अपराध नहीं रोक सके योगी

वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और एक बार फिर प्रदेश चुनावी जंग का अखाड़ा बन चुका है। आरोपों-प्रत्यारोपों की नियम विहीन प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है, जिसमें जनता का तबक़ा मूक दर्शक, तो एक तबक़ा विश्लेषक बना हुआ है। हालाँकि राजनीति का अस्तित्व इस तथ्य पर निर्भर होना चाहिए कि समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित? किन्तु जब समाज ही पथभ्रष्टता और दिशा हीनता का शिकार हो, तो राजनीति और राजनेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है? फिर भी समाज के अस्तित्व के लिए कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर गम्भीर विमर्श की महती आवश्यकता है। ऐसा ही एक मुद्दा क़ानून व्यवस्था का भी है।

साल 15 मार्च, 2012 से 19 मार्च, 2017 तक समाजवादी पार्टी की सरकार अपराध एवं धार्मिक दंगे-फ़साद को लेकर आलोचना के केंद्र में रही थी। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणा-पत्र में प्रदेश से अपराध और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का मुद्दा सबसे प्रमुख था। पूरे चुनाव प्रचार में पूर्ववर्ती सपा-बसपा सरकारों के कार्यकाल में आपराधिक आँकड़ों को लेकर भाजपा नेता हमलावर थे। जनता ने भी भाजपा पर भरोसा दिखाया और सूबे की कमान उसे सौंप दी। सरकार बनने के पश्चात् मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐलान किया कि अपराधी या तो अपराध छोड़ दें या फिर उत्तर प्रदेश छोड़ दें; वरना उन्हें सही जगह पहुँचा दिया जाएगा। शायद इस सही जगह का इशारा जेल की सज़ा का था, या फिर पुलिस एनकाउंटर के माध्यम से स्वर्ग गमन! शतपथ ब्राह्मण (5/3/3/6,9) के अनुसार, ‘इहलोक का राजा देवलोक के राजा वरुण की भाँति धर्मपति था और वरुण की भाँति दुष्टों का दमन करके राज्य में सुशासन बनाये रखता था।’

जॉन लॉक भी कहते हैं- ‘सरकार का प्रथम कार्य मानव जीवन को व्यवस्थित रखने और समस्त विवादों का निर्णय करने के लिए उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का मापदण्ड निर्धारित करना है।’

ऐसे में वर्तमान सरकार का इस मापदण्ड पर मूल्यांकन तथा इस सम्बन्ध में तथ्यों की पड़ताल आवश्यक है। क्योंकि तथ्य ही तर्कों की सबसे बेहतरीन गवाही देते हैं। आँकड़ों पर ग़ौर करें, तो एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में पूरे देश में 50,74,634 आपराधिक मामले दर्ज़ किये गये, जो 2017 की तुलना में 1.3 फ़ीसदी अधिक थे। इनमें भी अकेले उत्तर प्रदेश में साल 2018 के सर्वाधिक 11.5 फ़ीसदी आपराधिक मामले दर्ज हुए, जिनकी संख्या 5,85,157 थी। यहाँ तक की महिलाओं के प्रति अपराध में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा। कुल 15.7 फ़ीसदी मामले अकेले यहीं दर्ज हुए। साल 2017 में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ रोकने के लिए एंटी रोमियो दस्ते का गठन किया गया। इस दस्ते ने उलटे कई जगह लोगों को परेशान ही किया। साल 2019 में भी दुर्भाग्यपूर्ण रूप से देश में सर्वाधिक आपराधिक मामले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज किये गये। इनकी संख्या 6,28,578 थी। साल 2020 में साल 2019 की अपेक्षा आपराधिक मामलों में 28 फ़ीसदी की वृद्धि हुई। साल 2020 में प्रदेश में हत्या के 3779, अपहरण के 12,913 मामले दर्ज हुए। बड़ी बात यह है कि साल 2017 से हत्याओं में उत्तर प्रदेश देश में अग्रणी है।

इन आपराधिक घटनाओं में आम जनता के साथ ही पुलिसकर्मियों एवं कई पत्रकारों की भी हत्या हुई। विक्रम जोशी, सुलभ श्रीवास्तव, शुभम मणि त्रिपाठी, रतन सिंह राजेश तोमर जैसे कई पत्रकारों की अलग अलग घटनाओं में हत्या कर दी गयी। राइट एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप नामक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों की प्रताडऩा की दृष्टि से भी सन् 2020 में उत्तर प्रदेश पहले पायदान (37) पर था।

