अपराजिता – बंगाल में ममता के नेतृत्व में टीएमसी की बड़ी जीत, भाजपा को तगड़ा झटका है

कहाँ, कौन जीता?

            पश्चिम बंगाल      :            तृणमूल कांग्रेस               तमिलनाडु           :              डीएमके-कांग्रेस गठबन्धन

            असम     :  एनडीए (भाजपा गठबन्धन)                     केरल      :             लेफ्ट गठबन्धन (वामपंथी)

            पुडुचेरी   :            एनडीए (भाजपा गठबन्धन)

देश में चल रहे भीषण कोरोना-काल में हुए केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी सहित पाँच राज्यों के चुनावी नतीजों ने देश की राजनीति में अचानक हलचल मचा दी है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की पार्टी टीएमसी की जबरदस्त जीत ने भाजपा को हिलाकर रख दिया है। असम और पुडुचेरी में भाजपा गठबन्धन के साथ बहुमत में आयी है। लेकिन बंगाल में उसकी हार ने इस जीत का स्वाद भी कड़ुवा कर दिया है। तमिलनाडु में डीएमके-कांग्रेस गठबन्धन को बड़ी जीत मिली है; जबकि केरल में वामपंथी गठबन्धन की लगातार दूसरी जीत हुई है। इन नतीजों से देश की राजनीति में नये ध्रुवीकरण बनने की सम्भावना बलवती हुई है। विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

पश्चिम बंगाल के चुनाव नतीजों ने देश की राजनीति में नये समीकरणों की पटकथा लिख दी है। इनसे पूरे देश की राजनीति प्रभावित होगी- मोदी के नेतृत्व वाले एनडीए, सोनिया गाँधी के नेतृत्व वाले यूपीए, कांग्रेस पार्टी की भीतरी राजनीति से लेकर भाजपा के ख़िलाफ गठबन्धन और आरएसएस की भविष्य की रणनीति तक। बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की प्रचंड जीत ने देश की राजनीति को एक नये मोड़ पर लाकर खड़ा किया है और इससे यह सन्देश गया है कि भाजपा के मोदी-शाह के करिश्मे को धवस्त किया जा सकता है। भले भाजपा असम और पुडुचेरी में सरकार बनाएगी, लेकिन बंगाल के नतीजों ने उसे गहरा ज़ख्म दिया है। केरल में लेफ्ट गठबन्धन ने दोबारा सत्ता में आकर ख़ुद को ताक़तवर किया है। यह चुनाव नतीजे कांग्रेस के लिए भी बहुत निराशा वाले रहे हैं।

पहले पश्चिम बंगाल की बात करते हैं। चुनाव प्रचार में जब प्रधानमंत्री मोदी एक अलग लहजे में ‘दीदी-ओ-दीदी’ बोलते थे, तो भीड़ से शोर की एक आवाज़ आती थी। लगता था, भीड़ मोदी के लहज़े का समर्थन कर रही है। लेकिन नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि गूढ़ संस्कृति और मज़बूत परम्पराओं वाले बंगाल के लोगों ने इसे एक महिला के अपमान के तौर पर लिया। भाजपा ने जिस बड़े पैमाने पर बंगाल में धन-बल का इस्तेमाल किया, वह भी बंगाल के लोगों को रास नहीं आया। भाजपा ने जिस तरह पूरा चुनाव प्रचार हिन्दू-मुस्लिम के ध्रुवीकरण पर केंद्रित कर दिया, उसे भी बंगाल के सभी धर्मों के साथ प्रेम से रहने वाले लोगों ने पसन्द नहीं किया। सच यह है कि बंगाल के चुनाव नतीजे भाजपा के दो बड़े नेताओं- मोदी और शाह की छवि के करिश्मे का बड़ा नुक़सान कर गये। इससे यह भी ज़ाहिर हो गया कि भाजपा के रणनीतिकार बंगाल के लोगों के मिजाज़ को समझ ही नहीं पाये।

