असमंजस!

आज कल के समाचार नाम बदलने की सरकारी नौटंकियों से भरे पड़े हैं। इसी कड़ी में अगला शिकार हो रहा है शिमला। शिमला को किसी भी तरह ‘श्यामला’ करने की कोशिश शुरू हो गई है। मुझे बताइये कि क्या नाम बदलने से इस पहाड़ी नगर में लोगों के लिए जन सुविधाएं बढ़ जाएंगी, क्या बंदरों का आतंक कम हो जाएगा या उन्हें पूरा पानी मिलने लगेगा।

शिमला जो किसी समय पहाड़ों की रानी के नाम से विख्यात था अब केवल गलत कारणों से जाना जाने लगा है। अब इसका नाम बदलने का झटका दिया जा रहा है। जरा आराम से बैठ कर सोचें इस के परिणाम क्या होंगे- शिमला समझौता क्या श्यामला समझौता बन जाएगा। आपको अपनी यात्रा के लिए कुछ अतिरिक्त शब्दों का बोझ भी ढोना पड़ेगा। आप कहोगे श्यामला – पहाड़ी स्टेशन। लोगों के किए कई प्रकार की दुविधाएं पैदा हो जाएगी।

पता नहीं हमारी मौजूदा सरकार क्यों शहरों, कस्बों और गावों के नाम बदलने की लगी है। शायद लोगों का ध्यान ज़मीनी हकीकतों से भटकाने के लिए। भ्रष्ट अनुबंध और विकासहीनता की तस्वीर को छुपाने की कोशिश भी इसके तहत की जा रही है। अपने भ्रष्ट कार्यों को छुपाने के लिए यह कदम एक और चादर का काम करेगा। यदि यह दक्षिण पंथी सरकार संस्थाओं और विभागों के नाम तक बदल दे तो भी कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए। इसकी शुरूआत वे सीबीआई का नाम बदलने से भी कर सकते हैं। इसके माध्यम से वे हमारा ध्यान उस भारी भ्रष्टाचार से हटाने की कोशिश कर सकते हैं तो अब सरेआम उजागर हो रहा है।

मोदी सरकार में मंत्री गिरिराज जैसे लोग सांप्रदायिक ज़हर उगलने के साथ उन गली, मोहल्लों और सड़कों के उन नामों को बदलने में लग गए है जिनमें मुगलों की तरह के नामों की महक आती है। यह एक बड़ा झड़का हो सकता है। जब फासीवादी ताकतें सत्ता में हों तो उनसे और क्या अपेक्षा की जा सकती है। जब गिरिराज जैसे लोग भड़काऊ बातें करते हैं और उन्हें रोकने के लिए कोई आगे नहीं आता तो इसमें हैरानी की कोई बात नहीं होती।

कल को ये उन्मादी शासक अल्प संख्यक लोगों पर यह कहते हुए हमले कर सकते हैं कि उनके नाम और उपनाम ‘विदेशी’ हैं। आपको याद होगा कि इन लोगों ने सैफ अली खान और करीना के बेटे का नाम तैमूर रखने पर कितना बवाल किया था। हैरानी की बात है इस मुद्दे पर हमारे टेलिवीज़न पर कई बार  बहस सुनने को मिली। एक हिंदुवादी ने तो यहां तक कहा कि बच्चे का नाम समीर होना चाहिए। क्यों? क्योंकि यह नाम हिंदू भावना के भी अनुकूल है।

यदि नाम बदलने की इस नौटंकी को जल्दी ही बंद नहीं किया गया तो देश में आराजकता फैल जाएगी। यदि यह राजनीतिक, माफिया ताजमहल, फतेहपुर सीकरी, हमायुं का गुंबद, लाल किला, पुराना किला, जामा मस्जिद, वगैरा के नाम बदलवाने पर भी उतारू हो गया तो क्या होगा? यह सूची लंबी है क्योंकि मुगल बदशाहों ने यहां हमलावर विजेताओं की तरह शासन नहीं किया बल्कि उन राजाओं की तरह किया जो यहां की माटी और लोगों  के साथ जुड़े रहे। उनके द्वारा विभिन्न शहरों और कस्वों में बनाए गए शानदार स्मारक और बाग बगीचे इस बात का प्रमाण है कि वे लोग भारत की माटी से जुड़ गए थे। क्या दक्षिण पंथी शासक मशहूर स्थलों से मुगल गार्डन हटा देंगेऔर राष्ट्रपति भवन में मुगल गर्डन का भविष्य क्या होगा?