कहते हैं इतिहास ख़ुद को दोहराता है। पाँच साल पहले जिस क़ानून व्यवस्था को लेकर भाजपा तत्कालीन समाजवादी सरकार पर हमलावर थी, आज उन्हीं मुद्दों को लेकर विपक्षी दल भाजपा सरकार पर हमलावर हैं। भाजपा की सबसे बड़ी कठिनाई यह हैं कि आँकड़े और तथ्य उसके विरुद्ध हैं और विपक्ष के आरोपों की पुष्टि कर रहे हैं। आसन्न चुनावों में सरकार तथा दल की बिगड़ती छवि उसके लिए कठिनाई पैदा करेगी।

हालाँकि भाजपा नेता एवं सरकार की तरफ़ से अपने बचाव में देश की सर्वाधिक जनसंख्या के वहन, स्वयं के निर्धारित आँकड़े तथा अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों से तुलनात्मक रूप में ख़ुद को बेहतर बताने जैसे कई तर्क दिये जाते रहे हैं। यह सही है कि देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण यहाँ पर अपराध के मामले भी सबसे ज़्यादा है। नि:सन्देह तुलनात्मक रूप से देखें, तो राजस्थान जैसे राज्यों में महिलाओं के प्रति अपराध की दर कहीं अधिक है। किन्तु तथ्य तर्कों से पराजित नहीं किये जाते। यहाँ बात तुलना कर ख़ुद को सही साबित करने की नहीं, बल्कि स्वयं के अन्दर सुधार करने की है।

दो प्रमुख वर्ग, जिन्होंने प्रदेश एवं प्रदेश सरकार की छवि बिगाडऩे में सबसे बड़ी भूमिका निभायी है; इनमें पहले स्थान पर सत्तारूढ़ दल के सांसद, विधायक, एमएलसी आदि हैं और दूसरे स्थान पर पुलिस-प्रशासन। सत्तारूढ़ दल के कई नेताओं एवं विधायकों के ऑडियो सार्वजनिक हुए हैं, जिनमें वे कटमनी (रिश्वत) माँगते हुए सुने जा सकते हैं। जैसे कि पूर्वांचल की महिला विधायक एक ऑडियो में ऐसे ही सुविधा शुल्क की माँग करती सुनी जा सकती हैं। यही नहीं, कई विधायक या पार्टी पदाधिकारी जनता या सरकारी कर्मचारियों को धमकाने आदि के कारनामों में लिप्त रहे हैं।

राजनीति और अपराध का गठजोड़ बहुत पुराना है। चर्चित रही एन.एन. वोहरा समिति (1993) की रिपोर्ट ने भी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और अपराधियों के मध्य की दुरभि-सन्धि एवं इनके द्वारा देश में एक समानांतर अर्थ-व्यवस्था के संचालन का उल्लेख किया था। 80 और विशेषकर 90 के दशक में अपराधियों ने सीधे राजनीति में हस्तक्षेप प्रारम्भ किया। पहले क्षेत्रीय दलों ने अपना जनाधार बढ़ाने और बलपूर्वक चुनाव जीतने के लिए इन्हें टिकट देना प्रारम्भ किया। बाद में राष्ट्रीय दल भी इस होड़ में शामिल हो गये। आज हालात ये हैं कि ख़ुद को पार्टी विद् डिफरेंस कहने वाली भाजपा राजनीति में अपराधियों की सबसे बड़ी आश्रयदाता बनती जा रही है। कम-से-कम आँकड़े तो यही दर्शा रहे हैं। साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो 403 विधायकों में से 138 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। चुनाव जीतने वाले विधायकों में से 36 फ़ीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इनमें भाजपा में सर्वाधिक 114 विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, तो विपक्ष के 72 विधायकों पर गम्भीर आरोप हैं। अब ऐसे लोग, जो स्वयं क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते रहे हों, उनसे क़ानून व्यवस्था में सहयोग की उम्मीद एक मूर्खतापूर्ण विचार है।

