अपने-अपने बुलबुलों में मगन सभी मरते हैं वे, जो होते हैं गरीब और कामगार

मेघालया में चूहे के बिलों वाली खदानों (रैट-होल माइंस) से कोयला निकालना खासा जानलेवा है। यह जानकरी भी तब हुई जब इस दुर्घटना से बच निकले असमिया नौजवान सैयव अली ने जानकारी दी। ईस्ट जांतिया हिल्स में लुमथारी के क्षेत्र में हुई खदान दुर्घटना से बाल-बाल बचा था यह मजदूर। इसने जो जानकारी दी उससे यह ज़रूर तय सा लगा कि यदि चूहे के बिलों वाली खदानों से कोयला निकालना जबरन रोका नहीं गया तो कई और मज़दूर इन धसकती खदानों में अपनी कब्र पाएंगे जिनमें जल भी होगा। यह दृश्य असामान्य नहीं है।

वह साल था 1992 का जब साडथ गारो हिल्स में खदान में काम करने वाले 30 मज़दूर ऐसी एक बाढ़ में फंस गए थे। इनमेें से 15 तो किसी तरह मौत से बच निकले थे लेकिन 15 की कब्र एक खदान के अंदर ही बन गई थी। इन मज़दूरों के शरीर बहुत तलाश करने पर भी नहीं मिल सके। खदान में मज़दूरी करने ज्य़ादातर ऐसे भूमिहीन होते हैं जिनके पास परिवार होता है और वे भयंकर दारिद्रय का सामना करते रहते हैं। मजबूरी में वे मेघालय में आकर रैट होल मांईस में अपनी जान जोखिम में डाले हुए मजदूरी करते हैं।

क्षन में हुई इस दुर्घटना के लगभग तीन सप्ताह के बाद ओडीसा की फायर सर्विस सेवा के एक स्टेशन से पंप आए। इनकी खासियत बताई गई कि ये एक मिनट में सोलह सौ लीटर पानी खींच सकते हैं। हालांकि जब इन्हें सेवा में लगाया गया तो पानी का स्तर जस का तस ही रहा। वैसे ही पंप जब खुदी बेकार पड़ी खदानों में लगाए गए तो इन्होंने जो पानी खींचा वह सिर्फ छह इंच था।

पंप लगाने और बेचने का काम करने वाली कंपनी किर्लोस्टर ब्रदर्स ने पहले यह आश्वासन दिया था कि वे 100 हार्सपावर के इलेक्ट्रिक पंप भेजेंगे। लेकिन वे पंप दुर्घटना होने के महीने भर बाद अब क्षन पहुंच पाए हैं। दुर्घटनाग्रस्त खदान में पानी लगातार बढ़ता जा रहा है। खदान विशेषज्ञ के तौर पर मशहूर जसवंत सिंह गिल भी दुर्घटना होने के तीसरे सप्ताह में पहुंचे। उनकी प्रसिद्धि की एक बड़ी वजह यह है कि 1982 में पश्चिम बंगाल के रानीगंज की महावीर खदानों में पानी भर जाने के बावजूद उन्होंने 65 मज़दूरों को खदानों से बाहर निकाल लिया था।

गिल ने दुर्घटना स्थल पर पहुंचते ही जानकारी ली थी कि क्या सुरक्षा एजेंसियां, एनडीआरएफ, इंडियन नेवी के गोताखोर और कोल इंडिया लिमिटेड के माइनिंग इंजीनियर घटना स्थल पर पहुंचे या नहीं? क्या उन्हें इस पूरे इलाके का भूगर्भीय ज्ञान है या नहीं? क्या वे यह बता सकते हैं कि पानी जो खदान में भर रहा है वह किस स्रोत सेे आ रहा है और क्या उसे पूरी तौर पर बंद किया जा सकता है?

मैंने घटनास्थल का दौरा 29 दिसंबर को किया था। मुझे एनडीआरएफ ने बताया कि पानी 175 फीट गहरा है। नेवी के गोताखोर नौसैनिक भी उस 90 डिग्री पर स्थित चूहे के बिल तकसीधे जाकर कुछ नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उसके बाद पानी  समानांतर बने चूहे के बिलों से आता-जाता लगता है। नौसैनिक गोताखोरों को समुद्र में सीधे गोता लगाने का प्रशिक्षण हासिल होता है उन्हें किसी छेद में गोता लगाने का प्रशिक्षण नहीं दिया जाता।

जातियां पहाडिय़ों की खदानों में पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं होती हालांकि यह कहा जाता है कि वहां हवा के कुछ इलाके तो हैं। इसके अलावा खदान के बाहर पानी खासा ठंडा यानी लगभग बर्फीला है। हमें इसका अनुभव इसलिए है क्योंकि खदान के पास ही नदी है। इसके घुटनों तक गहरे पानी से हमें तीन बार गुजर कर इस खदान तक आना पड़ा। सिर्फ उम्मीद की किरण भर है कि इस सर्दी में वे मज़दूर खदान में भीषण ठंड बर्दाश्त कर सकें हों।

