अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती के लिए कृषि बजट में बढ़ोतरी ज़रूरी

हमें बीते हुए बुरे वक्त से भी भरपूर सीखना चाहिए। क्योंकि वक्त के दिये जख्मों पर मरहम लगाकर ज़िन्दगी के सफर में आगे बढऩे में ही इंसान की भलाई होती है। कोरोना महामारी की त्रासदी के चलते हम बीते साल 2020 को कभी नहीं भूल सकते; लेकिन उससे सीख लेकर आगे बढ़ सकते हैं। कहावत है कि बीते वक्त को रोने से आगे की राह मुश्किल होती है। वैसे भी कोरोना टीका आने की उम्मीद बढ़ गयी है, ऐसे में देशवासियों को अब सुरक्षा उपायों पर ध्यान रखते हुए चिन्ता छोड़कर काम में जुट जाना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि 2020 को एक बुरा सपना समझकर हमें भुलाना होगा। 2021 का स्वागत हम सब कर ही चुके हैं। लेकिन अब हमारे सामने, खासकर केंद्र सरकार के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं।

इसी फरवरी में सरकार को वित्तीय साल 2021-22 के लिए बजट पेश करना है। ऐसे में सरकार को ध्यान रखना होगा कि वह एक ऐसा बजट पेश करे, जिससे कोरोना वायरस और लम्बे लॉकडाउन के चलते डावाँडोल हो चुके हर क्षेत्र को आर्थिक बल मिलने के साथ-साथ उत्पादों की बिक्री में तेज़ी आ सके। इसके लिए न केवल सरकार को उद्योगों, कम्पनियों और दूसरे धन्धों को बढ़ावा देना होगा, बल्कि रोज़गारों का सृजन करना होगा। हालाँकि राज्य सरकारों को भी इसके लिए मेहनत करनी होगी, लेकिन केंद्र सरकार को इसमें प्रमुख भूमिका निभानी होगी। इस बार ठप पड़े उद्योग धन्धों और कम्पनियों के लिए एक अच्छा बजट पेश करने के साथ-साथ सरकार को कृषि क्षेत्र पर ध्यान देना होगा तथा कृषि क्षेत्र का बजट और बढ़ाना होगा। क्योंकि इस बार तीन नये कृषि कानूनों के चलते किसान आन्दोलन कर रहे हैं और उन्हें भरोसे में लेने के लिए सरकार को एक बेहतर कृषि बजट पेश करना चाहिए, अन्यथा सरकार और किसानों की टकराहट से कृषि उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। वैसे उम्मीद है कि सरकार इस बजट में कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी; क्योंकि उसकी कोशिश है कि तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनरत किसान कुछ सुधारों पर उसकी बात मान जाएँ।

चुनौतियों को अवसर में बदलने की ज़रूरत

कोरोना-काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आपदा को अवसर में बदलने की ज़रूरत है। लेकिन अब जब आपदा से कुछ-कुछ निजात मिल रही है, तो अनेक चुनौतियाँ सरकार के सामने हैं। लगभग सभी उद्योग धन्धे मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं। हालाँकि सरकार के द्वारा दिये गये जीडीपी के 10 फीसदी आर्थिक योगदान, जिसमें कृषि, एमएसएमई और महिलाओं का खासतौर पर ध्यान रखा गया है; से आर्थिक क्षेत्रों में तेज़ी आने की उम्मीद बनेगी। वैसे सरकार और आर्थिक मामलों के कुछ जानकार मान रहे हैं कि आगामी वित्तीय वर्ष 2021-22 में जीडीपी दर 8 से 9 फीसदी पर रह सकती है। अगर ऐसा होता है, तो हर क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे। कोरोना-काल की चुनौतियों को अवसर में बदलने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं। ऐसे में उम्मीद है कि केंद्र सरकार चुनौतियों को अवसर में बदलने का भरपूर प्रयास करेगी। सरकार से उम्मीद है कि वह लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें रोज़गार तथा स्वरोज़गार के नये अवसर प्रदान करेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। नये अवसर तभी मिलने सम्भव होंगे, जब सरकार कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी।

