अब राजनीति की ‘पिच’ का जायज़ा लेंगे गांगुली

क्या भाजपा 2021 में पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव को ‘दीदी’ बनाम ‘दादा’ करने का ताना-बाना बुन रही है? बीसीसीआई अध्यक्ष पद पर दिग्गज क्रिकेटर सौरव गांगुली को बिठाने में उसकी दिलचस्पी और परदे के पीछे से मेहनत तो यही संकेत देती है। गांगुली-क्रिकेट-राजनीति के इस दिलचस्प त्रिकोण पर विश्लेषण कर रहे हैं राकेश रॉकी।

सौरव गांगुली किसी परिचय के मोहताज नहीं। उनको जानने वाले मानते हैं कि वे जितने अच्छे खिलाड़ी रहे, उतने ही राजनीति के छिपे रुस्तम हैं। बीसीसीआई का अध्यक्ष हो जाने को क्या गांगुली राजनीति की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करेंगे, इसके कयास अब देश की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले हर गली-कूचे में हैं।

खुद गांगुली मान चुके हैं उनके बीसीसीआई का अध्यक्ष होने के पीछे भाजपा के युवा तुर्क और राज्यमंत्री अनुराग ठाकुर का समर्थन रहा है। तो क्या परदे के पीछे से अनुराग ठाकुर के जरिये भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गांगुली को बीसीसीआई के बहाने पश्चिम बंगाल की राजनीति में ताकतवर ममता बनर्जी के मुकाबले भाजपा की तुरुप के रूप में तैयार किया है !

पहले यह देख लें कि गांगुली को बंगाल के अपने नेता के रूप में देखने की भाजपा की जरूरत (या मजबूरी) क्या और क्यों हो सकती है। मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा सीधे नरेंद्र मोदी के नाम और चेहरे पर चुनाव में उतरी थी। शायद अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी उतरे। लेकिन बंगाल में तमाम नेता होते हुए भी उसके पास पूरे बंगाल में ‘मास अपील’ रखने वाला नेता नहीं है। ऐसा नेता जो ममता बनर्जी जैसी मास अपील वाली नेता को टक्कर दे सके।

कोई दो राय नहीं कि शाह ने लोक सभा चुनाव में अपनी रणनीति, जिसमें हिंदुत्व को उभार कर राजनीति करना प्रमुख है, को कॉर्पोरट फंडिंग, सोशल मीडिया और जाति (दलित, आदिवासी) की मदद से ज़मीनी नेता ममता बनर्जी को ‘ठिकाने’ लगाने के उदेश्य से बखूबी इस्तेमाल किया।

लोक सभा चुनाव के वक्त सोशल मीडिया के प्रचार (या दुष्प्रचार) का भाजपा ने जमकर फायदा उठाया। एक पोस्ट में तो यह दावा किया गया था कि ममता बनर्जी की सरकार ने दुर्गा पूजा आयोजन पर ‘बैन’ लगा दिया है। सच यह है कि यह झूठ था। बांग्लादेशी शरणार्थियों पर भी भाजपा ने आंख रखी और उन्हें भाजपा से जोडऩे की गंभीर कवायद हुई जिसमें आरएसएस ने भी जमीनी स्तर पर काम किया।

सौरव गांगुली की बीसीसीआई अध्यक्ष चुनाव से पहले अमित शाह से मुलाकात बहुत कुछ कहती है। गांगुली बीसीसीआई के अध्यक्ष पद पर जाने के नाते भले अपने किसी राजनीतिक कनेक्शन से बचना चाहते हों, परंतु अपने लिए अनुराग के समर्थन को खुले रूप से स्वीकार करना एक तरह से भाजपा का धन्यवाद करने जैसा ही है।

क्रिकेट में उनकी कप्तानी के दिनों को जिसने भी गहराई से समझा है, वो जनता है कि गांगुली बहुत फूंक-फूंक कर कदम रखते हैं। वे विरोधी टीम के लिए जाल बिछाते थे और उसे मात देने के लिए बहुत आक्रामक तरीके के साथ उस पर काम करते थे।

