अलग-अलग खूँटों से बँधे ये लोग

जब दुनिया बनी होगी, तब शायद छिटपुट लोग ही इस पृथ्वी पर जगह-जगह बिखरे होंगे और किसी के दिल-ओ-दिमाग पर मज़हब यानी धर्म का कोई रंग-रूप हावी नहीं होगा। अगर हम दुनिया-भर में मान्य सभी मज़हबों पर नज़र डालें, तो पाएँगे कि तकरीबन हर मज़हब की नींव पडऩे की अनुमानित तारीख या कहें कि हर मज़हब की यौमे-पैदाइश भी है। इसका मतलब साफ है कि मनुष्य ने अपनी पैदाइश के बाद ही ईश्वर या अल्लाह या परमात्मा या गौड जैसी किसी शक्ति को पहचाना होगा और उसके बाद अच्छाई यानी इंसानियत के रास्ते पर चलने की कोशिश की होगी; जिसे बाद में मज़हब यानी धर्म का नाम दिया होगा।

मेरा मानना यह है कि वैसे तो पृथ्वी और मनुष्य की उम्र क्या है? इसका कोई ठोस प्रमाण न आज तक दे पाया है और न ही दे सकता है; लेकिन मनुष्य ने सबसे पहले भोजन की खोज की होगी, न कि ईश्वर या मज़हब की। क्योंकि जब इंसान या कोई भी जीव पैदा होता है, तो उसे सबसे पहले वायु के अलावा भोजन की ही ज़रूरत होती है। भोजन की खोज के बाद जीवन की अन्य ज़रूरतों ने उसकी सक्रियता को बढ़ाया होगा और तब कहीं जाकर उसे किसी अदृश्य शक्ति का एहसास हुआ होगा, जिसे उसने ईश्वर या अल्लाह या परमात्मा या गौड या दूसरे नामों से पुकारा होगा। फिर उसने मनुष्यता यानी इंसानियत की पराकाष्ठा पर चलने की कोशिश या कहें कि बनाये गये अच्छाई के दायरों को मज़हब या धर्म मानकर उस पर चलना शुरू किया होगा। यही धर्म या मज़हब अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग भाषा और रहन-सहन के तौर-तरीकों के चलते अलग-अलग नामों से चलन में आया होगा। क्योंकि हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि जिसे हम परम् सत्ता या परम् शक्ति कहते हैं; जिसका हम किसी-न-किसी रूप में हर रोज़ गुणगान करते हैं; जिसकी परम् सत्ता को हम स्वीकारते हैं; जिसे हम परम् आनंद का स्रोत मानते हैं और पाना चाहते हैं; वह दरअसल एक ही है। लेकिन इंसान ने उसे अपनी भाषा, संस्कृति और एहसासात के हिसाब से अलग-अलग नाम दे दिये। इसका तब तक शायद कोई फर्क नहीं पड़ा होगा, जब तक एक मज़हब को मानने वाले एक ही जगह रहे होंगे; लेकिन इंसान ने जब एक-दूसरे को खोज लिया होगा और एक-दूसरे के क्षेत्र में रहना शुरू कर दिया होगा, तब वैचारिक मतभेदों के चलते अपनी-अपनी सीमा-रेखाओं को खींचा होगा और यहीं से शुरू हुई होगी द्वेष, ईश्र्या, बहस और तकरार।

खैर, अगर हम मज़हबों की बात करें, तो इसमें कोई दोराय नहीं है कि सभी मज़हब इंसानियत के रास्ते पर ही चलने का ही हुक्म करते हैं। वहीं अगर दुनिया के बड़े पैगम्बरों, पीरों, संतों की बात करें, तो भी पाएँगे कि उन्होंने इंसानियत और भलाई के रास्ते को ही सर्वश्रेष्ठ और ईश्वर को पाने का रास्ता बताया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया है कि ईश्वर एक ही है। गुरु नानक देव जी ने कहा है-

एक ओंकार सतनाम, करता पुरखु निरभौ।

निरवैर, अकाल मूरत, अजूनी, सैभं गुर प्रसादि।।

संत कबीर ने भी सभी मज़हबी दीवारों को तोडक़र ईश्वर को एक ही माना है-

मैं जानू हरि दूर है हरि हृदय भरपूर।

मानुस ढुढंहै बाहिरा नियरै होकर दूर।।

इसी तरह संत रैदास ने भी कहा है-

कृस्न, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।

वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

कहने की ज़रूरत नहीं कि सभी संतों ने मनुष्यता का आदर्श रूप ही पेश किया है।  लेकिन कहीं किसी मज़हब से असंतुष्ट होकर, तो कहीं लोगों को सुधारने के लिए समय-समय पर एक नयी शिक्षा ने जन्म लिया और वही एक नयी शिक्षा को धीरे-धीरे लोगों ने एक मज़हब का नाम देकर दीवारें खड़ी कर लीं और उसमें खुद को कैद कर लिया। लोगों ने संतों को तो मान्यता दी; लेकिन उनके बताये रास्तों पर नहीं चल सके। इसका परिणाम यह है कि आज दुनिया-भर के लोग अलग-अलग खूँटों से बँधे हैं और अपने को दूसरे से श्रेष्ठ और श्रेष्ठतर बताने की कोशिश में लगे हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि हम खुद को दूसरे से श्रेष्ठतर बताने की कोशिश में हैं, श्रेष्ठतर बनाने की कोशिश में नहीं और यही हमारी सबसे बड़ी कमी है तथा यही द्वेष, ईश्र्या, बहस और तकरार की वजह है।

आज जब हम अपने घर में शादी-विवाह करते हैं; पूजा-पाठ या इबादत करते हैं; तब एक दायरा हमें कैद कर लेता है; लेकिन जब हम बाहर निकलते हैं; व्यापार-व्यहार करते हैं, तब इस दायरे से बिलकुल बाहर होते हैं। सभी में एक भाईचारा होता है; एक मानवी व्यवहार होता है। एक और चीज़ यह देखने को मिलती है कि पैसे से सभी मज़हबी दीवारें बिना किसी विरोध या ना-नुकुर के स्वत: टूट जाती हैं। यह बहुत ही अच्छी बात है। लेकिन सवाल यह है कि क्या हमेशा के लिए ये दीवारें गिरायी जा सकती हैं? क्या मनुष्य का मनुष्य से सीधा एक ही रिश्ता नहीं है कि उसे एक ही ज़मीन पर एक ही हवा, पानी और एक जैसे शरीर के साथ ईश्वर ने पैदा किया है? इतनी बात जिस दिन मनुष्य को समझ में आ जाएगी, उस दिन पूरी दुनिया में भाईचारा होगा, प्यार होगा, अमन होगा, एक-दूसरे की चिंता होगी, रक्षा की भावना होगी और मनुष्य वास्तव में मनुष्य होगा।