सदियों से आत्मनिर्भर हैंं किसान

जब देश तालाबन्दी के दौरान हर क्षेत्र में कामकाज बन्द हो गया था, तब किसान ही थे, जो अपने खेतों में काम कर रहे थे। इतना ही नहीं, लॉकडाउन में बेरोज़गार हुए मज़दूर जब अपने-अपने घरों को लौटे, तो किसानों ने उन्हें भी सँभाला, काफी हद तक उन्हें रोज़गार भी दिया। यह वह समय था, जब अधिकतर उद्योग, कम्पनियाँ लोगों को नौकरी से निकाल रही थीं। कह सकते हैं कि किसानों ने सरकार को भी यह बता दिया कि आत्मनिर्भर का सही मतलब क्या होता है। सरकार ने तो अब आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है, लेकिन किसान सदियों से आत्मनिर्भर हैं। इतना ही नहीं किसान वो दरियादिल लोग हैं, जो दूसरों का पेट भरने के साथ-साथ देश के अधिकतर मज़दूरों को काम भी देते हैं, जबकि खुद गरीबी में भी जी लेते हैं। अगर बड़े किसानों की बात करें, तो उनकी संख्या बहुत कम होने के बावजूद वे लाखों लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं। लेकिन सदियों से आत्मनिर्भर किसानों ने कभी इस बात का घमंड नहीं किया कि वे दूसरों के लिए क्या करते हैं। आज अगर किसान सड़क पर हैं, तो इसके पीछे उसकी विरासत पर बड़ा खतरा मंडराना है, जिसे किसान क्या कोई भी बर्दाश्त नहीं करेगा। सरकार को चाहिए कि वह किसानों को इस भयंकर ठंड और बारिश के मौसम में खुले में रहने और सोने से बचाने की कवायद करे और जल्द-से-जल्द समस्या का समाधान करे। यह दु:ख की ही बात है कि आन्दोलन में ठंड की वजह से चार दर्जन से अधिक किसानों का बलिदान हो चुका है और सरकार ने एक भी किसान को न तो श्रद्धांजलि दी और न ही उनके परिवार की मदद के लिए कोई कदम उठाया। मुझे बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार की किसानों के प्रति यह उदासीनता देश को बदहाली की उस खाई की ओर ले जा रही है, जिसमें किसान ही नहीं, देश के अधिकतर लोग गिरेंगे।

कृषि को हल्के में न ले सरकार

समस्या यह है कि कृषि के विकास को आज तक किसी भी सरकार ने बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी; जबकि सच्चाई यह है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। हालाँकि कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा लोग निर्भर हैं, जिससे इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की आमदनी बहुत कम है। इसकी एक वजह यह भी है कि किसानों को कड़ी और लम्बी मेहनत के बाद भी इसका उतना लाभ नहीं मिल पाता, जितना कि मामूली-सी मेहनत पर बहुत ही कम समय में जमाखोरों को मिल जाता है। सरकार को इस पर लगाम कसनी चाहिए और किसानों तक ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफा पहुँचाने की दिशा में काम करना चाहिए। उसे कृषि को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कृषि क्षेत्र में लोगों की निर्भरता को कम करने के लिए सरकार को दूसरे क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ाने होंगे, ताकि कृषि से जुड़े लोगों की आय बढ़ सके और दूसरे क्षेत्रों में भी रोज़गार के साथ-साथ आमदनी बढऩे के रास्ते खुल सकें।

मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, लेकिन सम्पन्न किसान परिवार में जन्मा और पत्रकारिता के माध्यम से संसद तक का सफर करने का सौभाग्य मुझे मिला है, इसलिए इतना ज़रूर जानता हूँ कि देश की अर्थ-व्यवस्था के लिए क्या फायदेमंद है और क्या नुकसानदायक। मेरी नज़र में कृषि ही एक ऐसा बहुआयामी क्षेत्र है, जिसके विकास से दूसरे क्षेत्रों के विकास की राह आसान होगी। इसलिए मेरी सरकार से अपील है कि वह दूसरे क्षेत्रों को मज़बूत करने के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को मज़बूती प्रदान करे, ताकि देश के किसानों की आय दोगुनी करने का प्रधानमंत्री मोदी का सपना भी साकार हो सके और किसानों का जीवन भी खुशहाल हो सके। हालाँकि लॉकडाउन के दौरान भी सरकार ने एमएसपी पर गेहूँ की रिकॉर्ड खरीद करके यह तो बता दिया कि वह किसानों के हित में काम करने की इच्छुक है, लेकिन लॉकडाउन में ही तीन नये कृषि कानून लाकर वह फँस गयी। अब दोनों ही तरफ इन कानूनों को लेकर खींचतान इतनी बढ़ गयी है कि किसान करीब दो महीने से दिल्ली की सीमाओं की सड़कों पर आन्दोलन पर बैठे हैं और आठ बार सरकार और किसानों की बीच वार्ता विफल हो चुकी है। इन कृषि कानूनों में संशोधन को सरकार तैयार है, पर किसान इन्हें वापसी की माँग पर अड़े हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि नये कृषि कानूनों के दम पर उद्योगपति कृषि भूमि पर कब्ज़ा जमा लेंगे और किसान अपने ही खेतों में मज़दूर हो जाएँगे। अफसोस इस बात का है कि जो किसान दिन-रात मेहनत करके मोटी लागत लगाकर मज़दूरी के बराबर भी नहीं कमा पाता, उसी की उगायी फसलों पर एक बिचौलिया अपनी कम्पनी का लेबल लगाकर कई गुना लाभ कमा लेता है। सरकार इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा रही, जबकि किसान को एमएसपी के हिसाब से भी दाम नहीं मिल पाते। यह सभी जानते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है और यह क्षेत्र देश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ है। 2020 की दूसरी तिमाही में जब जीडीपी धरातल में -23.9 फीसदी चली गयी थी, तब केवल कृषि क्षेत्र ही था, जो (प्लस) 3.4 फीसदी पर में था।

कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता

एक बात बताना ज़रूरी समझता हूँ, वह यह कि सर्विस सेक्टर का जीडीपी में योगदान 61.5 फीसदी है, जबकि इससे केवल 25 फीसदी लोगों को ही रोज़गार मिलता है। वहीं कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान इससे चौथाई यानी केवल 15.4 फीसदी है, जबकि कृषि क्षेत्र सर्विस सेक्टर की अपेक्षा दोगुने से अधिक लोगों को यानी करीब 53 फीसदी लोगों को रोज़गार देता है। हालाँकि कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित अन्य कई रोज़गार भी हैं, जो आँकड़ों में नहीं दिखते; मसलन दुकानदार, खान-पान का छोटा-मोटा धन्धा करने वाले लोग, फल-सब्ज़ी बेचने वाले वे लोग, जिनके रोज़गार की गणना नहीं की जा सकी है और छोटे-मोटे पल्लेदार, जो गाँवों में अनाज की खरीद-फरोख्त करते हैं। इस तरह मेरा मानना है कि कृषि क्षेत्र से रोज़गार पाने वाले लोगों का फीसद और अधिक है। इसलिए सरकार को कृषि क्षेत्र की तरफ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। पिछले साल हमने चीन तक को चावल निर्यात किया था। यह कोई नयी बात नहीं है। भारत के खाद्य पदार्थों की दुनिया भर में विकट माँग है, लेकिन कुछ दलाल व्यापारियों और खेती-बाड़ी के प्रति लोगों की उदासीनता के चलते किसानों को उन्नत खेती के तरीके नहीं पता हैं, जिससे हम दुनिया की खाद्य पदार्थों की माँग को पूरा नहीं कर पाते। दूसरे देशों में एक तरफ उन्नत खेती की जाती है, तो दूसरी तरफ कृषि पर बहुत कम लोग निर्भर हैं, जिससे विदेशी किसान काफी सम्पन्न होते हैं।

मेरा मानना है कि लॉकडाउन में आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने के लिए सरकार को देश की जीडीपी में 30 फीसदी और निर्यात में 48 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले एमएसएमई को आत्मनिर्भर बनाना होगा। इसके लिए सरकार को वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में एमएसएमई मंत्रालय के लिए भी अन्य बड़े मंत्रालयों की तरह बजटीय प्रावधान करना होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि कृषि क्षेत्र के लिए सरकार एक विशेष बजट इस वित्तीय वर्ष में पेश होने वाले बजट में पेश करे। पिछली बार वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए सरकार ने 1,42,762 करोड़ रुपए का कृषि बजट पेश किया था, इस बार सरकार को इसे बढ़ाना चाहिए।

अन्य क्षेत्रों में भी हों बड़े बदलाव

कृषि के साथ-साथ सरकार को दूसरे क्षेत्रों में भी बड़े बदलाव और विकास की गति तेज़ करने की ज़रूरत है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबर काम्पटिवनेस रिपोर्ट 2019 के मुताबिक, भारत दुनिया में पारदर्शिता के मामले में 66वें, प्रॉपर्टी राइट के मामले में 87वें, कार्पोरेट गवर्नेंस के मामले में 15वें और अकाउंटिंग के मामले में 67वें स्थान पर था। इसी तरह इस रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि भारत ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में दुनिया में 28वें, रोड कनेक्टिविटी के मामले में 72वें, रोड गुणवत्ता के मामले में 48वें, रेल क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 30वें और वायुसेना की क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 59वें स्थान पर है। अगर सरकार इन क्षेत्रों में सुधार करती है, तो ज़ाहिर है कि देश और तरक्की करेगा। उम्मीद है कि सरकार 2020 की कोरोना महामारी की त्रासदी को देखते हुए हर क्षेत्र को उबारने के लिए बेहतर कदम उठायेगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)