पश्चिम बंगाल में ममता के पास विकास बड़ा मुद्दा था। महिलाओं के ज़रिये ममता की जनकल्याण की नीतियों का कोई तोड़ भाजपा के पास नहीं था। उसने मुद्दे को बदलने की कोशिश की; लेकिन उसमें सफल नहीं हुई। भाजपा को इन चुनावों में केरल और तमिलनाडु में एक भी सीट नहीं मिली है और बंगाल में उसकी सरकार नहीं बनी। अगले साल उत्तर प्रदेश और अन्य विधानसभा चुनावों से पहले पिछले वर्षों में भाजपा ने कई राज्य खो दिये हैं; जो उसके लिए बड़ी चिन्ता की बात है। कोरोना वायरस की दूसरी लहर में मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार की तैयारी पर गम्भीर सवाल उठने से सरकार और नेतृत्व को बड़ी चोट पहुँची है।

पश्चिम बंगाल में भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने 17 रैलियाँ कीं। अमित शाह तो बंगाल का एक तरह से पूरा ज़िम्मा ही देख रहे थे। भाजपा ने अपने सभी केंद्रीय मंत्रियों की $फौज प्रचार में उतारी। बेशक सन् 2016 की तुलना में भाजपा अब बेहतर प्रदर्शन के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में जो बेहतर प्रदर्शन उसने किया था, उसमें उसे 121 सीटों पर बढ़त मिली थी। अब वह 77 सीटों पर ही सिमट गयी है। लेकिन जिस तरह बंगाल में कांग्रेस और वाम (लेफ्ट) का सफाया हुआ है, उससे भाजपा वहाँ टीएमसी के बाद दूसरा मुख्य राजनीतिक दल बन गयी है। अमित शाह ने भाजपा के 200 सीटों पर जीतने का दावा किया था; लेकिन हुआ उलट। टीएमसी ने चुनाव में पिछली बार की 211 से भी ज़्यादा सीटें हासिल कीं।

बंगाल भारत के पूर्वोत्तर का सबसे बड़ा राज्य है। विधानसभा सीटों में भी उत्तर प्रदेश के बाद सबसे ज़्यादा 294 सीटें यहाँ हैं। देश के दूसरे सबसे बड़े राजनीतिक सूबे को हासिल नहीं कर पाने का ग़म भाजपा के भरोसे को डिगा सकता है। कमोवेश पूरे चुनाव प्रचार में पाँव की चोट के कारण व्हील चेयर पर चलने को मजबूर हुईं ममता ने अपनी छवि एक लोह महिला की बना ली है; जिसके सामने मोदी-शाह जैसे दिग्गज चेहरों को भी पानी भरना पड़ा है। अब भाजपा को अगले साल मार्च-अप्रैल में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनाव में नये सिरे से $खुद को खड़ा करना पड़ेगा। भाजपा की बंगाल में हार के बाद उत्तर प्रदेश में उसके ख़िलाफ तीन बड़े दलों (बसपा-सपा-कांग्रेस) का नया गठबन्धन बन सकता है; जबकि उत्तराखण्ड में उसे कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिल सकती है। पंजाब में भाजपा का बड़ा वजूद है नहीं। लिहाज़ा उसकी सारी ताक़त उत्तर प्रदेश पर रहेगी।

बंगाल में भाजपा के पास ममता बनर्जी की टक्कर का कोई नेता नहीं था। इसलिए मोदी-शाह की जोड़ी ममता के मुक़ाबला करने के लिए पूरी तरह चुनाव में आगे आयी। भाजपा को भरोसा था कि ममता बनर्जी नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और शाह की रणनीति का मुक़ाबला नहीं कर पाएँगी। लेकिन ममता ने जैसी ज़मीनी ताक़त दिखायी, वह इन नेताओं पर बहुत भारी पड़ी। मोदी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की भी चुनाव सभाएँ भी करवायीं; क्योंकि भाजपा ध्रुवीकरण के ही सहारे थी। लेकिन ध्रुवीकरण की यह कोशिश असल में भाजपा को नुक़सान दे गयी है। भाजपा के पास स्थानीय नेताओं के नाम पर दिलीप घोष, बाबुल सुप्रियो, मुकुल घोष आदि बड़े चेहरे थे। लेकिन ये सब ममता के क़द के सामने काफी कमज़ोर हैं। प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष हाल के महीनों में ममता सरकार के  ख़िलफ काफी सक्रिय रहे। लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान ही साफ दिख रहा था कि उनके पास भी ममता सरकार के ख़िलाफ कोई बड़ी रणनीति नहीं है। ऊपर से भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेताओं की ममता के ख़िलाफ भाषा ने रही-सही क़सर निकाल दी।

