अलग-थलग रहकर व्यक्ति कैसे करेगा विकास

कोरोना (कोविड-19) का आतंक चारों ओर है। लगातार इस तरह के संदेश मिल रहे हैं, जिनमें अपने-अपने घरों के भीतर रहने के लिए कहा जा रहा है। समाज के भीतर दहशत का माहौल है। कयास लगाये जा रहे हैं कि क्या यही प्रलय या कयामत का दिन होने वाला है? क्योंकि सब कुछ धीमे-धीमे ठहरता जा रहा है और चारों ओर से विनाश और तबाही की खबरें आ रही हैं। धाॢमक स्थल बन्द कर दिये गये हैं और लोगों की आवाजाही रोक दी गयी है। ग्लोबल विलेज का विचार एक तरह से धराशायी हो गया है। बाज़ार बन्द है। सोशल डिस्टेन्सिंग पहले ही बहुत अधिक थी, अब और ज़्यादा हो गयी है। छोटे-छोटे समूह में भी मेल-मिलाप बन्द किया गया है। जीवन ठहर गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे वैश्विक महामारी घोषित कर दिया है। मीडिया भी दंगों और साम्प्रदायिकता के उन्माद से निकलकर विश्व स्वास्थ्य पर बातचीत कर रही है।

आज हम सबको कुछ गम्भीर बातों पर आज विचार करने की ज़रूरत है। सबसे पहले यह समझने की ज़रूरत है कि एक सूक्ष्म से दिखने वाले वायरस ने किस तरह सर्वशक्तिशाली मनुष्य को ठहरकर सोचने के लिए मजबूर कर दिया? मनुष्य जीवधारियों में सबसे ज़्यादा बुद्धिमान और सुविधा-सम्पन्न है। जिन रहस्यों को कभी ईश्वर की शक्ति कहकर रहस्य के आवरण में ही रखा जाता था, मनुष्य ने उसे ढूँढने का अनथक प्रयास किया और अंतत: अधिकांश रहस्यों का सूत्र ढूँढ ही लिया। यहाँ तक कि उन एन्जाइम्स को भी ढूँढ लेने का दावा भी किया जा रहा है, जिससे बच्चे के भीतर के गुणसूत्र माता-पिता से विकसित होते हैं! मनुष्य की क्षमताएँ अनन्त हैं और अनन्त है उसकी ऊर्जा। परन्तु अनेक सुविधाओं को जुटाते हुए उसने प्रकृति का दोहन किया, संसाधन जुटाये और प्रकृति के हर अंश पर कब्ज़ा करने का प्रयास किया। पर मनुष्य भूल गया कि प्रकृति से छेड़छाड़ करने की भी कोई सीमा तो ज़रूर होगी! और उस सीमा के बाद प्रकृति जब विद्रोह करेगी, तो उसके परिणाम भयंकर होंगे। विज्ञान ने हमारा सबसे अधिक भला किया; पर अब कुछ ठहरकर जीवन शैली के बदलाव पर बात करने की ज़रूरत है। हमने प्रकृति प्रदत्त चीज़ों पर लगातार अपना अधिकार करके सिर्फ और सिर्फ अपनी सुविधाओं के लिए उसका विनाश किया। आज प्रकृति हाँफ रही है… और यदि अब भी हम नहीं रुके, तो अपना विनाश खुद कर बैठेंगे!

कामायनी को इन दिनों फिर से पढऩे बैठी। कामायनी की पहली पंक्ति है- ‘हिमगिरी के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह! एक पुरुष भीगे नैनो से, देख रहा था प्रलय प्रवाह!!’

हमारे मन में सवाल पैदा होता है कि इस पुरुष के नेत्र भीगे क्यों हैं? और प्रलय का प्रवाह क्यों और कैसे है? यह मनु है- प्रसाद जी की कल्पना का आदि-पुरुष! वह याद करता है कि समस्त देवता जब इतने विलासी हो गये कि प्रकृति पर ही अपना कब्ज़ा मान बैठे… ‘प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में! भोले थे हाँ तिरते केवल, बस विलासिता के नद में!!’

और ऐसे भाव के साथ देवता यह मान बैठे कि प्रकृति को नष्ट-भ्रष्ट करके वे अनंतकाल तक अजर-अमर-अविनाशी हो सकते हैं। पर प्रकृति शब्द में ही उसका मूल भाव छिपा है, जो प्राकृत हो; जिसे बदलने का प्रयास न किया जाए। देवताओं ने उसे बदला, अपने आनन्द के लिए उसका उपभोग किया और स्वयं को अजर-अमर घोषित कर दिया। प्रकृति ने शीघ्र ही इसका उत्तर दिया और अमरता के इस दम्भ को समाप्त कर दिया… ‘अरे, अमरता के चमकीले पुतलों तेरे वे जयनाद! काँप रहे हैं आज प्रतिध्वनि बनकर मानो दीन-विषाद!!’

