अभी तिश्नगी बाकी है…

दुनिया भर को अपनी शायरी से इल्म की रोशनी देने वाले भारत के मशहूर शायर मोहतरम मुनव्वर राणा को आज कौन नहीं जानता। हाल ही में उनसे सुनील कुमार ने लम्बी बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसी बातचीत के अंश

मोहतरम आप कई दशक से शायरी के ज़रिये, अफसानों और नस्र के ज़रिये दुनिया को इल्म, तअलीम देते आ रहे हैं। आपने बहुत से बड़े शे’र दुनिया को दिये, जिन्हें सदियाँ अमल में लाएँगी, पीढिय़ाँ बरतेंगी। कभी तसल्ली हुई कि अब आपने काफी कुछ कह दिया या बहुत कुछ दुनिया को दे दिया?

नहीं, तसल्ली या कहें संतुष्टि तो कभी हुई नहीं। बल्कि हमने अपने एक शे’र में कहा है-

जितना लिक्खा है उसी ने हमें इज़्ज़त दे दी

जो न लिख पाये वो लिखते तो कयामत होती

तो कभी-कभी यह अहसास होता है कि बीमारियों ने, कुछ परेशानियों ने, कुछ कारोबारी मशरूिफयत ने, कुछ ज़िन्दगी के हंगामों ने उतना हमको लिखने का मौका नहीं दिया या उतना हम नहीं लिख सके या ज़िन्दगी से हमने उतना काम नहीं लिया, जितना एक दबीरुल शायर को लेना चाहिए।

लेकिन जहाँ तक मैं आपको जानता हूँ, जहाँ तक मैंने आपको पढ़ा है, उससे मुझे लगा जो और जितना आपने दुनिया को दिया, वह बहुत है। पहले के बड़े शायर जो नहीं दे पाये, वह आपने दिया। आपका एक अलग ही दर्शन है…!

नहीं असल में…, जैसे कि एक अधूरेपन का एहसास होता है। जैसे हमने आपको मुकम्मल नहीं किया, या हम अपने आपको मुकम्मल नहीं कर पाये। बिल्कुल यूँ कि जैसे हमारी पिछले दिनों एक किताब आयी है; ऑटो वायोग्राफी है- ‘मीर आके लौट गया।’ हमारा एक शे’र है उसी से हमने इसका शीर्षक उठाया है-

न होंगे हम तो हमारा ही तज़किरा होगा

कहेंगे लोग कि फिर मीर आके लौट गया

यह 640 पेज की किताब है। और उसका दूसरा एक हिस्सा हमने कुछ लिक्खा भी है। लेकिन बीमारियों ने खासतौर से, कुछ परेशानियों ने, कुछ घरेलू मशरूिफयत ने इसको मुकम्मल करने का मौका नहीं दिया अभी तक; तो यह अधूरेपन का जो एहसास है, इससे हम कभी-कभी डर जाते हैं। कि अगर इसको मुकम्मल किये वगैैर दुनिया से चले गये, तो दुनिया की भी प्यास बरकरार रह जायेगी। दुनिया यही सोचेगी कि न जाने मुनव्वर राणा और क्या-क्या कहना चाहते थे?

नहीं, इंशा-अल्लाह आप बहुत लम्बी उम्र जिएँगे। अल्लाह/ईश्वर आपको सेहतमंद रखे। तो यह तिश्नगी जो है, यह तड़प जो है, अधूरेपन की; यह तड़प एक शायर की है या एक आम गृहस्थ व्यक्ति की है?

नहीं, देखिये असल में अगर आप गृहस्थी से कटते हैं, तो इसका मतलब है कि आपने अपने बीवी-बच्चों का हक अदा नहीं किया; आपने अपना जीवन अपनी खुशी के लिए बर्बाद कर दिया। अब जैसे हमारे छ: बेटे-बेटियाँ हैं। एक बेटा और पाँच बेटियाँ। तो यह ज़िम्मेदारी मेरे पास बड़ी थी। अब इनकी शादी-ब्याह करना, एक कविता मुकम्मल करना है, एक किताब लिखना है, एक उम्र गुजारना है, एक जीवन व्यतीत करना है। तो एक बेटी की शादी का मेरे दिल में तसव्वुर यही है कि हमने एक ज़माना जी लिया। तो यह भी ज़रूरी था। और सीधी-सी बात यह है कि अगर यह प्यास का एहसास न रहे जाये कि अब हमारी प्यास बुझ गयी, तो शायद आदमी मर जाता है। तो अगर हम यह सोचते हैं कि अभी हमें और लिखना है, तो शायद यही चीज़ हमें ज़िन्दा रखेगी और शायद यही चीज़ हमसे कोर्ई और काम ले ले।

हुज़ूर लोगों ने आपको एक तरफ रख दिया कि आपने माँ पर शायरी की है। जबकि आपने माँ पर तो शायरी की है, यह तो आपका एक अलग हासिल है, यह आपकी वसीयत है। माँ पर कभी किसी ने नहीं लिखा। लेकिन दुनिया को और भी बहुत कुछ दिया, दुनिया को अलग तरीके से देखा, और जिस तरीके से आपने दुनिया को देखा है, उसमें कई तरीके भी नये हैं, अलग हैं। आपका एक अलग अंदाज़ है; जो मुनव्वर राणा का अंदाज़ है, वह किसी का है ही नहीं?

