आँख के अन्धे

सच की अनदेखी करके उसे झूठ में उसी तरह नहीं बदला जा सकता, जिस प्रकार से आँखें बन्द करके सूर्य के प्रकाश को समाप्त नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार लाख दलीलों और कोशिशों के बाद भी झूठ को सच में उसी तरह नहीं बदला जा सकता, जिस प्रकार रात में करोड़ों दीप जलाने पर भी रात को दिन में नहीं बदला जा सकता। विद्वत्तजन मानते हैं कि न तो सब कुछ झूठ है और न ही सब कुछ सच है। परन्तु सच क्या है? यह सबकी समझ में कभी नहीं आया, और न कभी आयेगा। जो जितना जानता है, उसे उतना ही सच लगता है। धर्म-अधर्म को भी इसी तरह समझा और परखा जा सकता है।

प्रश्न यह है कि धर्म क्या है? इसकी परिभाषा क्या है? धर्म सम्मत् व्यवहार ही धर्म है। धर्म सम्मत् व्यवहार क्या है? जो दूसरों का मन, कर्म, वचन से अहित न करे, वही धर्म सम्मत् है। इसीलिए मानवता को सर्वोपरि धर्म कहा गया है। परन्तु अब लोग ढोंग अर्थात् ड्रामेबाज़ी को धर्म समझते हैं, जबकि ढोंग धर्म नहीं है। वेशभूषा भी धार्मिकता नहीं है। न ही ईश्वर की उपासना मात्र धर्म है। ईश्वर की उपासना तो भक्ति मार्ग है, जो व्यक्ति को विनम्र बनाती है और धर्म के मार्ग पर लाने के लिए इंद्रियों की शुद्धि का साधन भर है। फिर लोगों में धर्म को लेकर भ्रम क्यों है? यह भ्रम लोगों के मन तथा बुद्धि पर पड़े अर्थ, काम, मोह, लालच, स्वार्थ जैसे कई परदों के कारण है; जिसका कारण संसार की माया है, जो कि सिवाय क्षणिक मिथ्या के और कुछ नहीं है। इसीलिए धर्मों में संसार को नश्वर और मिथ्या कहा गया है।

विडम्बना यह है कि इस दुनिया के अधिकतर लोग धर्म के मामले में गुमराह हैं। वे अन्धों की तरह भटक रहे हैं। क्योंकि धर्म आंशिक रूप से ही उनकी समझ में आया है। इसीलिए वे अंधविश्वासी हो गये हैं। ऐसे ही लोगों के लिए कहा गया है- ‘आँख के अन्धे, नाम के नैनसुख’। क्योंकि लोग धर्म को जाने बग़ैर ही धर्म का झण्डा उठाये घूम रहे हैं। यही वजह है कि लोग विनम्र होने के बजाय कट्टर और अराजक होते जा रहे हैं। उन्हें उनके कथित धर्म की किताबों या उनकी पसन्द के ईश्वर, जो केवल नाम मात्र है; के बारे में टिप्पणी बुरी लगती है और वे हिंसा पर उतर आते हैं। परन्तु वे उसी ईश्वर को दूसरी भाषा में पुकारे जाने पर स्वयं ख़ूब गालियाँ देते हैं।

कह सकते हैं कि लोगों को वास्तविक ईश्वर और धर्म की समझ नहीं है। क्योंकि वे धर्म और ईश्वर को किताबों में ढूँढते-समझते हैं। समझना यह है कि धर्म किताबों में लिखे हुए नियमों का पालन करना ही नहीं है, बल्कि ईमानदारी, मेहनत, कर्तव्य परायणता, न्यायोचित व्यवहार, परोपकार, परसेवा, परहित और पररक्षा भी धर्म के आवश्यक नियम हैं। परन्तु अगर कोई दुष्ट हो, तो उसे दण्ड देना भी धर्म सम्मत् होता है। इसीलिए कहा गया है कि धर्म समय, परिस्थिति तथा आवश्यकता के आधार पर तय होता है। अर्थात् धर्म काल तथा परिस्थिति के आधार पर बदलता रहता है। आज वेदों के सिवाय जितने भी धर्म ग्रन्थ हैं, वे पूर्वकाल के समय, परिस्थिति तथा आवश्यकताओं के आधार पर तय किये गये थे। क्योंकि वेद भक्ति, आध्यात्म, सत्य, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, परहित, कर्तव्य, ज्ञान, विज्ञान, सामाजिक व्यवस्था, स्वास्थ्य, न्याय, अधिकार, सम्मान आदि का मिश्रण हैं। परन्तु अन्य धर्म ग्रन्थों में भक्ति मार्ग की अधिकता है, जिसके लिए लिप्सा, भोग, लालच, मोह तथा स्वार्थ का त्याग करना पड़ेगा। कई धर्म ग्रन्थों में तो ईश्वर की चाटुकारिता की पराकाष्ठा को छू लिया गया है। उसकी स्तुति, प्रार्थना या इबादत के नाम पर उसके गुणगान के सिवाय कुछ नहीं है।

प्रश्न यह है कि अगर ईश्वर हमारा परमेश्वर है; हमारा पालनहार है; हमारा पिता है, और उसका हमारा जन्म-जन्मांतर का साथ है; तो हमें उसकी चिरोरी करने की क्या आवश्यकता है? हमें तो स्वयं को उसके प्रति समर्पित होने भर की आवश्यकता है। अपने आपको उसके चरणों में रख देने भर की आवश्यकता है। परन्तु हम उससे गिड़गिड़ाते हैं कि वह हमारे सब काम कर दे। उसके आगे गिड़गिड़ाते हैं कि वह हमें दुनिया का सबसे बड़ा, सबसे सामथ्र्यवान और सबसे धनवान इंसान बना दे। वह भी इसलिए, क्योंकि हमने उसे याद किया। हमने उसकी उपासना की। हमने उसे वो चीज़ें समर्पित कीं, जो उसी ने हमें दी हैं। अगर कुछ मिल जाये, तो तुर्रा यह कि यह मैंने किया है। यह कैसी मूर्खता है? यह मूर्खता आयी कहाँ से? क्योंकि लोग भटक गये हैं। धर्म से भी भटक गये हैं और कर्म से भी भटक गये हैं। दरअसल अब लोग आध्यात्म से हटकर आधुनिकतावादी हो गये हैं और ढोंग करने में लगे हुए हैं। यही वजह है कि आधे-अधूरे ज्ञान वाले अब धर्म की अगुवाई कर रहे हैं। और जो धर्म को समझते हैं, वे या तो चुप हैं, या संसार से विरक्त हैं।