और तब प्रसाद कामायनी के दो सूत्र देते हैं- पहला, प्रकृति रही दुर्जेय पराजित, हम सब थे भूले मद में, और दूसरा सबसे अन्त में कि समरसता में ही सबका विकास सम्भव है। आज कामायनी को फिर से पढऩे की गहरी ज़रूरत महसूस हो रही है। मनुष्य के कर्मों का ही परिणाम अंतत: उसे विनाश की ओर ले जाता है। चीन से जिस वायरस के फैलने की शुरुआत हुई, उसका प्रसार अब कई देशों तक हो चुका है। मीडिया रिपोट्र्स पर जाएँ, तो जिन देशों में यह महामारी फैली है, वहाँ की खबरें दहशत से भरी हैं। गैर-ज़रूरी चीज़ों से लेकर ज़रूरी चीज़ों की आवाजाही पर रोक लगने की स्थिति उत्पन्न हो रही है। परन्तु अब इस सबके आगे ठहरकर सोचने की ज़रूरत है। कोरोना पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगी। क्योंकि मैं उसकी विशेषज्ञ नहीं हूँ। यहाँ मेरा उद्देश्य सिर्फ एक बार ठहरकर विचार करने और जीवन में शान्ति-संतोष के महत्त्व की ओर ध्यान दिलाने का है।

लगभग सारी व्यवस्थाएँ चौपट होने की स्थिति है। स्कूल, कॉलेज बन्द हैं। अस्पतालों में डॉक्टर लगातार हमारी मदद के लिए तैनात हैं। लगभग सभी जगहों में घर से काम करने की कोशिश हो रही है। सरकारें सजग हैं और अपनी ज़िम्मेदारी को बखूबी निभाने की कोशिश कर रही हैं। पर क्या एक इंसान होने के नाते अपने भीतर झाँककर देखने और अपनी जीवन-शैली में बदलाव लाने की हमारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं है?

कुछ सवाल अपने आपसे कीजिए

हम जिस तरह से लगातार सुविधाजीवी होते जा रहे हैं, क्या सचमुच हमें इतनी ज़्यादा सुविधाओं की ज़रूरत है? क्या हम कुछ समय इस भाग-दौड़ भरी ज़िन्दगी से निकलकर थोड़ा आत्मचिन्तन, आत्म परीक्षण कर सकते हैं? क्या यह ज़रूरी नहीं है? क्या हम इस कठिन समय का सदुपयोग घर में रहकर कुछ किताबें पढऩे, योग करने, बच्चों से बातचीत करने में लगा सकते हैं? क्या हम अपने घर के भीतर स्वास्थ्य जागरूकता अभियान की तरह अपने बच्चों, बूढ़ों और सभी घर के आस-पास के सदस्यों को स्वास्थ्य नियमों पर ध्यान देने के लिए प्रेरित कर सकते हैं?

क्या हम कुछ देर इस प्रकृति का शुक्रिया अदा कर सकते हैं, जिसका शोषण करने में हमने कोई कोर-कसर नहीं रखी, पर उसने हमें सभी सुख-सुविधाएँ दीं? क्या हम कुछ समय तक नशे की आदतों को रोक सकते हैं, क्या हम कुछ समय तक खुद को धर्मों और उसकी उप-श्रेणियों में बाँटने की जगह केवल इंसान समझकर व्यवहार कर सकते हैं? क्या कुछ समय हम ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’ की प्रार्थना के लिए निकल सकते हैं? आप ईश्वरवादी, अनीश्वरवादी कुछ भी हो सकते हैं। पर क्या आप मानवता में विश्वास की प्रार्थना कर सकते हैं? इन सवालों के जवाब कुछ के हाँ में होंगे, तो कुछ के नहीं में भी होंगे। आज एक सूक्ष्म-से दिखने वाले वायरस ने उस मनुष्य को ज़मीन पर लाकर खड़ा कर दिया है, जो स्वयं को परमाणु का आविष्कारक और पूरी मानवता को नष्ट करने वाली शक्ति मानता रहा है…। हम जिस समय और समाज के सन्धि स्थल पर खड़े हैं, वहाँ यह जानना ज़रूरी है कि जव एक सूक्ष्म से भी सूक्ष्म अणु ने हमारे इस सुविधाजीवी जीवन को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है। तो झूठे गर्व और अहंकार के लिए जगह कहाँ है? हम एक-दूसरे से घृणा करते हैं; एक-दूसरे को कुछ रुपयों के लिए मार देना चाहते हैं; आज इतनी सुविधाओं के होने के बाद भी पहला संकट मनुष्य को जीवित रहने का है। मैं, केवल मैं; आज का सत्य नहीं हो सकता…।