सुवेंदु अधिकारी ने भले विवादित मतगणना में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हरा दिया, लेकिन इससे भाजपा उन्हें बंगाल में पार्टी नेतृत्व सम्भवत: नहीं देगी? क्योंकि भाजपा बाहरी लोगों को ख़ुद में शामिल भले ही कर लेती है, लेकिन उन्हें बड़ी ज़िम्मेदारी कभी नहीं देती। राजीव बनर्जी, जीतेद्र कुमार जैसे अन्य नेता भी टीएमसी से भाजपा में गये। लेकिन उसे उनका कोई लाभ नहीं मिला। सच यह है कि चुनाव में दलबदलुओं को जनता ने नकार दिया। भाजपा में जो नेता बहुत पहले से हैं, वे टीएमसी नेताओं को पार्टी में लाने के सख़्त ख़िलाफ थे। लेकिन चूँकि यह अमित शाह की रणनीति थी, लिहाज़ा उन्हें चुप्पी साधनी पड़ी।

बंगाल नतीजों को लेकर कोलकाता में वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर मणि तिवारी ने ‘तहलका’ से फोन पर बातचीत में कहा- ‘बहुत-सी बातें भाजपा के खिलाफ रहीं। इनमें महिला मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह सहित सभी भाजपा नेताओं की बेहद असम्मानजनक टिप्पणियाँ; भाजपा के पास ममता की टक्कर का एक भी नेता नहीं होना; दलबदलुओं के बूते चुनाव जीतने की कोशिश से पार्टी की ही भीतरी नाराज़गी बढऩा आदि बातें प्रमुख हैं। पूरे चुनाव में इससे जनता सहनुभूति ममता के साथ बन गयी। दूसरे सुवेंदु अधिकारी का पार्टी को कोई लाभ नहीं मिला और मुर्शिदाबाद और मालदा जैसे उनके प्रभाव वाले इला$कों में टीएमसी बड़े स्तर पर जीती। इसके अलावा महिलाओं ने ममता का पूरा साथ दिया। कुल मिलाकर ध्रुवीकरण भाजपा को उलटा नु$कसान दे गया।’

नंदीग्राम के चुनाव परिणाम को लेकर तृणमूल कांग्रेस ने मुख्य निर्वाचन कार्यालय, पश्चिम बंगाल को पत्र लिखकर फिर से मतगणना की माँग की है। ममता बनर्जी ने नंदीग्राम के चुनाव परिणाम के ख़िलाफ कोर्ट जाने की बात कही है। इससे पहले टीएमसी का तीन सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग के दफ्तर पहुँचा और नंदीग्राम में फिर से काउंटिंग की माँग की। चुनाव आयोग ने नंदीग्राम सीट पर सुवेंदु अधिकारी की जीत का ऐलान कर दिया; जबकि पहले ममता को विजेता घोषित किया गया था।

टीएमसी के प्रमुख विजेताओं में अरूप विश्वास, सुब्रतो मुखर्जी, शोभनदेव चट्टोपाध्याय्य, पत्रकार विवेक गुप्ता, क्रिकेटर मनोज तिवारी, नैना बनर्जी और शशी पांजा जैसे बड़े नाम शामिल हैं। पश्चिम बंगाल के चुनाव परिणाम कुछ इस प्रकार रहे :-

हारे भाजपा के दिग्गज

ममता की आँधी में भाजपा के बड़े-बड़े दिग्गज हार गये। इनमें केंद्रीय मंत्री बाबुल सुप्रियो, कई अन्य नेता और फिल्मी सितारे शामिल हैं। सबसे बड़ी हार बाबुल सुप्रियो की हुई। कोलकाता की टॉलीगंज सीट से टीएमसी उम्मीदवार अरूप विश्वास के मुक़ाबले सुप्रियो 50,000 मतों से हारे। हुगली से सांसद और पूर्व अभिनेत्री लॉकेट चटर्जी को अपने ही संसदीय क्षेत्र की चुंचुड़ा सीट से हार का सामना करना पड़ा। चटर्जी को टीएमसी उम्मीदवार ने 18,000 से ज़्यादा मतों से हराया। हुगली की तारकेश्वर सीट से पूर्व राज्यसभा सांसद स्वप्न दासगुप्ता 7,000 मतों से हारे। चुनाव में भाजपा के 8 विधायकों सहित 16 दलबदलू भी हार गये।