भाजपा को भी राजनीति में ‘आक्रामण’ पसंद रहा है। हिंदुत्व की उग्र राजनीति आक्रमण के साथ ही की सकती है। सौरव से अच्छा और लोकप्रिय पात्र भाजपा को भला कहां मिल सकता है। लेकिन एक सवाल जरूर है – क्या सौरव गंभीरता से ऐसी उग्र राजनीति की कश्ती पर सवार हो जाना चाहेंगे! मई के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने ममता बनर्जी को चौंकाया था, इसमें कोई दो राय नहीं। चुनाव के नतीजों से ऐसा भी लगा कि एक समय बंगाल के किले पर दशकों राज करने वाले वामपंथियों का एक वर्ग भी भाजपा के समर्थन की कतार में जा खड़ा हुआ। शायद वामपंथियों की ममता से ‘नफरत’ ही वामपंथियों को किसी समय ममता से बड़ी अपनी राजनीतिक दुश्मन भाजपा के करीब ले गयी। वामपंथियों ने वास्तव में इससे क्या हासिल किया, यह तो समय ही बताएगा।

इस चुनाव में भाजपा 40 फीसदी वोट शेयर के साथ 18 सीटें जीत गयी जो उसके 2014 के प्रदर्शन – तीन सीट – से कहीं ज्यादा थीं। भाजपा से करीब तीन फीसदी ज़्यादा वोट फीसद के साथ ममता की तृणमूल कांग्रेस ने 22 सीटें जीतीं।

देश में उस चुनाव में भाजपा ने मोदी-शाह के नेतृत्व में ‘उग्र राष्ट्रवाद’ की जैसी नजीर पेश की, उसके सामने भी ममता बनर्जी 43 वोट शेयर ले गईं, यह जनता और बंगाल पर उनकी पकड़ का ही नतीजा था लेकिन यह भी सच है कि इन नतीजों ने ममता को चौकन्ना कर दिया। वे नतीजों के तुरंत बाद ज़मीन पर पूरी ताकत से सक्रिय हो गईं। भाजपा तो खैर है ही।

लेकिन इन अच्छे नतीजों के बावजूद भाजपा महसूस करती है कि उसके पास ममता की टक्कर का कोई चेहरा नहीं। विधानसभा चुनावों में ऐसे चेहरे की सख्त ज़रूरत उसे रहेगी, इसलिए गांगुली एक संभावना के रूप में सामने हैं। कहते तो यह भी हैं कि अपनी राजनीति के लिए भाजपा ‘दादा’ को लोकसभा चुनाव में ही सामने ले आना चाहती थी लेकिन गांगुली जल्दबाजी नहीं करते और शायद वो नतीजे भी देखना चाहते थे।

यदि भाजपा की पिछले पांच साल की क्षेत्रीय राजनीति का गहराई से अध्ययन किया जाए तो जाहिर होता है कि उसने बहुत से राज्यों में अपने पास बहुत लोकप्रिय चेहरा न होने के चलते दूसरे दलों – खासकर कांग्रेस – से लोकप्रिय नेताओं को तोडक़र अपने साथ मिलाया और उन्हें आगे कर चुनाव में उतरी। असम, अरुणाचल प्रदेश, त्रिपुरा जैसे कई उदाहरण हैं। बंगाल और तमिलनाडु अगली कतार में हैं।

गांगुली के चर्चा में आने से पहते तक मुकुल राय भी भाजपा के मुख्यमंत्री पद का सबसे मजबूत चेहरा माने जाते रहे हैं, वे भी भाजपा ने अपने यहां तृणमूल कांग्रेस से ही आयातित किये हैं। वैसे ही जैसा वह दूसरे कुछ प्रदेशों में करती रही है, जहां उसे सत्ता की तलाश है।

भाजपा की राजनीति को देखा जाए तो वह देश में जिन ज़मीनी नेताओं से सबसे ज्यादा ‘खौफ’ खाती है और जिनसे सबसे ‘नापसंदगी’ वाला भाव रखती है, उनमें ममता बनर्जी सबसे ऊपर हैं। एक समय ममता एनडीए की साथी रही हैं लेकिन तब भाजपा के केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी थे, नरेंद्र मोदी नहीं। वाजपेयी की लोकप्रियता मुसलमानों में भी खूब थी, मोदी की नहीं है। इसलिए ममता की सेक्युलर राजनीति में मोदी की कोई जगह नहीं हो सकती। वैसे ही जैसे शाह-मोदी की राजनीति में ममता की नहीं हो सकती।

