अर्ध कुंभ का कुंभ हो जाना

गंगा नदी पर मत्स्यपुराण में दो महत्वपूर्ण श्लोक उल्लेखनीय हैं। पहले का भावार्थ है, ”पाप करने वाला व्यक्ति भी सहस्त्रों योजन दूर रहता हुआ गंगा स्मरण से परम पद प्राप्त कर लेता है। गंगा के नाम स्मरण और उनके दर्शन से व्यक्ति बुरे कर्म से पापमुक्त हो जाता है, एवं सुख पाता है, उसमें स्नान करने एवं जल के पान से वह सात पीढिय़ों तक अपने कुल को पवित्र कर देता है’’। वहीं काशी खंड में है, ”गंगा तट पर सभी काल शुभ हैं, सभी देश शुभ हैं और सभी लोग दान ग्रहण के योग्य हैं।’’ इतनी स्पष्टता के बाद भी तमाम अंधविश्वास अभी भी कायम हैं।

कुंभ की परिकल्पना तो हमें समुद्रमंथन वाले आदिम तम युग में ले जाती है। सुर व असुरों के मध्य समुद्र मंथन से निकले अमृत को लेकर 12 दिन व 12 रात लगातार (देवताओं का 1 दिन -मानव का 1 वर्ष) युद्ध चला। जिस कुंभ (बर्तन) में अमृत एकत्रित था उसे लेकर देवता स्वर्ग की ओर कूच कर गए। रास्ते में तीन नदियों गंगा (हरिद्वार व प्रयाग) क्षिप्रा (उज्जैन) व गोदावरी (नासिक) के तट पर कुछ अमृत बंूदें छलक गई और ये ही कुंभ एवं सिंहस्थ के आयोजन स्थल बने। यह तो हुई आदिम गाथा। ऐतिहासिक तौर पर सबसे पहले चीनी यात्री हवेन त्संाग ने सम्राट हर्षवर्धन के शासन के दौरान सन 617 से 647 के मध्य इस कुंभ जैसे समारोह का जि़क्र किया है।वैसे इसे आदि शंकराचार्य जिनका काल आठवीं-नौंवी शताब्दी का माना जाता है , द्वारा हिंदू धर्म के पुनुरुद्धार से भी जोड़ा जाता है। उन्होंने अपने शिष्य सुरेश्वाचार्य के साथ मिलकर गंगा तट स्नान की परंपरा रखी और अखाड़ों का निर्माण किया। उस दौरान शंकराचार्य को जैन व बौद्ध धर्मों से संकट महसूस हो रहा था। वैसे कुंभ को लेकर विश्वसनीय तथ्य उन्नीसवीं शताब्दी से मिलना शुरू होते हैं।

परंतु समय के साथ -साथ प्रतीत होने लगा कि कुंभ एवं सिंहस्थ के निहितार्थ भी परिवर्तित होते जा रहे हैं। यदि वर्तमान प्रयाग (इलाहाबाद) कुंभ की बात करें तो यह वास्तव में अर्ध कुंभ है। शासन-प्रशासन व धर्म के आपसी घालमेल ने इस धार्मिक परंपरा में परिवर्तन कर अर्ध-कुंभ को कुंभ का दर्जा दिलवा दिया। क्यों? इसका जवाब तो नए कत्र्ता-धत्र्ता ही दे सकते हैं। परंतु यह तो एक सच्चाई है कि कुंभ जैसे धार्मिक श्रद्धा के उत्सव धीरे-धीरे एक आयोजन, कार्यक्रम या आधुनिक भाषा में कहें तो इवेंट में बदल गए। इनकी ब्रंाडिंग देश-विदेश में की जाने लगी। तीर्थाटन को पर्यटन में बदलने के प्रयास शुरू हो गए। भव्य, आलीशान व सर्व सुविधा युक्त टेंट आवास जो वातानुकूलित भी है, अस्तित्व में आने लगे। मुख्यमंत्रियों को इसमें अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का मौका मिला।

इस सबकी औपचारिक शुरूआत दो वर्ष पूर्व उज्जैन में हुए सिंहस्थ से हुई थी और यह मत चूके चौहान की बाजीगरी से शुरू हुआ और योगी की माला में अटक गया। ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस (अर्ध कुंभ) में सरकार की ओर से करीब 5000 करोड़ रुपए लगाए गए। वहीं व्यवसायिक समूहों का प्रतनिधित्व करने वाली संस्थाओं का कहना है कि कुल खर्च इससे करीब 20 गुणा है और यह निवेश काफी लाभपद्र है और रोज़गार भी पैदा करेगा। यानी अब साफ समझ मे आ रहा है कि धार्मिक मान्यताओं की आड़ में क्या क्या हो रहा है।

