंकड़े हैं. यह सर्वे मीडिया रिसर्च यूजर्स काउंसिल (एमआरयूसी) करवाती है.  2013 की आखिरी तिमाही के इन नतीजों ने अखबारों की दुनिया में भूचाल ला दिया है. 28 जनवरी को इन नतीजों के सार्वजनिक होने के 24 घंटे के भीतर ही इंडियन न्यूजपेपर सोसाइटी (आईएनएस) ने इनको खारिज करते हुए एमआरयूसी से मांग की कि वे इस सर्वे को वापस लें अन्यथा नतीजा भुगतने के लिए तैयार रहें.

नतीजा लगभग सभी बड़े मीडिया समूहों का एमआरयूसी से संबंध तोड़ने की शक्ल में सामने आ सकता है. आईएनएस की इस धमकी से आगे बढ़ते हुए कुछ मीडिया समूहों ने एमआरयूसी के साथ अपने संबंध खत्म करने के साथ ही उसे कानूनी नोटिस भी भेज दिया है. इनमें मध्य प्रदेश का दैनिक भास्कर समूह पहला है. भास्कर समूह के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, ‘हमारी याचिका पर विचार के बाद ग्वालियर की अतिरिक्त जिला जज ने 10 फरवरी को आईआरएस के ताजा सर्वे पर प्रतिबंध लगा दिया है. कोर्ट ने एमआरयूसी को आदेश दिया है कि जब तक इस संबंध में अगला आदेश नहीं आ जाता तब तक वे अपनी वेबसाइट से यह विवादास्पद सर्वे हटा लें और साथ ही किसी भी सदस्य को इसका इस्तेमाल न करने दें.’ आईआरएस के विवादास्पद आंकड़ों के विरोध में दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, टाइम्स ऑफ इंडिया, द हिंदू, अमर उजाला, आनंद बाजार पत्रिका और मलयाला मनोरमा समेत कुल 18 बड़े मीडिया समूहों ने इसे रद्द करने का साझा बयान जारी किया है.

आईआरएस के कुछ आंकड़े वास्तव में बेहद चौंकाने वाले और अविश्वसनीय हैं. मसलन जब सर्वे पूरे देश में अखबारों की पाठक संख्या में गिरावट का संकेत दे रहा है तब एचटी समूह के तीनों प्रमुख अखबारों (हिंदुस्तान टाइम्स, दैनिक हिंदुस्तान और मिंट) में जबरदस्त उछाल देखने को मिल रहा है. एमआरयूसी ने एक और दिलचस्प आंकड़ा दिया है कि प्रति कॉपी हिंदुस्तान टाइम्स की पाठक संख्या टाइम्स ऑफ इंडिया से लगभग चार गुना ज्यादा है. प्रति कॉपी पाठक संख्या किन मानकों पर तय की गई है इसका खुलासा 13 पन्नों की आईआरएस रिपोर्ट में नहीं किया गया है.

हैरानी की बात नहीं कि प्रिंट जगत के दिग्गज इन आंकड़ों पर यकीन करने को तैयार नहीं. राज्यसभा सांसद और लोकमत अखबार के मालिक विजय दर्डा बताते हैं, ‘ये लोग (नील्सन) न जाने क्या करते हैं. मेरे अखबार का जितना सर्कुलेशन है उसकी पाठक संख्या उससे भी कम बताई है इन लोगों ने. कैसे इन पर यकीन किया जाए?’

रीडरशिप के आंकड़े समय-समय पर विवाद का विषय बनते रहे हैं. एमआरयूसी से पहले रीडरशिप के आंकड़ों का सर्वेक्षण नेशनल रीडरशिप सर्वे (एनआरएस) करवाता था. यह अपने दौर के कुछ गिने-चुने बड़े मीडिया समूहों की संस्था थी और रीडरशिप सर्वे पर इसका एकाधिकार हुआ करता था. इस एकाधिकार को तोड़ने और छोटे-मोटे मीडिया समूहों के साथ न्याय करने के मकसद से 1994 में एमआरयूसी का गठन हुआ. मुख्य विज्ञापनदाताओं, विज्ञापन एजेंसियों, प्रकाशकों और प्रसारकों से मिलकर बनी इस संस्था में फिलहाल 250 सदस्य हैं. 2006 तक ज्यादातर एडवर्टाइजर और मीडिया समूह दोनों ही (आईआरएस और एनआरएस) सर्वेक्षणों का इस्तेमाल करते थे. इस दौरान ही एनआरएस अपने आंकड़ों की अनियमितता और अवैज्ञानिक तौर-तरीकों के चलते अप्रासंगिक हो गया था. उधर, जैसे-जैसे आईआरएस का प्रभाव बढ़ रहा था उसके सर्वेक्षणों से आहत होने वालों की संख्या भी बढ़ रही थी. पर यह इतनी मुखर कभी नहीं रही जितनी आज देखने को मिल रही है.

