अभिशाप बनता जातीय व नस्लीय भेदभाव

 

झारखण्ड में आदिवासी महिला दारोग़ा की मौत पर मुख्यमंत्री की चुप्पी कठघरे में

प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय नस्लीय भेदभाव उन्मूलन दिवस मनाया जाता है। यह दिवस जातिवाद और नस्लीय भेदभाव के विरुद्ध एकजुटता का आह्वान करता है। बावजूद इसके भारतीय समाज जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा हुआ है। आये दिन ऐसे कई मामले देखने को मिलते हैं, जब वंचित वर्ग के प्रतिभाओं को जाति तथा नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत का शिकार होना पड़ता है।

ऐसा ही एक मामला झारखण्ड में सामने आया है। झारखण्ड के साहेबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की जाति एवं नस्ल आधारित भेदभाव और नफ़रत के कारण मौत की शिकार हुईं, जो आदिवासी समुदाय से हैं। झारखण्ड के आदिवासी बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप है कि आदिवासी समुदाय से होने के कारण रूपा तिर्की का विभाग के ही अधिकारियों द्वारा उत्पीडऩ किया जाता था। बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने रूपा के मौत की सीबीआई जाँच कराने की माँग की है।
क्या है मामला?

साहिबगंज महिला थाना प्रभारी रूपा तिर्की का शव 3 मई, 2021 की रात संदेहास्पद स्थिति में उनके फ्लैट में पंखे से लटका मिला। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों पर भी दाग़ने के निशान थे। रूपा तिर्की के परिजनों और स्थानीय लोगों का कहना है कि रूपा काफ़ी मृदुभाषी होने के साथ मिलनसार थीं। रूपा आत्महत्या नहीं कर सकती हैं। रूपा की हत्या की गयी है। रूपा के परिजनों ने सरकार से निष्पक्ष जाँच करके इंसाफ़ की माँग की है।
रूपा की माँ ने एसपी को आवेदन देकर कमेटी गठित कर जाँच कराने की माँग की। आवेदन कहा गया है कि रूपा की हत्या की गयी है। उनका घुटने के बल था। गले में रस्सी के दो निशान और शरीर के कुछ अंगों में जगह-जगह पर दाग़ने के निशान थे। दोनों हाथों को देखने पर ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ने उसके हाथों को पकड़ा गया हो। घुटने पर मारने जैसे निशान हैं। पूरे मामले की जाँच कमेटी गठित कर की जाए। रूपा के क्वार्टर (सरकारी कमरे) के सामने रहने वाली दारोग़ा मनीषा कुमारी व ज्योत्सना महतो हमेशा उसे टॉर्चर करती थीं। छोटी-छोटी बातों पर उसे हमेशा नीचा दिखाती थीं। 10 दिन पहले दोनों ने किसी पंकज मिश्रा के पास रूपा को भेजा था। थाने से आने के बाद अन्तिम कॉल में रूपा ने कहा था-‘मम्मी, पानी पीने के बाद मुझे दवा जैसा लगा। अब तक ऐसा लग रहा है।’

‘आत्महत्या नहीं, हत्या’
विभिन्न संगठनों एवं राजनीतिक दलों ने रूपा को न्याय दिलाने के लिए विरोध-प्रदर्शन भी शुरू कर दिया है और सोशल मीडिया में भी सवाल उठाये जा रहे हैं। मामले की जाँच कर रही पुलिस प्रथम-दृष्टया इसे आत्महत्या मान कर चल रही है; जबकि सामाजिक संगठनों का आरोप है कि हत्या को आत्महत्या दिखाने का प्रयास किया जा रहा है। 7 मई को राज्य की राजधानी रांची के रातू स्थित काठीटाड़ चौक में आदिवासी छात्र संघ ने विरोध-प्रदर्शन किया। इस दौरान काठीटाड़ चौक पर लोगों ने हाथों में पोस्टर लेकर नारेबाज़ी की और रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच की माँग की। रांची के नामकुम में भी विरोध-प्रदर्शन किया गया। भाजपा महिला मोर्चा ने भी पलामू ज़िला मुख्यालय में भी विरोध-प्रदर्शन किया।
सोशल मीडिया पर ‘जस्टिस फॉर रूपा तिर्की’ लगातार ट्रेंड कर रहा है। ट्वीटर पर 50,000 से ज़्यादा लोगों ने ट्वीट किया है। सोशल मीडिया में यूजर्स द्वारा अनेक सवाल किये जा रहे हैं कि क्या घुटनों के बल बैठकर आत्महत्या सम्भव है? जहाँ खड़े होकर फंदा लगाया जा सकता है, वहाँ कुर्सी की ज़रूरत क्यों हुई? क्या मरते समय रूपा तिर्की को कोई तकलीफ़ नहीं हुई होगी? क्या उसने हाथ-पैर नहीं चलाये? फिर बेडशीट एकदम बराबर कैसे? फंदे वाली रस्सी कमर के पास से तौलिये के अन्दर से कैसे गुज़री? कोई भी इंसान कम कपड़ों में फाँसी क्यों लगाएगा? रूपा तिर्की का सुसाइड नोट कहाँ है? उनके शरीर पर निशा क्यों निकले?