जीवन का यह मोह मानवता का मोह बन जाए, तो शायद इस वायरस की ओर से आने वाली यह एक बड़ी सीख होगी। स्वस्थ रहने और स्वस्थ रहने के लिए प्रेरित करने की आदत भी हमारे साथ रह जाए, तो यह हमारे जीवन की एक बड़ी शिक्षा होगी। कभी सोचते हैं हम कि ऐसा क्या हुआ कि सबसे ताकतवर, सबसे दम्भी, सबसे विवेकशील, सबसे अहंकारी प्रजाति-मनुष्य इसकी चपेट में आ गया, जबकि पशु-पक्षी नहीं! पशु-पक्षी हमसे अपने जीवन की गुहार लगते रहे, पर हम त्याज्य-स्वीकार्य में भेद नहीं कर सके! उचित-अनुचित का सारा विवेक हमने छोड़ दिया। क्योंकि हम तो ठीक कामायनी के देवताओं की तरह अजर-अमर होने का दम्भ पाले बैठे हैं! अब वह समय हमारे द्वार पर खड़ा दस्तक दे रहा है। जब ठहरना होगा, सोचना होगा; फिर से अपनी आदतों, जीवन-शैली को नज़दीक से देखकर बदलना होगा। पता नहीं इसकी चपेट में कौन आएगा और कौन बचेगा? पर जो रह जाएँगे, क्या वे फिर सब कुछ भूलकर दौडऩा शुरू कर देंगे? या सोचेंगे कि जिस धरती, जिस प्रकृति ने हमें सब कुछ दिया, उसके प्रति हमारी भी कोई ज़िम्मेदारी है! ध्यान रखिए, यह पार्टी का दौर नहीं है; यह आपात स्थिति है। सरकारें, जो सूचनाएँ भेज रही हैं, उस पर बहुत ध्यान देकर सुनने की ज़रूरत है। जिससे समझदारी से उसे लागू किया जा सके या लागू करने में अपनी भूमिका निभायी जा सके।

कल्पना कीजिए कि यदि यह वायरस हवा के ज़रिये फैला होता,  तो शायद हवा से आने वाले वायरस से बचने के लिए हमारे पास कोई रास्ता नहीं होता! हवा, पानी और भोजन हमारे जीने के लिए अनिवार्य साधन हैं। अब यदि यही इस हद तक दूषित हो जाएँ, तो क्या हमारा बचाव हो सकेगा? इस कल्पना की आज बहुत अनिवार्यता है। क्योंकि कभी गंगा को साफ करने के नाम पर, तो कभी हवा-पानी के प्रदूषण को दूर करने के नाम पर भ्रष्टाचार किया गया; और आज इसके परिणाम हम सब भुगत रहे हैं। दूसरी कल्पना कीजिए कि आपकी मुंडेर पर चिडिय़ा आये और दाने खा सके! क्या यह कल्पना मुमकिन है? मध्यकाल की प्रार्थना थी- ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम समाय; मैं भी भूखा न रहूँ, साधु न भूखा जाय।’

अब सोशल आइसोलेशन का समय आ गया है। कौन-सी प्रगति कर रहे हैं हम? और कहाँ जाकर थमेंगे हमारे कदम? अब अतिथि नहीं आते; कौए किसी के आने का संदेसा नहीं लाते। जिस जगह मैं बैठकर यह लिख रही हूँ, इस क्षेत्र में छोटी चिडिय़ा,जिसे गौरेया कहते हैं; नजर नहीं आती। सूर्य निकलता है, पर हल्की धुन्ध उसे घेरे नज़र आती है। पूरा शहर एक धुएँ में घिरा दिखता है। वृद्ध लोग अब बाहर नहीं जा सकते; क्योंकि उनके जीवन पर अधिक खतरा है। धाॢमक उन्माद से लेकर हिंसा के उन्मादी व्यवहार के बीच अब कुछ मानवीय होने की उम्मीद ही हमें जिलाये रख सकती है। इसके लिए चलिए कुछ देर रुकते हैं; ठहरते हैं। अपने-अपने घरों के भीतर रहकर बच्चों से बातें करते हैं। बूढ़ों के पास बैठते हैं। फोन पर आस-पास के हाल-चाल लेते हैं। वह जो बूढ़ी काकी पीछे गाँव में हैं, उसे चिट्ठी लिखते हैं; या फोन पर ही बतियाते हैं। आइए, कुछ देर रुकते है। कुछ देर रुकेंगे, तो बेहतर चल सकेंगे…!