खुद पर लग रहे आरोपों से बचने के लिए 2009 में एमआरयूसी ने सुधारवादी कदम उठाते हुए ऑडिट ब्यूरो ऑफ सर्कुलेशन के साथ हाथ मिलाया. इन्होंने मिलकर रीडरशिप स्टडीज काउंसिल ऑफ इंडिया (आरएससीआई) का गठन किया. पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से एमआरयूसी रिसर्च के बाद आंकड़ों को इसी आरएससीआई को सौंप देती है. इससे आईआरएस की साख में बढ़ोतरी हुई. 2012 के अंत में एमआरयूसी ने विश्व प्रसिद्ध बाजार सर्वेक्षण संस्था नील्सन को आईआरएस की जिम्मेदारी सौंपी. इससे पहले यह काम हंसा रिसर्च करती थी. गौरतलब है कि नील्सन वही संस्था है जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए टीआरपी के आंकड़े भी तैयार करती है जिनकी विश्वसनीयता पर हजार संदेह खड़े होते रहे हैं. विजय दर्डा बताते हैं, ‘मैं उस समय एमआरयूसी का चेयरमैन था जब नील्सन को सर्वे की जिम्मेदारी सौंपी गई. लेकिन जिस तरह का इन लोगों का कामकाज है वह सही नहीं है.’

समस्या की शुरुआत नील्सन के आने के साथ ही हुई है. लेकिन इसी दौरान ‘कुछ और’ भी हुआ है. एमआरयूसी इसी ‘कुछ और’ को अपने बचाव में इस्तेमाल कर रही है. एमआरयूसी के चेयरमैन रवि राव ने चार फरवरी को एक प्रेस रिलीज जारी करके अपनी स्थिति को स्पष्ट किया है. रिलीज का लब्बोलुआब कुछ यूं है- ‘हम पहले ही दिन से कह रहे हैं कि ताजा आंकड़ों की तुलना पिछले आंकड़ों से नहीं की जा सकती, लेकिन आईएनएस हमारी बात सुन ही नहीं रहा. सर्वे के पुराने तौर-तरीके, सैंपलिंग, इंटरव्यू, विश्लेषण आदि सब कुछ इस बार बदल गया है. 2012 तक आईआरएस के आंकड़े 2001 की जनसंख्या के आंकड़ों पर आधारित होते थे, लेकिन इस बार हमारे पास 2011 की जनसंख्या के आंकड़े मौजूद थे. इसमें तमाम पुरानी चीजें बदल गई हैं. शहरों की सीमाएं फिर से निर्धारित हुई हैं, शहरी-ग्रामीण इलाकों के मायने बदले हैं. ताजा सर्वे में जो उठापटक दिख रही है उसकी एक बड़ी वजह प्रिंट मीडिया के पाठकों में आई जबरदस्त गिरावट है. 2012 में प्रिंट के पाठकों की संख्या 35 करोड़ 30 लाख थी जो 2013 में घट कर 28 करोड़ 10 लाख रह गई है.’ एमआरयूसी के एक सदस्य 1990 के एक उदाहरण से ताजा नतीजों को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं. उनके मुताबिक 1990 में रेटिंग का डायरी सिस्टम बदल कर पीपुल मीटर सिस्टम लागू कर दिया गया था. इसके नतीजे में उस साल अलग-अलग मानकों पर लगभग 20 फीसदी तक की गिरावट देखने को मिली थी. ये सदस्य कहते हैं, ‘तब भी हम यही कहते थे कि पीपुल मीटर की तुलना डायरी सिस्टम से नहीं की जा सकती.’

इसके बावजूद ताजा आंकड़ों में जिस तरह की अनियमितताएं हैं उन्हें नजरअंदाज करना मुश्किल है. मसलन, किसी अखबार की पाठक संख्या उसकी सर्कुलेशन संख्या से कम कैसे हो सकती है या 60,000 के सर्कुलेशन वाले अखबार की पाठक संख्या शून्य कैसे हो सकती है? एक अखबार को दिए साक्षात्कार में रवि राव इन सवालों का जवाब कुछ यूं देते हैं, ‘अगर वास्तव में आंकड़ों में कुछ गड़बड़ियां हैं तो हम उन्हें सही करेंगे, लेकिन पूरे सर्वेक्षण को खारिज करना ठीक नहीं है.’

एमआरयूसी के अपने सर्वे पर अड़ने की कुछ और भी वजहें हैं. 20 सदस्यों वाली संस्था के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में पांच प्रतिनिधि महत्वपूर्ण प्रिंट मीडिया समूहों से आते हैं. इसी तरह से एमआरयूसी की टेक्निकल कमेटी भी है जिसमें छह सदस्य प्रिंट मीडिया के हैं. महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि यही टेक्निकल कमेटी आईआरएस के नए तौर-तरीकों के लिए जिम्मेदार है. एमआरयूसी का कहना है कि सर्वेक्षण की नई गाइडलाइनें इन्हीं लोगों की निगरानी में तय हुई थी. यह मई, 2012 की बात है. तब प्रिंट मीडिया के प्रतिनिधियों को इस पर कोई आपत्ति क्यों नहीं हुई?