हाँ, यह आपने एक तरह से यूँ कहिए कि हमारी दुखती रग पर हाथ रख दिया। कि मुझे भी यह एहसास होता है कि जो हमारा जितना काम है, उतना लोगों ने देखा नहीं। हमारा एक शे’र है-

मैं शब्द-शब्द बनाकर गुहर दिखाता हूँ

तुम्हें गज़ल में मैं अपना हुनर दिखाता हूँ

तो अपना हुनर मैंने दिखाया है। लेकिन लोग उसी में उलझकर रह गये। लेकिन इसका मुझे दु:ख नहीं होता है। इसलिए कि मैंने यह हमेशा महसूस किया है कि शायरी इज नॉट वन-डे मैच कि शाम को रिजल्ट आ जाएगा। यह तो सदियों के लिए है, एक सदी इसके एक पन्ने की तरह होती है। तो मुमकिन है कि अगर हमने अच्छा लिखा होगा, तो आज नहीं तो मेरे मरने बाद लोग उसको समझेंगे। अच्छा, बहरहाल खुशी यह भी होती है कि मुझ पर कई लोगों ने पीएडी भी मुकम्मल की, डीलिट की उपाधि हासिल की। लेकिन इसका गम है कि आवामी तौर पर लोग समझते हैं कि मुनव्वर राणा ने माँ पर शायरी की। लेकिन यह ज़ाहिर सी बात है कि सैकड़ों, हज़ारों, लाखों माँओं की दुआ है कि आज हम ज़िन्दा-सलामत हैं, आज भी लिखते-पढ़ते रहते हैं। आज तक हमने जो ज़िम्मेदारियाँ थीं- बेटियों की शादियाँ करना, बेटे को ज़िम्मेदार बनाना। तो यह है कि हमने एक चैप्टर मुकम्मल कर दिया। तो माँ पर ही हमने शायरी नहीं की, हमने गद्य (नस्र) बहुत लिखा, हमने पद्य (काव्य) बहुत लिखा। अब अगर आप लोगों की दुआएँ रहीं, तो और भी लिखेंगे।

नहीं, आप सलामत रहेंगे। साहब! एक मुझे हैरत होती है कि लोग कहते हैं कि मुनव्वर राणा तो अपनी शायरी में रोने लगते हैं। मुझे ऐसे लोगों की तंगदिली या नासमझी पर हैरत होती है कि अभी भी वो समझ नहीं पाये कि मुनव्वर राणा आिखर हैं क्या? आपकी शायरी की दुनिया कितनी बड़ी है, लोग वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाते।

देखिए, असल में बहुत से लोग हैं कि उनको आलोचना करने का शौक होता है। किसी भी तरह से वो आलोचना करते रहते हैं। लेकिन, यह भी है कि शायद हम बहुत दुखे दिल के इंसान हैं। हम चाहें अपना दु:ख बयान कर रहे हों या दूसरे का दु:ख सुन रहे हों, हम नहीं सुन पाते हैं। हमको सुनाने में भी तकलीफ होती है। चाहे वो दु:ख की कहानियाँ हों, चाहे हकीकत हो, हमारी आँखें छलक जाती हैं। हम शायद इतने तंग दिल नहीं हैं कि दूसरे के दु:ख को हम कहानी की तरह सुनें। हम दूसरों के दु:ख को अपने दु:ख की तरह सुनते हैं, महसूस करते हैं।

साहब! आपकी कुछ शायरी की किताबें मैंने पढ़ी हैं। आपका गद्य नहीं पढ़ा। आपने माँ पर किताब लिखी, फिर मुहा•िारनामा लिखी, फिर कुछ किताबें आपकी हैं, जैसे- गज़ल गाँव, पीपल छाँव, बदन सराय, नीम के फूल, वगैैर नक्शे का मकान है, तो यह जो नाम हैं, लगता है जैसे उपन्यास या कहानी की हों, तो क्या यह शायरी की किताबें हैं या कहानी, उपन्यास आदि भी हैं?

वगैैर नक्शे का मकान गद्य की किताब है। जो गद्य की हमारी किताबें हैं, उसमें आलोचक की हैसियत से भी हमने बहुत कुछ लिखा है। कहानियाँ भी हमने लिखी हैं। और जो हमारे पूर्वज थे, उन लोगों पर भी हमारे लेख हैं। जैसे नीरज जी थे, उन पर हमने बहुत लिखा है, वो लोकमत वाले नीम के फूल के नाम से हर हफ्ते हमारा लेख छापते थे। तो एक लेख उन्होंने हमारा नहीं छापा, उन दिनों नीरज जी बहुत बीमार थे। तो वह लेख उन्होंने नहीं छापा। जब उनसे हमने पूछा, तो वो कहने लगे कि मुनव्वर भाई, यह जो पत्रकार होते हैं, बहुत बेईमान और खुदगरज़ होते हैं। नीरज जी की जो हालत है, उससे लगता नहीं कि नीरज जी बहुत दिन रहेंगे, तो जिस दिन नीरज जी नहीं रहेंगे, तब हम इस लेख को छापेंगे। और हमें खुशी होगी कि ऐसा लेख पूरे हिंदुस्तान के किसी भी हिन्दी-उर्दू अखबारों में इससे अच्छा मज़मून कोर्ई भी नीरज जी पर नहीं है। तो जब नीरज जी गुज़रे, तब उन्होंने वह लेख छापा।

…एक किताब है हमारी मीर आके लौट गया। तो उसमें हमारे गद्य के पोर्सन (अंश) मिल जाएँगे। तो दुश्मनों ने यह उड़ा दी कि मुनव्वर राणा का गद्य जितना अच्छा है उतनी अच्छी शायरी नहीं है। तो मैंने कहा कि चलिए मुझे यह भी अच्छा लगता है। लेकिन मैं शायरी छोड़ नहीं सकता है; क्योंकि जो शायरी है, तेज़ी से असर करने वाली दवा है। और गद्य होम्योपैथिक की दवा है, जो धीमे-धीमे, धीमे-धीमे असर करता है ….!(शेष अगले अंक में…)