सरकार ने प्रयाग कुंभ में करीब 5000 करोड़ रुपए खर्च किए हैं। वहीं इसके ठीक विपरीत इस वास्तविकता पर भी गौर फरमाए। उत्तरप्रदेश के प्रयागराज जनपद जहां पर कुंभ का भव्य आयोजन हो रहा है। उसी जनपद में पिछले चार माह से ग्राम -सत्याग्रह आंदोलन जारी है। इसके अन्तर्गत सौ से अधिक ग्राम पंचायतों के चार सौ से भी अधिक गांवों के हजारों वंचित ग्रामीण परिवार आंदोलन कर रहे हैं। इनकी मांगे, राशन व्यवस्था में सुधार, मनरेगा में रुके हुए भुगतान, प्रधानमंत्री आवास योजना में धन की व्यवस्था, शौचालय निर्माण, प्राथमिक विद्यालयों का निर्माण है, इसी के साथ वृद्ध-वृद्धा व विधवा पेंशन की भी मांग हैं। इस बीच राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी राज्य सरकार को इस दिशा में कार्यवाही करने के निर्देश भी दिए। आधे-अधूरे मन से थोड़ा बहुत कुछ हुआ, लेकिन किसी भी समस्या का यथोचित निराकरण नहीं हो पाया। वहीं कुंभ के लिए सरकारी खजाने में कोई कमी नहीं पाई गई और खजाने की चाबी भी सार्वजनिक तौर पर सौंप दी गई।

जो भी कुंभ के लिए धन चाहता है, वह विभाग अपने हिसाब से कार्य करने को स्वतंत्र हैं। न जाने कितने शौचालय बनेंगे, अनगिनत नल लगेंगे, सड़कें बनेंगी जो कुंभ के साथ ही कहीं चली जाएंगी और अगले कुंभ या पूर्ण कुंभ में प्रकट होंगी। ठंड से निपटने के लिए हजारों टन लकडिय़ां जला दी जाएंगी। बिजली, पानी व सुरक्षा व निगरानी पर पर व्यय का न तो आकलन होगा और न ही अंकेक्षण (मध्य प्रदेश में सन 2016 में उज्जैन में हुए सिंहस्थ के भ्रष्टाचार के किस्से सरकार परिवर्तन के साथ खुलने लगे हैं। उत्तरप्रदेश में अगले विधानसभा चुनावों में वक्त है और इस बीच हरिद्वार में कुंभ की तैयारियां शुरू हो जाएंगी। उत्तरप्रदेश में कुंभ एक स्थायी इवेंट बन गया है, जिसकी प्रति तीन वर्ष में आवृति होती है।

एक ओर जहां प्रयागराज जनपद में वंचित वर्ग वृद्धावस्था पेंशन के लिए संघर्षरत है वहीं इसी के समानांतर उत्तरप्रदेश सरकार ने साधु-संतों (केवल ंिहंदू) के लिए पेंशन की घोषणा कर दी है। यह बेहद विचित्र सी घोषणा है। सरकार द्वारा निराश्रित लोगों के लिए सामाजिक पेंशन का प्रावधान पहले से ही है। ऐसे में इस नए वर्गीकरण को किस नजरिए से देखा जाए। मठों-अखाड़ों में मौजूद अकूत संपत्ति को लेकर कुछ भी खुलासा नहीं है। सरकारें अपने संवैधानिक दायित्वों जैसे सार्वजनिक शिक्षा व स्वास्थ्य को मुहैया न करवा पाने के लिए आर्थिक संसाधनों की कमी का रोना रोती रहती है। वहीं इस तरह की फिजूलखर्ची के लिए उनके पास धन की कोई कमी नहीं होती। कोई भी व्यक्ति इस तरह का जीवन अपनी मर्जी से चुनता है और वह समाज से इसकी सुरक्षा पाता भी है। परंतु अब सरकारें अनावश्यक हस्तक्षेप कर स्थितियों को बेहद जटिल बना रही है।

गौरतलब है राजतंत्र व लोकतांत्रिक सरकारें पहले भी सीमित क्षेत्रों में कुंभ को लेकर सक्रिय रहती थीं। इसमें कानून-व्यवस्था एवं पानी आदि का इंतजाम प्रमुख होते थे। परंतु अब हर कार्य पांच सितारा स्तर का किए जाने के प्रयास किए जाते हैं। जाहिर है उसी अनुपात में खर्च भी बढ़ रहा है। पर्यटन की निगाह से कुंभ को देखने आने वालों की वजह से भी इस धार्मिक गतिविधि में धन के अत्यधिक उपयोग को मान्यता प्राप्त हो रही है। नव धनाढ्य उद्दंडता के दर्शन भी अब बेहद स्पष्ट तौर पर नज़र आने लगे हैं। हालांकि स्थानीय समुदायों की भागीदारी लगातार घट रही है इससे भी कुंभ की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं।