नाम बदलने की तबाही उत्तर प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र में शुरू हो गई है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इलाहाबाद का नाम बदल कर प्रयागराज कर रहे हैं। इसके अलावा उनकी सूची में और भी कई नाम हैं। मुगल स्मारकों के प्रति योगी सरकार की घृणा इसी बात से स्पष्ट हो जाती है कि 2017-18 के सालाना बजट में ‘हमारी सांस्कृतिक विरासत’ के तहत ताज महल का जि़क्र तक नहीं है। वित्तमंत्री के 63 पन्नों के भाषण में एक स्थान पर भी ताजमहल का नाम नहीं आया। ताजमहल  के प्रति यह घृणा उस समय है जब यह स्मारक दुनियां के सात अजूबों में शामिल है और इसे देखने हर साल लाखों पर्यटक आते है और इससे सरकार को करोड़ों रु पए की आय होती है। योगी आदित्यनाथ ने कई बार  सरेआम कहा है कि मुगल बादशाह शाहजहां ने जो यह ताजमहल बनाया है वह भारत की पुरानी संस्कृति को प्रतिबिंधित नहीं करता। उन्होंने यह भी कहा कि यहां आने वाले विदेशी गणमान्य व्यक्तियों को ताजमहल के स्वरूप भेंट नहीं किए जाएंगे। इसके बदले उन्हें हिंदू शास्त्रों की प्रतिलिपियां दी जाएंगी।

और राजस्थान में तो सरकार की मुगलों के प्रति अपनी घृणा इस हद तक दिखा दी वहां की सरकार ने तो छात्रों को $गलत इतिहास पढऩा शुरू कर दिया। उन्होंने इतिहास में लिखा कि लगभग 450 साल पहले हल्दीघाटी में जो युद्ध हुआ था उसने राजपूत राजा महाराणा प्रताप ने अकबर की सेना को हरा दिया था। यह तथ्यात्मक और ऐतिहासिक रूप से $गलत है। इतिहासकार इस बात के ऐतिहासिक प्रमाण देते हैं कि मेवाड़ का राजा महाराजा प्रताप उस लड़ाई से भाग गया था, हालांकि उसने बाद में मुगलों के खिलाफ गुरीला लड़ाई जारी रखी।

राजस्थान सरकार की मुगलों के प्रति घृणा इस बात से भी झलकती है कि उसने पिछले साल स्कूल की किताबों में परिवर्तन करके सम्राट अकबर के नाम से पहले लगने वाला शब्द ‘महान’ हटा दिया। इसी प्रकार उसने दुनिया भर में मशहूर ‘अजमेर का किला’ का नाम ‘अकबर का किला’ से बदल कर ‘अजमेर का किला व संग्राहालय’ रख दिया। इस फैसले में किसी इतिहासकार और शिक्षाविदों की समिति को शामिल नहीं किया। यह काम राजस्थान के शिक्षा मंत्री वासुदेव देवनानी के आदेश पर हो गया। यह किला बादशाह अकबर ने 1570 में बनाया था। इसे राठौरों, मराठों और अंग्रेज़ों ने भी नहीं छेड़ा।

इस किले का असली नाम दिसंबर 1968 को जारी सरकारी ‘गजेट नोटिफिकेशन’ में ‘अकबर का किला’ या ‘दौलत खाना’ दिया गया है। इसका यह नाम तब तक जारी रहा जब तक दक्षिण पंथी सरकार ने इसे नहीं बदला।

महाराष्ट्र सरकार ने तो इतिहास की किताबों से मुस्लिम शासकों ने नाम हटा ही दिए। यह भी उस समय जब भारत में इतिहास में मुगलों के शासन की महत्वपूर्ण भूमिका है। क्या हम इन ऐतिहासिक तथ्यों को मिटा सकते हैं? पानीपत की तीसरी लड़ाई जिस में अफगानिस्तान ने दुर्रानी साम्राज्य ने मराठों को हराया था। मराठाओं ने शाहआलम का साथ दिया था। असल में शाहआलम मराठों के हाथ की कठपुतली था। फिर 1772 में उसने अफगानों से उनके द्वारा किए गए अत्याचारों का बदला लेने के लिए सेना का नेतृत्व किए। उन्होंने अफगानों से युद्ध में हुए नुकसान की भरपाई करवाई। महाराष्ट्र की नई किताबों में दिल्ली सल्तनत और सूर्य वंश को निकाल दिया गया है। इनके बिना भारत का इतिहास अधूरा रह जाता है। बीजापुर सल्तनत पर बात किए बिना औरगज़ेब का उत्थान समझ में नहीं आ सकता।