दूसरे, सरकार से मिली खुली छूट या यूँ कहें कि मुख्यमंत्री के आदेश की आड़ लेकर कुछ पुलिस वाले ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से कार्य करने लगें, अपराध बढ़ेगा ही। क़ानून व्यवस्था की स्थापना के लिए संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी एक भ्रामक सोच है। आगरा में सफाईकर्मी अमित वाल्मीकि और गोरखपुर में मनीष गुप्ता की हत्या के मामले हों अथवा लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या की मामला हो, सरकार के लिए इनका औचित्य साबित करना कठिन हो गया। उस पर वरिष्ठ अधिकारियों ने जिस तरह इन मामलों को ढकने की कोशिश की, उससे सरकार की और फ़ज़ीहत ही हुई। आँकड़े बताते हैं कि हिरासत में मौत के मामले में उत्तर प्रदेश देश में शीर्ष स्थान पर है। रही सही कसर विपक्षी दलों ने इन मामलों को उछालकर पूरी कर दी। सोनभद्र का सामूहिक हत्याकांड, हाथरस दुष्कर्म मामला, बदायूँ दुष्कर्म मामले के अलावा लखनऊ में विवेक तिवारी एनकाउंटर मामला, बिकरू कांड जैसे कई मामलों ने भाजपा के सुशासन और उत्कृष्ट क़ानून व्यवस्था के दावों की धज्जियाँ उड़ा दीं, साथ ही भाजपा को रक्षात्मक होने पर विवश कर दिया।

मामला सिर्फ़ फ़ौजदारी के अपराधों तक ही सीमित नहीं रहा है। भ्रष्टाचार एक प्रकार का आर्थिक अपराध भी होता है। इसमें सबसे ज़्यादा संलग्न प्रशासनिक अधिकारी ही हैं। उदाहरण के तौर पर सितंबर, 2020 में भाजपा के ही बाराबंकी के एक विधायक ने लखनऊ विकास प्राधिकरण पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया था। ऐसे में इनकी गम्भीरता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्तमान सरकार ने पूर्व में सत्ता के सहयोग से अपना आपराधिक साम्राज्य खड़ा करने वाले, प्रदेश में समानांतर सत्ता क़ायम करने वाले एवं विधायक या सांसद रह चुके बाहुबलियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाइयाँ की हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध की कमर भी टूटी है। लेकिन इस बीच सरकार और पुलिस की कार्यशैली पर भी सवाल उठे हैं और दोनों की ही भूमिका आलोचना के केंद्र में रही है।

एक बात तो तय है कि पार्टी न सिर्फ़ अपने जन प्रतिनिधियों पर लगाम लगाने में असफल हो रही है, बल्कि प्रशासनिक वर्ग भी मनमानी पर उतारू रहा है। इन दोनों के अनियंत्रित व्यवहार से किसी पार्टी या सरकार की क्या दुर्गति हो सकती है? इसका सबसे बड़ा उदाहरण साल 2012 से 2017 तक रही सपा सरकार है। पार्टी नेताओं और विशेषकर सरकारी अधिकारियों ने ही पिछली सरकार को डुबोया। उच्च कोटि के बौद्धिक वर्ग से सुसज्जित भाजपा को दीवार पर लिखी इबारत शायद नहीं दिख रही है।

आज देश की राजनीति का सबसे नकारात्मक पहलू आरोप के बदले आरोप लगाना है। अथवा यूँ कहिए कि ख़ुद की कमियाँ छुपाने के लिए अतीत की सरकारों के आँकड़े दिखाना है। तर्क यह भी है कि प्रश्न हमसे ही क्यों, बाक़ी दलों से क्यों नहीं? यहाँ प्रश्न भाजपा से इसलिए किये जा रहे हैं, क्योंकि सत्ता में वह है; न कि सपा, बसपा और कांग्रेस। पिछली सरकारों एवं विपक्ष में बैठे दलों ने भी कभी ऐसे तथ्यों कि अनदेखी की और हाशिये पर आ गयी। अगर भाजपा को अपने लिए यही भविष्य चाहिए, तो यह उसकी अपनी इच्छा है।

आम जनता आज भी सरकारों से मात्र बिजली, पानी और सडक़ के साथ अपने और परिवार के साथ-साथ माल की हिफ़ाज़त चाहती है। इनमें भी सुरक्षा उसकी पहली प्राथमिकता है। वैश्विक सम्मेलन (ग्लोबल सम्मिट) और एनएसजी एवं सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता जैसी बड़ी-बड़ी बातें उसे न बहुत समझ आती हैं और न ही वह उन्हें समझना चाहती है। उनके अपनों की सुरक्षा एवं सम्मान का जीवन ही उसके लिए प्राथमिकता है। अली अहमद जलीली लिखते हैं :-

‘अम्न की बात में तकरार भी हो सकती है।

शाख़ जैतून की तलवार भी हो सकती है।।’

उचित यही होगा कि भाजपा को जनता के उस ख़ामोश वर्ग का मिजाज़ भी पढऩा चाहिए, जो प्रतिबद्ध मतदाता है। यह वो वर्ग है, जो ख़ामोशी से ही सरकारें बनाता भी है और बदलता भी है।