भाजपा ने जिन सांसदों को टिकट दिया था, उसमें से सिर्फ शान्तिपुर सीट से सांसद जगन्नाथ सरकार जीत पाये। पूर्व मेदिनीपुर की मोयना सीट से पूर्व भारतीय क्रिकेटर अशोक डिंडा भी 9,000 से ज़्यादा मतों से हार गये। कोलकाता की रासबिहारी सीट पर भाजपा के टिकट पर पूर्व सेना उप प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रत साहा (रिटायर्ड) भी 21,000 से ज़्यादा मतों से हारे। बेहला पश्चिम सीट पर टीएमसी के पार्थ चटर्जी ने अभिनेत्री श्रवंती चटर्जी को 41,608 मतों से हराया। बेहला पूर्व सीट पर रत्ना चटर्जी से अभिनेत्री पायल सरकार भी हार गयीं; जबकि अभिनेता रुद्रनील भी 28,000 से ज़्यादा मतों से हार गये। चुनाव से पहले टीएमसी छोड़ भाजपा में गये कई पूर्व मंत्री और क़द्दावर नेता भी जीत नहीं पाये। हावड़ा की डोमजूर सीट से राजीब बनर्जी को 42,000 से ज़्यादा मतों से हार का सामना करना पड़ा। बहुचर्चित सिंगुर में भी पूर्व मंत्री रवींद्रनाथ भट्टाचार्य 25,923 मतों से हार गये। सिंगुर आन्दोलन में ममता के अहम साथी रहे 90 वर्षीय भट्टाचार्य ने टिकट नहीं मिलने पर भाजपा का दामन थामा था। आसनसोल के पूर्व मेयर जितेंद्र तिवारी और विधाननगर के पूर्व मेयर व निवर्तमान विधायक सब्यसाची दत्ता को भी हार का सामना करना पड़ा।

टीएमसी में लौटेंगे बाग़ी?

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बंगाल में कई ऐसे नेता, जिन्होंने चुनाव से पहले भाजपा की सरकार बनने की उम्मीद में दलबदल कर भाजपा का दामन थामा था और चुनाव भी जीत गये; अब फिर उनमें से कई टीएमसी में लौटने के लिए हाथ-पाँव मार रहे हैं। ऐसे विधायकों की संख्या तक़रीबन ढाई दर्जन बतायी जाती है। अगर ममता बनर्जी इन विधायकों को वापस पार्टी में लेने को तैयार हो जातीं हैं, तो यह भाजपा के लिए एक और बड़ा झटका होगा। बंगाल टीएमसी के उच्च स्तर पर इसकी बहुत ज़्यादा चर्चा है कि भाजपा को उसके ही अंदाज़ा में झटका दिया जाए। भाजपा ने चुनाव से पहले पिछले चार-पाँच महीनों में टीएमसी के कई नेताओं-विधायकों को लिया था। अब ममता इसका बदला ले सकती हैं।