इसकी दो ही वजहें हो सकती हैं या तो तब उन्हें इन नई गाइडलाइनों की गंभीरता का अंदाजा नहीं था या फिर वे इस प्रक्रिया में शामिल ही नहीं थे. स्वतंत्र रूप से विचार करने पर हम पाते हैं कि पहली वाली वजह ज्यादा संभव है कि उन्हें नई गाइडलाइंनों के नतीजों का अंदाजा ही नहीं था. मई, 2012 में इसकी शुरुआत हुई थी. तब एमआरयूसी और आरएससीआई ने मिलकर तय किया था कि अगला सर्वे नए तरीके से होगा. यह बात लंबे समय से सबकी जानकारी में थी. एक दिलचस्प तथ्य और भी है जिस पर अनायास ही ध्यान चला जाता है. एमआरयूसी के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स में जो पांच सदस्य प्रिंट मीडिया के हैं उनमें बिनय रॉय चौधरी हिंदुस्तान टाइम्स के हैं और कुलबीर चिकारा हरिभूमि के हैं. यह संयोग ही है कि आईआरएस के नए नतीजों में इन दोनों अखबारों को सबसे ज्यादा बढ़त मिलती बताई गई है.

जिन 18 अखबार समूहों ने सामूहिक रूप से आईआरएस के बहिष्कार की घोषणा की है, उनकी सबसे बड़ी मजबूरी है 22,400 करोड़ रु. का सालाना विज्ञापन राजस्व जिसका बंटवारा इसी सर्वे के आधार पर होता है. दैनिक भास्कर समूह के निदेशक गिरीश अग्रवाल एक अखबार को बताते हैं, ‘एक बार सार्वजनिक हो जाने के बाद यह सर्वे सिर्फ व्यक्तिगत राय नहीं रह जाता बल्कि ब्रह्मवाक्य हो जाता है.’ देश भर के एडवर्टाइजर और मीडिया एजेंसियां इन आंकड़ों का इस्तेमाल ऐड रेवेन्यू के बंटवारे के लिए करती हैं. जाहिर है इन नतीजों में किसी भी बड़े फेरबदल का इस्तेमाल मीडिया और ऐड एजेंसियां मोलभाव के लिए करेंगी. यही कारण है कि लगभग 80 फीसदी प्रिंट मीडिया संस्थानों ने एमआरयूसी के साथ रिश्ते तोड़ लिए हैं. लगभग सबने एमआरयूसी को कानूनी नोटिस भी भेज दिया है.

अब सवाल यह है कि अगर गतिरोध बना रहा तो फिर आगे किस आधार पर प्रिंट मीडिया समूह और ऐड एजेंसियां आपस में लेन-देन करेंगे. क्या आने वाले दिनों में एक नई मीडिया सर्वेक्षण संस्था की नींव पड़ सकती है? मीडिया ट्रेंड और विज्ञापन जगत की गतिविधियों से जुड़ी ‘समाचार 4 मीडिया’ नाम की वेबसाइट के संपादक अनुराग बत्रा बताते हैं, ‘मर्डर कर दिया है आईआरएस ने. एडवर्टाइजर आईआरएस के आधार पर ही विज्ञापन राजस्व का बंटवारा करते थे. लेकिन ऐसा पहली बार हुआ है कि ऐड एजेंसियों ने गड़बड़ियों के सामने आने के बाद इस सर्वे को नजरअंदाज कर दिया है. कोई भी इसे गंभीरता से नहीं ले रहा है. आगे कोई नया रास्ता निकलेगा. विज्ञापन बांटने के लिए किसी न किसी आधार की जरूरत तो पड़ेगी ही. मेरा मानना है कि जब समुद्र मंथन होता है तब कुछ अच्छी चीजें बाहर निकलती हैं.’

फिलहाल दोनों पक्षों के बीच गतिरोध बना हुआ है. एमआरयूसी ने कानूनी नोटिसों और प्रिंट मीडिया समूहों के भारी दबाव के बावजूद आईआरएस को वापस लेने से इनकार कर दिया है. रवि राव ने जो प्रेस रिलीज जारी की है उसके मुताबिक – ‘सर्वेक्षण के नतीजों पर अब आरएससीआई का अधिकार है. एमआरयूसी के पास अब एकतरफा सर्वे को वापस लेने की आजादी नहीं है विशेषकर ऐसी कठिन परिस्थितियों में जैसी इस समय बन गई हैं. एमआरयूसी बेसब्री से आरएससीआई की आगामी 19 फरवरी को होने वाली बैठक का इंतजार कर रही है. सर्वे के सभी नतीजों पर उसी दौरान आरएससीआई विचार करेगी.’ यानी 19 फरवरी तक एमआरयूसी अपने सर्वेक्षण से किसी भी तरह से पीछे हटने को तैयार नहीं है. दूसरी तरफ प्रिंट मीडिया संस्थानों का हुजूम है जो कतई इंतजार नहीं कर सकता. आखिर उसका इतना बड़ा हित जो दांव पर लगा है.