अर्थव्यवस्था को नज़रअंदाज़ करना पड़ सकता है महँगा

वर्ष 2019 में बेशक भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नतेृत्व में भाजपा ने 2014 की तुलना में अधिक सीट जीती थीं; लेकिन 2019 के अंत ने प्रधानमंत्री को विचार-मनन की एक डोज यानी खुराक भी दी है, जिसे नजरअंदाज़ करना भविष्य में उन्हें व उनकी पार्टी को महँगा साबित होगा। इस समय मुल्क में सीएए-एनआरसी मुददे पर बहस हो रही है और इस मुददे के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था की हालत भी चिन्ता का गहन विषय है। इस साल भारत ने दुनिया में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थ-व्यवस्था का िखताब ही नहीं खोया, बल्कि जीडीपी की वृद्धि दर गिरकर छ: साल के निचले स्तर पर में पहुँच गयी। जिसके चलते, विश्व बैंक की 2018 की रैंकिंग में भारत की अर्थ-व्यवस्था छठे स्थान से फिसलकर सातवें पर आ गयी है। जबकि सरकार के मंत्री आने वाले वर्षों में अर्थ-व्यवस्था को पाँचवें स्थान पर लाने का दावा कर रहे थे। अर्थ-व्यवस्था से जुड़ी एक अन्य खबर भी भारत की मौज़ूदा सरकार के महिला आर्थिक सशक्तिकरण पर सवालिया निशान लगाती है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम 2020 की लैंगिक समानता को लेकर दिसंबर के आिखरी पखवाड़े जारी रिपोर्ट खुुलासा करती है कि भारत में महिलाएँ आर्थिक मोर्चे पर पिछड़ गयी हैं। 153 मुल्कों की सूची में भारत महिलाओं की आर्थिक हिस्सेदारी वाले मानक में 149वें स्थान पर आ गया है। आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत सबसे नीचे स्थान पाने वाले पाँच देशों में शमिल हैं। हमारे देश में आर्थिक हिस्सेदारी में महिलाओं का फीसद 35.4 है। जबकि पकिस्तान में 32.7 फीसद, यमन में 27.3 फीसद और सीरिया में 24.9 फीसद है। गौरतलब है कि भारत में कामकाजी महिलाओं की हिस्सेदारी करीब 27 फीसद है। 2004-5 में यह हिस्सेदारी 37 फीसद थी। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक मुल्क है, जहाँ दुनिया की 18 फीसद आबादी रहती है और इसमें महिलाओं की संख्या करीब 48 फीसद है; लेकिन सवाल यह है कि आर्थिक हिस्सेदारी तथा अवसरों में महिलाओं की कम संख्या क्यों है? इस समय देश में हैदराबाद में युवा पशु चिकितस्क के साथ घटित सामूहिक दुष्कर्म और उसके बाद उसकी हत्या के मामले ने महिलाओं की सुरक्षा के मुददे को फिर से केन्द्र बिन्दु में ला खड़ा किया और फिर से महिला सुरक्षा वाला बिन्दु कामकाजी महिलाओं और मुल्क की युवतियों के बीच चर्चा में आ गया। इस मुददे का एक पहलू यह भी है कि जब ऐसे दर्दनाक हादसे होते हैं, तभी केन्द्र सरकार व राज्य सरकार इस दिशा में अधिक सक्रिय दिखती है और कुछ समय बाद सरकारी मशीनरी ढीली पड़ जाती है। 2012 निर्भया मामले के बाद महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष निर्भया कोष की स्थापना की गयी; लेकिन उस फंड के एक बहुत बड़े हिस्से का इस्तेमाल ही नहीं किया गया। सरकारी व्यवस्था के ढीलेपन से भी महिलाएँ असुरिक्षत हो रही हैं। इस संदर्भ में एक कामकाजी युवा महिला पत्रकार का एक ट्वीट याद आ रहा है, जिसका हिन्दी अनुवाद इस तरह है- ‘दिसंबर महीने में उसके जन्मदिन पर उसके दोस्त उससे पूछ रहे हैं कि वह अपने जन्मदिन पर क्या लेना पंसद करेगी? ईमानदारी से कहूँ तो, यह बहुत ही दु:ख वाली बात है कि मेरे दिमाग में सबसे पहले आने वाली चीज़ मिर्ची स्प्रे है।’

मुल्क की राजधानी दिल्ली में मौज़ूदा आप सरकार ने करीब दो महीने पहले ही दिल्ली की सरकारी बसों में महिलाओं की सुरक्षा के लिए मार्शल तैनात किये हैं। ऐसे कदम के बाद बसों में सफर करने वाली महिलाएँ कितना सुरक्षित महसूस करती हैं? इस पर सर्वे की दरकार है। बहरहाल, महिलाओं की सुरक्षा और कामकाजी महिलाओं की संख्या, उनकी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करने के बीच सम्बन्ध है। केन्द्र सरकार की स्किल इंडिया योजना के तहत देश भर में किशारों, युवाओं को कौशल प्रशिक्षण दिया जा रहा है।