अन्य राज्यों के चुनाव परिणाम

तमिलनाडु

यह माना जा रहा है कि तमिलनाडु में एआईडीएमके को भाजपा का साथ लेना महँगा पड़ा है। इस दक्षिण राज्य में भाजपा के प्रति जनता में कभी भी उत्साह नहीं दिखा है। वहीं 10 साल के बाद तमिलनाडु में डीएमके की सत्ता में वापसी हो गयी। डीएमके-कांग्रेस गठबन्धन ने पहली बार जयललिता और करुणानिधि के बग़ैर विधानसभा चुनाव में जीत हासिल की। द्रमुक की इस जीत ने यह तय कर दिया कि एम. करुणानिधि के बेटे एम.के. स्टालिन अब द्रविड़ राजनीति के सबसे बड़े स्टार होंगे। करुणानिधि और जयललिता दोनों ही राजनीति में आने से पहले फिल्मी सितारे थे; जबकि स्टालिन गैर- फिल्मी चेहरा हैं। जयललिता की ग़ैर-मौजूदगी में अन्नाद्रमुक के पास सिर्फ मुख्यमंत्री पलानिस्वामी के तौर पर एक चेहरा था। लेकिन उनके सामने स्टालिन ज़्यादा व जानदार साबित हुए। राज्य में एमजीआर के दौर के बाद हर पाँच साल में सत्ता बदल जाने का चलन $कायम है। मौजूदा चुनावों में कांग्रेस की अगुआई वाला यूपीए सिर्फ तमिलनाडु में मज़बूत हुआ है। इसी के साथ यूपीए की अब छ: राज्यों में सरकार हो गयी है। इससे पहले वह पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और झारखण्ड में सत्ता में है। बहुत-से राजनीतिज्ञों का मानना है कि एआईडीएमके को भाजपा के साथ नहीं जाना चाहिए था। उनके मुताबिक, जनता लोगों के बीच भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ नाराज़गी प्रचार में ही साफ दिख रही थी। भाजपा की बड़ी जीत कोयंबटूर दक्षिण की सीट पर रही, जहाँ पार्टी प्रत्याशी वनाती श्रीनिवासन ने फिल्म अभिनेता कमल हासन को पराजित कर दिया। मुख्यमंत्री पलानिस्वामी हार के बावजूद एक बेहतर नेता बनकर उभरे हैं। प्रचार अभियान के दूसरे चरण में डीएमके के नेता स्टालिन ने बार-बार यह दोहराया था कि एआईएडीएमके को मत का मतलब भाजपा को वोट (मत) देना है। अन्नाद्रमुक के 10 वर्ष के शासन के बाद अब एम.के. स्टालिन के नेतृत्व में द्रमुक सरकार बन गयी है। दो-तिहाई बहुमत जुटाकर स्टालिन ने ईडी पलानिस्वामी के नेतृत्व वाली अन्नाद्रमुक पर धमाकेदार जीत दर्ज की। द्रमुक गठबन्धन में शामिल कांग्रेस के हिस्से में आयी 25 सीटों में से उसने 16 जीत लीं; जबकि अन्नाद्रमुक के साथ गठबन्धन कर भाजपा उम्मीदवार 20 सीटों पर लड़े और केवल दो सीटों पर ही जीत पाये। तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियाँ 180-180 सीटों पर लड़ी थीं। चुनाव नतीजों से सा$फ है कि लोग पलानिस्वामी की सरकार से नाराज़ नहीं थे। ख़ासतौर पर उनकी सरकार के कोविड-19 के दौरान स्वास्थ्य सेवाओं और आर्थिक मोर्चे के प्रबन्धन से वे ख़ुश ही थे। लेकिन सरकार के प्रदर्शन पर 10 वर्ष की विरोधी लहर भारी पड़ी।

असम

असम में भाजपा को राहत मिली, जब उसकी अगुआई वाला गठबन्धन एक बार फिर सत्ता में वापसी कर गया। हालाँकि उसकी सीटें पिछली बार से घटी हैं। भाजपा नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन को 71 सीटों पर जीत मिली; जबकि कांग्रेस के नेतृत्व में बने महागठबन्धन को 52 सीटों पर। नतीजों के बाद कांग्रेस के असम अध्यक्ष रिपुन बोरा ने पार्टी के ख़राब प्रदर्शन की ज़िम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने इस सम्बन्ध में एक पत्र सोनिया गाँधी को लिखा। असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल माजुरी से चुनाव जीत गये। उन्होंने कांग्रेस उम्मीदवार राजीब लोचन पेगू को हराकर जीत दर्ज की है।

असम में भाजपा की सरकार दोबारा बनी है। पिछली बार सन् 2016 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा गठबन्धन के खाते में 126 में से 86 (भाजपा 60) सीटें आयी थीं; जबकि कांग्रेस को 26 सीटों पर ही जीत से सन्तोष करना पड़ा था। असम में मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल की फिर से मुख्यमंत्री बनने की सम्भावना ज़्यादा है। आरएसएस भी उन्हें ही मुख्यमंत्री देखना चाहता है। हालाँकि चुनाव में भाजपा नेतृत्व ने सोनोवाल को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनाने से परहेज़ किया था। इसके बाद से यह कयास लगाये जा रहे हैं कि पार्टी इस बार सोनोवाल सरकार के वरिष्ठ मंत्री हिमंत बिस्व सरमा को नयी सरकार की कमान सौंप सकती है।

