अंधेरे वाले इलाकों को पहचाना था नायपॉल ने

हिंदुस्तान के प्रति पूरी दुनिया में उत्सुकता को बढ़ाने वाले लेखक उपन्यासकारों में बड़ा नाम है विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल का। उनके पिता भी एक पत्रकार थे जो त्रिनिदाद में थे। नोबल पुरस्कार से सम्मानित वीएस नायपाल एक महत्वपूर्ण लेखक हैं जिन्होंन 85 साल की उम्र में लंबी सांस ली। उन्हें आमतौर पर विवाद बढ़ाने वाला रचनाकार माना जाता है। लेकिन वे वास्तविक भूमि को ही अपना कथानक बना कर लेखन करते थे। उन्होंने दुनिया को पत्रकार और लेखक के तौर पर देखा। उनकी कृतियों को पढ़ते हुए लग सकता है कि उनका लेखन भागीदारी करते हुए लेखन नहीं है।

संभव है कभी उनके पूर्वज भारत से त्रिनिदाद ले जाए गए हों। नायपॉल ने खुद को त्रिनिदाद में नंगे पांव पहुंचा उपनिवेशवादी कहा है। लंदन में जाना माना लेखक मान लिया गया। उनके उपन्यास ‘ए बेन्ड इन द रीवर’ और ‘ए हाउस फार मिस्टर विश्वास’ खासे चर्चित रहे हैं। उनके लेखल में त्रिनिदाद से लंदन और वहां से विभिन्न गरीब देशों की यात्राओं में मिली जानकारी का अच्छा विवरण मिलता है। उन्हें 2001 में साहित्य का नोबल पुरस्कार मिला।

नायपॉल की पुस्तकों में ‘ए बेंड इन द रीवर’ से लेकर ‘द एनिग्स ऑफ एराइवल टू फाइंडिग सेंटर- तक उपनिवेशवाद और उपनिवेशवाद खत्म होने का रोमांचकारी विवरण मिलता है। विकासशील देशों में इंसान का खुद ही निर्वासित होना और हर व्यक्ति का संघर्ष पाठक को जोड़े रखता है। राजनीति, धर्म और दुनिया की संस्कृति पर उनके अपने विचार काफी विचारोत्तेजक थे।

वे भारत को ‘गुलाम समाज’ कहते थे। वे कहते कि भारतीय महिलाएं अपने माथे पर एक रंगीन बिंदु बनाती है जो बताता है उनके पास अपना दिमाग नहीं है। उन्होंने 1989 में ईरान के अयातोल्लाह खोमैनी द्वारा सलमान रूश्दी को दिए गए फतवे को ‘साहित्यिक आलोचना’ का ‘उग्र रूप’ भी कहा था।

एक बातचीत में उन्होंने बताया था कि वे उन दरिद्र भारतीयों की संतान हैं जिन्हें भारत से जहाज द्वारा वेस्टइंडीज में त्रिनिदाद ले जाया गया था। उन्हीं में उनके पिता थे जो पढ़-लिख गए तो पत्रकार हुए। उन्हें 1950 में एक स्कॉलरशिप मिली और अपने परिवार को छोड़ कर इंग्लैंड आ गए। वहां ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सटी से उन्होंने अंग्रेज़ी साहित्य की पढाई की। स्नातक होने के बाद वे बीमारी , गरीबी और बेरोजग़ारी के शिकार हुए। उन्होंने एक पत्र में लिखा है कि यहां लोग उनकी चेतना को तोडऩे पर आमादा नजऱ आते हैं जिससे वे कुछ कर न संके। तभी उन्हें बीबीसी वल्र्ड में मौका मिला। वहां वेस्टइंडियन साहित्य पर वे बातचीत करते और लेखन के प्रति उनमें रूचि बढ़ी। उनकी पहली पुस्तक थी ‘द मिस्टिक मैस्योर’ व्यंग्य से भरपूर इस पुस्तक में उन लोगों की जिंदगी का ब्यौरा है जो त्रिनिदाद में झुग्गियों में रहते हैं। उनके पास कोई ताकत नहीं होती पर वे ताकत के सपने देखते हैं। उन्हें सोमरसेट मॉम पुरस्कार कहानियों के संग्रह ‘मिगुएल स्ट्रीट’ के लिए मिला उनकी चर्चित पुस्तक ‘ए हाउस फारमिस्टर विश्वास’ 1961 में छपी। एक आदमी की जि़ंदगी किस तरह एक औपनिवेशिक समाज में सिमट कर रह जाती है। यह किताब उनके पिता को उनकी श्रद्धा स्वरूप् मानी जाती है। पूरी दुनिया में इसे सराहा जाता है।

उन्होंने बतौर पत्रकार ढेरों यात्राएं की और यात्रा पुस्तकें और लेख लिखे। अपने पूर्वजों के गांव और वहां की संस्कृति पर भी उन्होंने लिखा।

 नायपॉल ने ‘इस्लामी उग्रवाद’ पर काफी पहले लिखा था । उनकी किताबों में है ‘एमंग द बिलीवर्स एंड बिंयांड बिलीफ’। उनके लेखन पर उन्हें नोवबल पुरस्कार परिचय में लिखा है ‘ एक साहित्यिक तो खुद में शायद ही कभी अपने घर में रहा हो।