सीबीआई जाँच की माँग
रूपा तिर्की की मौत को साज़िश के तहत हत्या बताते देते हुए झारखण्ड के सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने सीबीआई जाँच की माँग की है। भाजपा विधायक दल के नेता व पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, राज्यसभा सांसद समीर उरांव, मांडर विधायक बंधु तिर्की, बोरियो विधायक लोबिन हेंब्रम, आदिवासी सुरक्षा परिषद के अध्यक्ष रमेश हांसदा, आदिवासी जन परिषद् के अध्यक्ष प्रेम शाही मुंडा समेत कई बुद्धिजीवियों-कार्यकर्ताओं ने मुख्यमंत्री से रूपा तिर्की की मौत की सीबीआई जाँच कराने का आग्रह किया है। वहीं, झारखण्ड सरकार में मंत्री मिथलेश ठाकुर का कहना है कि होनहार पुलिस अधिकारी की असामयिक मौत हुई है। प्रथम दृष्ट्या आत्महत्या का मामला लगता है। मर्माहत करने वाली घटना है। मुख्यमंत्री ने भी संवेदना व्यक्त की है। जाँच के निर्देश दिये गये हैं। साहेबगंज एसपी के नेतृत्व में टीम गठित है। जाँच में कुछ सामने आएगा, तो फिर कार्रवाई होगी। सीबीआई जाँच सभी घटना का विकल्प नहीं है। विपक्ष के नेता केंद्र सरकार से कोरोना-काल में राज्य के लिए सहयोग माँगने के बजाय सिर्फ़ झूठी संवेदनशीलता के लिए बयानबाज़ी करते हैं।
भेदभाव का ज़हर
झारखण्ड के प्रसिद्ध आदिवासी लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता ग्लैडसन डुंगडुंग ने सोशल मीडिया पल लिखा कि ‘रूपा तिर्की के आत्माहत्या का मामला साधारण नहीं है। यह आदिवासियों के ख़िलाफ़ वर्ण एवं जाति आधारित भेदभाव और नफ़रत से भरा भारतीय समाज के कुकर्म का परिणाम है। आप लोगों को याद होगा, डॉक्टर पायल तडवी प्रकरण। सरकारी नौकरी करने वाले लगभग सभी आदिवासियों के साथ इसी तरह से नस्ल और जाति आधारित भेदभाव, हिंसा और प्रताडऩा होता है फिर भी आदिवासी चुप रहते हैं। रूपा को न्याय देने के लिए सीबीआई जाँच होनी चाहिए। हम आदिवासी लोग सिर्फ़ और सिर्फ़ एकजुट होकर ही ऐसे भेदभाव, अन्याय और अत्याचार का मुक़ाबला कर सकते हैं।’
आदिवासी अख़बार ‘दलित आदिवासी दुनिया’ के प्रकाशक-संपादक एवं सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ति तिर्की कहते हैं कि रूपा तिर्की ने आत्महत्या की या उनकी हत्या की गयी? इसमें कई तरह बातें सुनने में आ रही हैं। लेकिन यह काफ़ी गम्भीर मामला है। झारखण्ड सरकार ने न कोई न्यायिक जाँच बैठायी है और न ही वह कोई उच्चस्तरीय जाँच करवा रही है। सामान्य रूप से एफआईआर दर्ज कर जाँच की जा रही है। अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम के तहत भी एफआईआर दर्ज नहीं की गयी है।