ऐसा इसलिए कि अब यह राष्ट्रीय नहीं अंतरराष्ट्रीय इवेंट है और लगातार सूचना दी जाती है कि कितने विदेशियों को इस कुंभ में आगमन हुआ है। वहीं कुंभ में आश्चर्यजनक रूप से जनभागीदारी में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इसका एक कारण तो है कि सत्ता ने इसमें सीधी भागीदारी में अभूतपूर्व वृद्धि और व्यापक पैमाने पर देश-विदेश में प्रचार। इसी के साथ सुविधाओं को लेकर भी आसमानी दावे किए जा रहे हैं। इस लिहाज से यह समझना भी आवश्यक हो गया है कि आखिर इतनी बड़ी संख्या में आने वाले समुदायों का मन्तव्य क्या है।

इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि कहीं कृषि पर बढ़ते संकट के कारण उनका कुंभ में आना अधिक हुआ है। वे सरकार और सरकारी योजनाओं की असफलताओं और बढ़ती बेरुखी के चलते एक बार फिर से कहीं और आशा की किरण देख रहे हैं। अगर ऐसा है तो यह लोकतंत्र के लिए बेहद घातक है। भारत की इस वक्त सबसे बड़ी समस्या बेरोज़गारी की है। ऐसा कहा जाता रहा है कि पटना में सुबह और रात की आबादी में करीब 20 फीसदी का अंतर होता है, ऐसा इसलिए होता है कि आसपास के शहरों, कस्बों, गांवों के युवा सुबह पटना के लिए कूच कर जाते हैं। दिनभर भटकने के बाद शाम को रेलों से वापस अपने-अपने घर पहुंच जाते हैं। कुंभ भी आसपास के युवा समुदाय को यही सुविधा तो नहीं प्रदान कर रहा? तीसरी स्थिति है बढ़ती मंहगाई। आज तमाम घरों में दो जून की रोटी उपलब्ध हो पाना कठिन होता जा रहा है। कुंभ के अनेक अन्नक्षेत्र खुलेपन से सभी को भोजन उपलब्ध करवाते हैं। वंचित समुदाय के लिए शायद यही तृप्त होने का मौका भी होता है। कुछ दिनों के लिए ही सही वे भरपेट खा पाते हैं और इसलिए हमें इन अखाड़ों व धार्मिक पंथों के प्रति कृतज्ञ भी रहना चाहिए। परंतु इस तथ्य को झुठलाया नहीं जा सकता कि यह सब होता धार्मिक विश्वास के तहत ही है।

ऐसा विश्वास है कि ,”एक कल्प के अंत में रूद्र विश्व का नाश कर देते हैं, उस समय भी प्रयाग का नाश नहीं होता। ब्रह्मा, विष्णु व शिव (महेश्वर) तीनों ही प्रयाग में रहते हैं। प्रतिष्ठान के उत्तर में ब्रह्मा गुप्त रुप से रहते हैं, विष्णु चहां वेणीमाधव के रूप में रहते हैं और शिव यहां अक्षयवट के रूप में रहते हैं। इसीलिए गन्धर्वों के साथ देवगण, सिद्ध लोग और बड़े-बड़े ऋषिगण प्रयाग के मंडल को दुष्ट कर्मों से बचाते रहते हैं।’’ यह तो समय ही बताएगा कि प्रयागराज क्या इस आधुनिक काल में स्वंय को और अपने श्रद्धालुओं को बचा पाए कि नहीं। इस बार हम अक्षयवट भी देख पाएंगे। परंतु परिस्थितिया ंतो शिव को तीसरा नेत्र खोलने के लिए बाध्य कर रही है।

कुंभ एक परंपरा है आत्मावलोकन की। इसका दुरूपयोग बेहद घातक सिद्ध होगा। एक-एक करके विश्वास का टूटता जाना भारतीय संस्कृति के लिए बेहद घातक है। आवश्यकता इस बात की है कि कुंभ आदि पर होने वाले खर्चों में कमी हो और सरकार का इसमें न्यूनतम हस्तक्षेप व भागीदारी हो। हर स्थिति -परिस्थिति से धर्नोपार्जन की मानसिकता से मुक्ति ही हमें कुंभ के निहितार्थ समझा सकती है।

पद्य पुराण में दिए गए इस प्रश्न पर गौर कीजिए, ”बहुत से धन के व्यय वाले यक्षों और कठिन तपों से क्या लाभ, जब कि सुलभ रूप से प्राप्त होने वाली गंगा मौजूद है।’’ नारदीय पुराण भी समझाता है, ”आठ अंगों वाले योग, तपों और यज्ञों से क्या लाभ? गंगा का निवास इन सभी से उत्तम है।’’ आवश्यकता लुप्त और प्रदूषित होती गंगा को बचाने की है तभी हम भी बचेंगे।