अमल क्यों नहीं होता चुनावी घोषणा-पत्रों के वादों पर!

आम चुनाव ही पूरे देश के लिए वह मौजूं समय होता है जब राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने नव बदलावों और योजनाओं के साथ चुनावी घोषणा तैयार करती हैं जिन्हें वे अमल में लाने का स्वांग भी रचते हैं। उनके चुनावी घोषणापत्र में हर किसी के लिए कुछ  न कुछ होता ही है। वे गरीबी हटाने का वादा करते हैं। वे उद्योगों को बढ़ावा देने की बात करते हैं साथ ही महंगाई घटाने की बात भी करते हैं।

अभी केंद्र में जो सरकार है उसने यह वादा किया है कि कृषि से होने वाली आमदनी को वे दुगुनी कर देंगे। जबकि असलियत यह है कि कृषि से होने वाली  आमदनी घटी है। इसकी दो बड़ी वजहें हैं एक तो आर्थिक हालात और सूखा। वादा था कि हर साल दो करोड़ नौकरियां सृजित करेंगे। लेकिन हालात इतने खराब  हैं कि सरकार ने बेरोज़गारी पर सरकारी आंकड़े भी जारी नहीं होने दिए। साथ ही यह तर्क भी दिया कि किसी के भी पास उपयुक्त सही आंकड़े नहीं हैं।

यदि इतिहास देखें तो पाएंगे कि सरकारें मैनीफेस्टो में दी गई तमाम घोषणाओं में से काफी कुछ पूरा नहीं कर पातीं। कांग्रेस ने 1991 में सत्ता संभालते 150 दिन में कीमतों को 1989 के स्तर पर लाने की बात कहीं थी लेकिन सत्ता में आने के बाद पार्टी ने कहा कि यह मुमकिन ही नहीं है।

ऐसा लगता है कि सरकारें जनता के प्रति जवाबदेह ही नहीं होना चाहतीं। पार्टियां  निहित स्वार्थों की शिकार हो जाती हैं और समाज के आम कल्याण की बात कहीं पीछे छूट जाती है। आज़ादी के बाद तो यह कल्याण भारतीय समाज में दाल में नमक की तरह हो गया। ढेरों बेहद $गरीब (अत्योदय) परिवारों को ज़रूर शुरू में इसका लाभ मिला लेकिन विकास का लाभ देश के साथ कुलीन समूहों को ही मिला। नई आर्थिक नीति 1991 में आई इस से हालात और बिगड़े।

यह कहना कि टैक्स लगा कर पुनर्वितरण संभव है और इसक पीछे तर्क दिया जाता है कि इन्हीं नीतियों के चलते कामयाब लोग पूंजी निवेश नहीं करते और अर्थव्यवस्था कमज़ोर हो जाती है। यह भी तर्क दिया जाता है कि इससे पंूजी विदेश चली जाएगी। यह दावा दिया जाता है कि यदि $गरीबों को धन से मदद की तो वे सुस्त हो जाएंगे। वैकल्पिक तौर पर वेतन का खर्च बढ़ जाएगा। भारत वैश्विक बाज़ारों में अपनी प्रतियोगी स्थिति खो बैठेगा। इन तमाम तर्कों में सच्चाई कुछ तो है।

लेकिन आज एक बहुत बड़ा मुद्दा है नागरिकता का। क्या बेहद दुरूह हालातों में लोगों को रहना चाहिए? आमतौर पर इसकी वजह भी $गरीब ही मान लिए जाते हैं। आधुनिक काम-धंधा करने के लिए उनके पास कौशल नहीं होता। इसकी वजह यह कतई नहीं है कि उन्हेें पढ़ाई-लिखाई का मौका नहीं मिला या उन्हें उचित पोषण नहीं मिला और स्वास्थ सुविधाएं हासिल नहीं हुई।

आज़ादी के समय, यह माना गया था कि समाज की बुराइयों मसलन $गरीबी और अशिक्षा का समाधान सामूहिक तौर पर किया जाएगा। अर्थव्यवस्था में राज्य को खासी अहमियत दी गई। यह देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के दौर में बनी आम राय थी।

लेकिन इस आम राय की अनदेखी हुई। देश में क्रोनी कैपिटलिज्म और मोनोपॉलिज का विकास हुआ। हालांकि देश में 1991 में मोनोपोलीज एंड रिस्ट्रिक्टिव ट्रेड प्रैक्टिस एक्ट भी बना। यह जो आदर्श बदलाव आया कि व्यक्ति विशेष को ही बाज़ार जाकर अपनी निजी समस्याओं को हल करना चाहिए। इससे समाज मेें असमानताएं बढ़ेंगी। ऐसे कुछ संकटों के निदान के लिए यूपीए एक ने मनरेगा और शिक्षा के लिए अधिकार और स्कूल में दोपहर का भोजन आदि योजनाएं शुरू कीं। हालांकि ये योजनाएं समाधानकारक ही रहीं लेकिन यदि इन योजनाओं को नेहरू के आदर्श की ओर वापिसी कहें तो गलत नहीं होगा।

देश में असमानता लगातार बढ़ती गई है। अभी हाल जारी डाटा से यह साफ है कि देश की एक फीसद आबादी के पास पूरे देश के खजाने का 70 फीसद है और सारी आय का 22 फीसद है। यदि इससे कालाधन भी जोड़ दिया जाए यह सब मिलकर कुल खजाने का 85 फीसद और आमदनी सारी आय का 45 फीसद है।

यह सबसे बड़ी वजह है आर्थिक मंदी और देश की बड़ी जनसंख्या के विरोध की मोदी सरकार ने पहले यह वादा किया था कि वे नीतियों से नेहरूवादी तत्वों को हटा देंगे। लेकिन मनरेगा ही जारी नहीं रहा, बल्कि उसका बजट उसी श्रेणी की नई नीति उज्जवल योजना शुरू कर दी गई। बस उसमें एक व्यावसायिक नज़रीया ज़रूर जोड़ दिया गया। नतीजा अब दिख रहा है।

कांग्रेस के चुनावी घोषणापत्र में एक भरे-पूरे समाज की बात की गई है। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि राज्य ही देश के बेहद गरीब वर्गों की जिम्मेदारी भी वहन करेगा – न्याय योजना उसी तरह की है। लेकिन क्या भरोसा जमेगा?

जनता के प्रति जवाबदेही की ज़रूरत ऐसे तमाम कार्यक्रमों में होनी ही चाहिए।  इन कार्यक्रमों में यह बात भी ज़रूरी होगी कि यह बताया जाए कि ऐसे कार्यक्रमों को अमली जामा पहनाने के लिए कहां से संसाधन जुटाए जाएंगे। जिससे चुनावी घोषणापत्र में दिया गया लक्ष्य हासिल हो सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो कागज पर की गई घोषणा का देश की जनता के लिए कोई मायने नहीं होगा।

अरुण कुमार

लेखक मालकम अदिसेलिया चेयर

सोशल साइसेज में प्रोफेसर हैं।

साभार: इंडियन एक्सपे्रस