रूपा तिर्की का जातिगत उत्पीडऩ भी हुआ है और उनके ऊपर अधिकारियों का कुछ तात्कालिक दबाव भी था। उन पर मानसिक अत्याचार हुआ है। यदि रूपा ने आत्महत्या भी की है, तो उन्हें आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया है। आत्महत्या के लिए मजबूर किया जाना भी एक गम्भीर अपराध है। रूपा एक पुलिस अफ़सर थीं, कोई सामान्य व्यक्ति नहीं। यह तो पुलिस की प्रतिष्ठा का भी सवाल है। पुलिस अफ़सर की मौत के मामले में तो वैसे भी सीबीआई जाँच होनी चाहिए। आख़िर क्यों जाँच नहीं हो रही है? झारखण्ड के मुख्यमंत्री, जो ख़ुद आदिवासी हैं; की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह लोगों के सवालों का जवाब दें और रूपा को न्याय दिलाएँ।

भारत के कथित ऊँची जातियों के लोग कहते हैं कि भारत में नस्लवाद नहीं है, जो कि एक सफ़ेद झूठ है। जाति के आधार पर उत्पीडऩ भी एक तरह का नस्लवाद ही है। पूर्वोत्तर या दक्षिण भारत के लोगों के विरुद्ध भी रंग-रूप के आधार पर उत्पीडऩ किया जाता है और नस्लवादी टिप्पणियाँ की जाती हैं। ऐसी अनेक घटनाएँ आये दिन होती रहती हैं। सन् 2019 में आदिवासी समुदाय से आने वाली मुम्बई के बीवाईएल नायर अस्पताल की 26 वर्षीय रेजिडेंट डॉक्टर पायल तड़वी ने तीन वरिष्ठ चिकित्सकों के जातिवादी-नस्लीय उत्पीडऩ से परेशान होकर अपने कमरे में फाँसी लगाकर जान दे दी। मार्च, 2020 में मणिपुर की एक महिला को कोरोना बताकर, उसके मुँह पर थूकने जैसा घृणित काम किया गया। पूर्वोत्तर भारत के लोगों को ‘चिंकी’ और ‘नेपाली’ कहना, तो आम प्रचलन-सा हो गया है। दिल्ली-मुम्बई समेत कई नगरों, महानगरों में निम्न जाति और आदिवासी लोगों का अनेक तरह से उत्पीडऩ किया जाता है।


पीडि़त क़ानून का लें सहारा
जातिवादी एवं नस्लवादी टिप्पणियों एवं उत्पीडऩ के सैकड़ों मामले हर साल पुलिस थानों में दर्ज किये जाते हैं। लेकिन पीडि़तों को क़ानून की सही जानकारी न होने के कारण उनके साथ न्याय नहीं हो पाता या बहुत मुश्किल से बहुत कम मापदण्ड या भेदभाव के आधार पर ही होता है। ऐसे मामले अगर थानों तक चले भी जाते हैं, तो पुलिस दोषियों को सज़ा देने की बजाय या तो पीडि़त को ही फटकार या धमकाती है अथवा समझौते का दबाव बनाती है।

लेकिन भारत में इसके लिए बाक़ायदा क़ानून है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद-15, 16 और 29 ‘नस्ल’, ‘धर्म’ तथा ‘जाति’ के आधार पर भेदभाव पर प्रतिबन्ध लगाते हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा-153(ए) भी ‘नस्ल’ को संदर्भित करती है। बावजूद इसके जातिवादी-नस्लवादी उत्पीडऩ काफ़ी तेज़ी से बढ़ा है। हालाँकि नस्लवादी-जातिवादी उत्पीडऩ को रोकने के लिए कड़े क़ानून बनाने एवं बड़े स्तर पर नस्लवाद-विरोधी कार्रवाई करने की आवश्यकता है। साथ ही इसके लिए सहिष्णुता, समानता के साथ ही भेदभाव विरोधी एक वैश्विक संस्कृति का निर्माण किया जाना भी बेहद ज़रूरी है। नस्लवाद और जातिवाद से सम्बन्धित भेदभाव की हालिया घटनाएँ सम्पूर्ण समाज को समानता के सम्बन्ध में विभिन्न पहलुओं को नये सिरे से सोचने पर मजबूर करती हैं।