ऐसा ही दिल्ली में एक कौशल प्रशिक्षण चलाने वाले परिचित ने मुझे बताया कि उनके सेंटर से कौशल प्रशिक्षण हासिल करने वाली दो लड़कियों को उनके घर से दूर दिल्ली ही में नौकरी का प्रस्ताव मिला; लेकिन उनके अभिभावकों ने उन्हें यह कहकर नौकरी करने से इन्कार कर दिया कि कार्य-स्थल बहुत दूर है। लड़कियों की सुरक्षा पहले है। अभिभावक समाज के लिए लड़कियों की चिन्ता उनकी सर्वोच्च प्राथमिकताओं में शुमार है। इस संदर्भ में वे कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। लिहाज़ा सरकार चाहे केन्द्र की हो या राज्य की, उसे महिलाओं की सुरक्षा के प्रति विशेष रणनीतियाँ बनाने के गम्भीर प्रयास करने चाहिए।

महिलाओं को सफल होने का अवसर मुहैया कराने न सिर्फ सही कदम है, बल्कि यह समाज व अर्थ-व्यवस्था को भी बदल सकता है। लैंगिक असमानता घटने से आय में असमानता भी घटेगी और ग्रोथ अधिक होगी। कई अध्ययन बताते हैं कि कार्यस्थलों में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के सकारात्मक नतीजे सामने आये हैं। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ अपनी हायर पॉलिसी में बदलाव कर महिलाओं की संख्या को बढ़ाने पर तरजीह दे रही हैं। वे इसे गुड प्रैक्टिस को एडाप्ट करने वाले पहलू से भी देख रही हैं।

गौरतलब पहलू यह भी है कि मुल्क में अगर कार्यबल में महिलाओं की पुरुषों के समान भागीदारी हो जाए, तो भारत की जीडीपी 27 फीसद तक बढ़ सकती है। मैकिन्जी ग्लोबल इंस्टीट्यूट के अनुसार, अगर महिलाओं को बराबरी के लिए प्रोत्साहित किया जाए, तो बिजनेस में जो वर्तमान हालात हैं उसके मुकाबले भारत 2025 तक अपनी जीडीपी 0.7 ट्रिलियन डॉलर या 16 फीसद तक बढ़ा सकता है। भारत उन मुल्कों में से एक है, जहाँ कम्पनी के निदेशक मंडल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बहुत ही कम है। भारत में यह आँकड़ा 13.8 फीसद है, जबकि फ्रांस में यह आँकड़ा 43.4 फीसद है। इस मामले में फ्रांस पहले नम्बर पर है और उसके बाद आइसलैंड है, जहाँ 43 फीसदी का आँकड़ा है। नार्वे 42.1 फीसदी के साथ तीसरी रैंक पर है और स्वीडन 36.3 फीसदी के साथ चौथी रैंक पर है। विश्व में पाँचवीं रैंकिंग इटली की है, जहाँ यह संख्या 34 फीसदी है। ज़ाहिर है, यहाँ कम्पनी के निदेशक मंडल में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए व्यापारियों और सरकार को तेज़ी से प्रयास करने होंगे।

वल्र्ड इकोनॅामिक फोरम 2020 की लैगिंक समानता वाली रिपोर्ट यह भी बताती है कि दुनिया में महिलाओं व पुरुषों के बीच आर्थिक अवसरों के अन्तर पाटने में 257 साल लगेंगे, जबकि पिछले साल की रिपोर्ट में 202 साल लगने का अनुमान लगाया गया था। हर साल बढऩे वाला बिन्दु देश-दुनिया की आधी आबादी के लिए अच्छी खबर नहीं है। आज दुनिया तेज़ी से आधुनिक होती जा रही है और स्किल्ड लेबर/हयूमन पॉवर पर ज़ोर दिया जा रहा है। ऐसे में लड़कियों/महिलाओं पर विशेष फोकस करने के लिए कार्यक्रम/योजनाओं पर ध्यान देना ला•िामी हो जाता है। क्लाउड कंप्यूटिंग, इंजीनियरिंग, डेटा, एआई जैसे क्षेत्रों में बराबरी कम हुई है। अर्थ-व्यवस्था किसी मुल्क की हो या विश्व की, उसे सुधारने के लिए महिलाओं को सुरक्षित माहौल में आर्थिक रूप से भागीदारी के बराबर के मौके मुहैया कराने की दिशा में गहन मनन के साथ उस पर अमल करना भी ज़रूरी है।