केरल

केरल में माकपा के नेतृत्व वाले वामपंथी गठबन्धन ने दोबारा सत्ता में आकर इतिहास रच दिया है। $करीब 40 साल पुरानी परम्परा टूट गयी। पिछले चार दशक में सत्ताधारी पार्टी कभी दोबारा चुनाव जीत नहीं पायी थी; लेकिन इस बार वाम लोकतांत्रिक मोर्चा (एलडीएफ) सरकार ने चमत्‍कार कर दिखाया है। केरल में सन् 1980 से हुए हर विधानसभा चुनाव में सत्ताधारी पक्ष को हार का मुँह देखना पड़ता था और विपक्ष की पाँच साल बाद सत्ता में वापसी होती रही है। हालाँकि इस बार एलडीएफ ने कांग्रेस के नेतृत्‍व वाले संयुक्त लोकतांत्रिक मोर्चा (यूडीएफ) को पछाडक़र दोबारा सत्ता हथिया ली है। सन् 2016 के विधानसभा चुनावों में केरल में एक सीट जीतने वाली भाजपा इस बार अपना खाता तक नहीं खोल पायी। मुख्यमंत्री पिनराई विजयन तो मुख्यमंत्री बनेंगे; लेकिन चूँकि माकपा ने नियम बनाया है कि जिनके पास लगातार दो कार्यकाल का अनुभव है, उन्हें चुनाव मैदान में नहीं उतारना है; इसलिए पाँच अनुभवी मंत्री थॉमस इस्साक (वित्त), ए.के. बालन (क़ानून), जी. सुधाकरन (सार्वजनिक निर्माण), सी. रवींद्रनाथ (शिक्षा), और ई.पी. जयराजन (उद्योग) टिकट पाने में विफल रहे। साथ ही 28 अन्य पार्टी विधायकों को भी फिर से नामित नहीं किया गया था। हालाँकि जीतने वाले उम्मीदवारों में राज्यमंत्री कडकम्पल्ली सुरेंद्रन (पर्यटन), एम.एम. मणि (विद्युत), एसीमोइदीन (स्थानीय स्वशासन), टी.पी. रामकृष्णन (एक्साइज) और के.के. शैलजा (स्वास्थ्य) शामिल हैं। बड़ी बात यह है कि भाजपा के टिकट पर मेट्रो मैन ई. श्रीधरन चुनाव हार गये।

पुडुचेरी

केंद्र शासित पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव हारने से दक्षिण में कांग्रेस का आ$िखरी $िकला भी ढह गया। हालाँकि वी. नारायणसामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार 22 फरवरी को ही पुडुचेरी की सत्ता से हट गयी थी; जिसके बाद वहाँ राष्ट्रपति शासन लग गया था। अब चुनाव परिणाम ने उसकी वापसी की उम्मीद भी $खत्म कर दी। कांग्रेस और डीएमके गठबन्धन को ऑल इंडिया एनआर कांग्रेस और भाजपा गठबन्धन के हाथों शिकस्त मिली। इस जीत के सूत्रधार एआईएनआरसी चीफ एन. रंगासामी हैं, जिनके सिर पर पुडुचेरी के मुख्यमंत्री का ताज रखा जाएगा। चुनाव से पहले भाजपा, कांग्रेस और डीएमके तीनों ने रंगासामी के सामने गठबन्धन का प्रस्ताव रखा। रंगासामी ने भाजपा के साथ गये। गठबन्धन के बाद भी उन्होंने अपने पार्टी के सदस्यों को निर्दलीय मैदान में उतार दिया। आज उनके पास चार निर्दलीय विधायक भी हैं; जिनसे उन्हें और भी ज़्यादा ताक़त हासिल हो गयी है। इसी तरह भाजपा के छ: विधायकों के साथ रंगासामी की नयी सरकार को कम-से-कम 20 विधायकों का समर्थन हासिल होगा। पुडुचेरी में गठबन्धन में भाजपा दूसरे स्थान पर रही है।