मुकुल रॉय 2017 में बंगाल में सर्वेसर्वा बन गए लेकिन वहे भाजपा जैसे बड़ी राष्ट्रीय पार्टी में आकर भी वैसी प्रदेशव्यापी छवि नहीं पा सके जैसी क्षेत्रीय दल की नेता होते हुए भी ममता बनर्जी की है। मां, माटी, मानुष के राजनीतिक नारे के साथ ममता जैसी पैठ बंगाल की जनता में रखती हैं, वैसी फिलहाल तो सूबे में दूर-दूर तक किसी की नहीं।

वैसे इसमें कोई दो राय नहीं कि मुकुल राय ने ममता बैनर्जी से अलग होकर भाजपा में कड़ी मेहनत की और एक स्तर तक भाजपा का संगठन भी खड़ा किया। टीएमसी के कई बड़े नेताओं को भाजपा में लाने का ‘श्रेय’ भी उन्हें दिया जा सकता है। जाहिर है इतनी मेहनत और तोड़-फोड़ मुकुल ने इसलिए की होगी कि वे भी ममता की ही तरह सूबे का मुख्यमंत्री बनने का सपना देखते होंगे।

अब जबकि सौरव गांगुली को भाजपा के बंगाल में आगे करनी की चर्चा तेजी से उभरी है तो यह सवाल जरूर उठता है कि शाह ने क्या मुकुल राय को ममता से लोगों को तोडऩे और अपना आधार मजबूत करने के लिए ही इस्तेमाल किया? शायद मुकुल राय के जहन में भी यह सवाल आएं। फिलहाल तो तस्वीर साफ नहीं, लिहाजा मुकुल का मिज़ाज जानने के लिए कुछ महीने का इंतज़ार करना होगा।

गांगुली की बंगाल में भाजपा के चेहरे के रूप में चर्चा इतनी मजबूती से उठी है तो यह मुकुल राय के लिए चिंता की बात तो बनेगी ही। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक जब बीसीसीआई अध्यक्ष पद के लिए गांगुली को पर्चा भरना था तो कुछ और लोग मैदान में आने की तैयारी कर रहे थे। इन सब लोगों को रोकने के लिए अमित शाह ने असम के अपने नेता हिमंत बिस्वा सरमा को जिम्मा सौंपा था। रातों-रात सरमा मुंबई पहुंचे और फोन पर फोन खडक़ाये। अगले दिन नतीजा सबके सामने था – गांगुली के खिलाफ मैदान में कोई नहीं था।  गांगुली के लिए ऐसी मेहनत परदे के पीछे से भाजपा या अमित शाह या अनुराग ठाकुर या हिमंत विश्व सरमा ने क्यों की? सिर्फ उन्हें बीसीसीआई का प्रमुख बनाने भर के लिए? शायद नहीं। बीसीसीआई के अध्यक्ष पद की इस पिच पर तीन विकेट यदि मुंबई में गड़े थे तो तीन बंगाल में थे। शाह मुंबई की विकेट पर गांगुली को अपराजेय रखना चाहते थे ताकि बंगाल तक उनके जरिये भाजपा विधानसभा चुनाव का विजयी रन दौड़ सके।

गांगुली क्योंकि पिछले काफी समय से बीसीसीआई से पदाधिकारी के रूप में जुड़े हैं, नियमों के मुताबिक वे अगले 10 महीने तक ही बीसीसीआई अध्यक्ष पद पर रह सकते हैं। बीसीसीआई के नियम कहते हैं कि उसके बाद उन्हें ‘कूलिंग ऑफ पीरियड’ में रहना होगा यानी वे बीसीसीआई से जुड़े किसी संगठन में पदाधिकारी नहीं हो सकते। भाजपा संभवता इस ‘कूलिंग आफ पीरियड’ को ही अपने लिए ‘हॉट पीरियड’ के रूप में इस्तेमाल करेगी।

गांगुली का जब बीसीसीआई अध्यक्ष बनना तय हो गया तो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने उन्हें गर्मजोशी से भरा संदेश भी भेजा। इसमें ममता ने लिखा – ‘आपको आपके कार्यकाल के लिए शुभकामनाएं। हमें बंगाल क्रिकेट संघ के अध्यक्ष के तौर पर भी आपके कार्यकाल पर गर्व रहा है। अगली शानदार पारी के लिए शुभकामना।’ सौरव ने भी इस बधाई संदेश पर सकारात्मक रुख दिखाया – ‘ममता दीदी का बधाई संदेश पाकर मैं काफी खुश हूं।’