दुर्घटनाग्रस्त खदान पर पहुंच कर यह अहसास ज़रूर होता है कि राहत कार्य में जुटे कर्मी पूरी लगन और मेहनत से काम को अंजाम दे रहे हैं। हालांकि वे नहीं जानते कि वे कितने कामयाब होंगे। हालांकि ईस्ट खासी हिल्स जि़ला प्रशासन ने खुद तो शुरू में खासा वक्त जाया कर दिया लेकिन अब एनडीआरएफ एजेंसी के राहत कार्य शुरू करने के ही दिन से बड़ी उम्मीदें बांधे हुए है। किसी स्टैंडर्ड ऑपरेशन प्रासीजर की ज़रूरत ऐसी महान दुर्घटना मेें पहले ही दिन से पड़ती है लेकिन उसका अभाव खटकता है। तमाम खदानों के मालिकाना हक निजी हैं और ये कभी भी नियमों का पालन नहीं करते। स्थानीय प्रशासन तो ऐसी जहमत में फंसा है कि कोई कार्रवाई न करें तो बड़े नौकरशाह खींचते हैं और कुछ करे तो स्थानीय नेता, विधायक और मंत्री हाईपॉवर पंप और एनडीआरएफ को राहत कार्य में लगाने की अनुमति का जुगाड़ करने में ही जिला प्रशासन का खासा समय निकल गया। हालांकि जब ऐसे हादसे इस पूरे इलाके में होते ही हैं तो जि़ला प्रशासन को ऐसे पंप की व्यवस्था हमेशा अपने स्टोर में रखनी चाहिए। लेकिन जि़ला प्रशासन और राज्य सरकार इस बार भी सोती ही रही। घटनास्थल का एक बार भी मुआयना करने की ज़रूरत युवा मुख्यमंत्री कोनराड संगमा को नहीं जान पड़ी। जब दुर्घटना हो गई तो इस इलाके से विधायक और आपदा प्रबंधन विभाग के मंत्री घटना के होने के पूरे दो सप्ताह बाद घटनास्थल पर पहुंचे।

इस हादसे के होने के तकरीबन दो सप्ताह पहले संगमा और राज्य मंत्रिमंडल के कुछ सदस्यों ने सुप्रीमकोर्ट में इस बात से इंकार किया था कि राज्य में अवैध रूप से कोयले के खनन का काम चोरी-छिपे चल रहा है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 2014 में रैट होल माइनिंग की गतिविधियों पर रोक लगाने की हिदायत दी थी। दरअसल यह बयान सुप्रीमकोर्ट को यह जताने के लिए दिया गया था जिससे यह लगे कि एनजीटी के आदेशों के पहले से राज्य में अवैध खनन पर कानूनी तौर पर रोक है। वहां जो कोयला दिख रहा है वह पहले का है। उनकी बात का असर हुआ। पिछले ही महीने सुप्रीमकोर्ट ने 31 जनवरी तक कोयले के आवागमन को अनुमति दे दी। लेकिन खदान में हुई दुर्घटना से राज्य सरकार के झूठ का पर्दाफाश हो गया।

मेघालय में हुई इस रैट होल माइंस दुर्घटना का उस तरह प्रचार-प्रसार न तो प्रदेश और न देश के राष्ट्रीय मीडिया की ‘कवरेजÓ ही हुआ। जबकि थाईलैंड में पिछले ही साल जून में हुई एक दुर्घटना का ऐसा खाका राष्ट्रीय ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय तौर पर खींचा गया कि सभी की निगाहें उस दुर्घटना पर केंद्रित रहीं। इस दुर्घटना में एक स्कूल के बच्चों की फुटबाल टीम एक गुफा में जाकर फंस गई थी। जबकि उसमें न जाने की हिदायतें लिखी हुई थीं। उस गुफा में अचानक पानी भरने लगा और बच्चे और ज्य़ादा परेशान हो गए। भारत ने उस गुफा से पानी निकालने के लिए वहां किर्लोस्टर पंप भेजे। ब्रिटिश नेवी के गोताखोरों ने बच्चों को गुफा से बाहर निकाला। सारी दुनिया में वाह-वाही हुई।

मेघालय भारत में उत्तरपूर्व का इलाका है। राज्य सरकार मदद मांगने से कतराती है। इसकी एक वजह तो रही कि सुप्रीमकोर्ट में अवैध खनन पर जो  बयान इस सरकार ने दिया था उस पर उसे सफाई देनी होती फिर काफी कुछ उलटा-पुलटा हो जाता। इस घटना से जो सबक मिला है वह यह है कि जो गरीब हैं, मेहनतकश हैं, जिनकी आवाज में जोर नहीं है उनकी परवाह कतई नहीं करो। खदान के मालिक की चिंता मत करो राज्य सरकार की मत सुनो और तो और केंद्र की तो परवाह ही मत करो। अखबारों और मीडिया का भी न सुनों क्योंकि सभी अपने-अपने बुलबुलों में मस्त हैं।

मेघालय में कोयला खनन उद्योग को राजनीतिक संरक्षण हासिल है क्योंकि कोयला उद्योग के मालिक सभी पार्टियां को चुनाव में भारी खर्च के लिए काफी धन देते हैं। कई चुने गए विधायक कोयला मालिकों के कारण ही जीते हैं। दरअसल यह पता करना दिलचस्प होगा कि किस राजनीतिक, किस नौकरशाह और किस पुलिस अधिकारी पर कोयला खदान मालिकों का हाथ नहीं है। शिलांग निर्वाचन क्षेत्र से चुने गए सांसद विंसेंट पाला और उनका परिवार खुद कई कोयला खदानों के मालिक हैं। अभी हाल सदन मेें शून्यकाल में उन्होंने खदान में हुई त्रासदी पर प्रस्ताव रखा। लेकिन उन्होंने कोयले के अवैध खनन पर रोक लगाने की बजाए रैट होल खनन को कानूनी तौर पर मान्य कराने की आवाज उठाई। इसका मतलब था एक ताकतवर का अपने हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाना।

पैट्रीशिया मुखीम

संपादक-शिलांग टाइम्स, साभार- इंडियन एक्सपे्रस