पश्चिम बंगाल में कभी बहुत ताकतवर वामपंथी राजनीति हाशिए पर पहुंच चुकी है। उसके पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं। लोकसभा चुनाव में उसके वोट भाजपा की तरफ इसलिए खिसके क्योंकि वो टीएमसी को मैदान से हटाना चाहती है, भाजपा को नहीं। वामपंथियों को अभी भी यह लगता है कि वह टीएमसी को कमज़ोर करके ही अपनी खोई जगह पा सकते है लेकिन ममता ज़मीन पर जितनी मजबूत हैं उसे देखते हुए सीपीएम की यह सोच बहुत ज़मीनी नहीं दिखती। माकपा के 2014 में हासिल किय 30 फीसदी वोट 2019 के लोकसभा चुनाव में महज छह फीसद पर सिमट गए। इन कम हुए वोटों का एक बड़ा हिस्सा भाजपा को गया।

बंगाल की चुनावी राजनीति हिंसा से भरी रहती है। लोक सभा चुनाव और उसके बाद के हालात भी इसका संकेत देते हैं। भाजपा जिस तरह का सांप्रदायिक ध्रवीकरण करना चाहती है, उसमें गांगुली शायद ज्यादा बड़ा रोल न निभा पाएं लेकिन भाजपा तो उनकी प्रदेशव्यापी छवि और लोकप्रियता पर मोहित है।

भाजपा ने भले 2019 के लोकसभा चुनाव में टीएमसी से काफी सीटें छीनी हैं, एक सच यह भी है कि ममता की पार्टी ने 2014 से ज्यादा फीसद वोट इस बार हासिल किये। जहाँ 2014 में टीएमसी को 39 फीसद वोट मिले थे 2019 के लोकसभा चुनाव में उसके वोट 42 फीसद पर पहुँच गए। ज़मीन पर विकास और काम के मामले में ममता सरकार का रिकॉर्ड बुरा नहीं रहा है। शायद एक कारण यह भी है कि भाजपा बंगाल में गांगुली के रूप में कुछ और ताकत की ज़रुरत महसूस करती है।  बंगाल में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की हत्याओं के पीछे राजनीति देखी जा रही है। भाजपा बंगाल में किस कदर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश में है, इसका उदहारण हाल में मुर्शिदाबाद की घटना है जिसमें एक परिवार के तीन लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया था। यह घटना होते ही भाजपा ने हत्याकांड के शिकार लोगों को भाजपा-आरएसएस का कार्यकर्ता बताकर टीएमसी पर इन हत्याओं का दोष मढ़ दिया। बाद में जांच से सामने आया कि यह हत्याएं तो निजी रंजिश का नतीजा था।

लोक सभा चुनाव में भाजपा ने बेहिचक बंाग्लादेश के प्रवासियों में लकीर खींचकर हिंदू और मुसलमान शरणार्थियों को दो विपरीत ध्रुवों पर खड़ा कर दिया था। यही नहीं झारखंड सीमा पर बसे आदिवासियों को आरएसएस और बजरंग दल जैसे हिंदूवादी संगठनों के जरिये भाजपा खेमे में लाया गया।  ममता बनर्जी ने बहुत तरीके से सीपीएम की ज़मीन को अपने हक में किया है और इसे बनाकर रखा है। उन्होंने सत्ता में आने के बाद लेफ्ट की आर्थिक और इससे जुड़ी सुधार की नीतियों को कमोवेश जारी रखा है। बंगाल में इसे पसंद किया जाता है लिहाजा भाजपा इसे हिंदुत्व के अपने एजेंडा से छिन्न-भिन्न करना चाहती है। हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा को तो भाजपा ने अब खुले रूप से अंगीकार कर ही लिया है और इसे बेहिचक स्वीकार कर रही है।

लिहाजा गांगुली भाजपा में आ भी जाते हैं तो उनके लिए इस तरह के परिवेश में राजनीति करना उतना आसान नहीं होगा। वे क्रिकेट कप्तान और खिलाड़ी के रूप में आक्रामक ज़रूर रहे हैं पर धर्म विशेष के आधार पर आक्रामक होना अलग बात और अलग ‘हौसले’ की चीज है। शाह तो ऐसा कर सकते हैं, गांगुली के लिए धर्म विशेष के आधार पर राजनीति करना कितना सहज रहेगा, यह देखना भी बहुत दिलचस्प होगा।