अंतिम विदा

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भारत के इतिहास में वर्ष 1983 दो वजहों से हमेशा याद रखा जाएगा. उस साल जून में देश ने पहली बार एकदिवसीय क्रिकेट का विश्व कप जीता और ठीक छह महीने बाद दिसंबर में पहली मारुति 800 कार राजधानी दिल्ली की सड़कों पर दौड़ी. क्रिकेट की उस जीत ने जहां इस खेल को धर्म बना दिया तो मारुति 800 ने भारत को एक नया विश्वास दिया. कहा गया कि ये कार नहीं, भारत के ‘पहिये’ हैं. बीती 18 जनवरी को कंपनी के गुड़गांव संयंत्र में जब आखिरी मारुति 800 बनी तो वह सड़क पर आने के पहले ही ऑटोमोबाइल इतिहास के चमकदार पन्ने पर अपनी जगह सुनिश्चित कर चुकी थी.

सड़क से उतरकर मारुति 800 इतिहास के पन्नों में भले ही समा गई हो लेकिन लोगों के दिलों से वह लंबे समय तक नहीं उतरेगी. आम जनता की जिस कार का ख्वाब संजय गांधी ने सन 1970 के दशक में देखा था वह 1983 में हकीकत में तब्दील हुआ. पहली मारुति 800 जब बनकर तैयार हुई तो सवाल उठा कि इसकी चाबी किसे सौंपी जाए. तमाम शुरुआती ग्राहकों के नाम का लकी ड्रॉ निकाला गया और सबसे तकदीर वाले निकले इंडियन एयरलाइंस के कर्मचारी हरपाल सिंह. 14 दिसंबर 1983, को एक भव्य समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहली मारुति 800 की चाबी उन्हें सौंपी.

उसके बाद क्या हुआ वह इतिहास का हिस्सा है. जिस समय मारुति 800 आई, देश में एंबेसडर और फिएट की प्रीमियर पद्मिनी जैसी कारें मौजूद थीं. लेकिन भारत के दिल में जिस तरह मारुति 800 उतरी, वैसी जगह शायद ही किसी देश के लोगों के मन में किसी अन्य कार ने बनाई होगी. मारुति के शुरुआती दौर में लोगों ने सालों इस कार की प्रतीक्षा सूची में इंतजार किया. 50,000 रुपये की इस कार के लिए वे एक लाख रुपये तक चुकाने के लिए तैयार रहे. तमाम कंपनियों द्वारा अलग-अलग ब्रांड बनाने के कई किस्से हैं, लेकिन मारुति 800 एक ऐसा ब्रांड बनी जिसने देश में न सिर्फ एक कंपनी बल्कि एक समूचे उद्योग को फलने-फूलने का अवसर मुहैया कराया. 2004 तक यह देश की सबसे अधिक बिकने वाली कार थी. अब तक करीब 27 लाख मारुति 800 कारें बिक चुकी हैं.

1991 के आर्थिक सुधारों यानी उदारीकरण के बाद देश में तमाम देसी-विदेशी कार कंपनियां आईं, लेकिन मारुति 800 का जलवा बरकरार रहा. कंपनी ने पहले साल केवल 850 कारों का निर्माण किया, लेकिन उसकी छोटी-सी दस्तक ने देश के कार बाजार को पूरी तरह बदल दिया था. दो साल के अंदर यह बाजार सालाना 40,000 से बढ़कर एक लाख का आंकड़ा पार कर गया था. 1997 के आंकड़े बताते हैं कि उस साल देश में बिकने वाली हर 10 कारों में से आठ मारुति की थीं और मारुति का अर्थ था मारुति 800.

प्रीमियर पद्मिनी और एंबेसडर के भारी-भरकम और गोल आकार के उलट शुरुआती मारुति 800 काफी स्पोर्टी नजर आती थी. इस बात ने युवाओं में इस कार को जबरदस्त लोकप्रियता दिलाई. उन्होंने इन कारों को खरीदा और अपने मनपसंद ढंग से सजाया-संवारा. उसमें टेलीविजन और एसी लगाए यहां तक कि 50,000 रुपये की कार की सजावट पर लोगों ने 60,000 रुपये तक खर्च कर दिए. यह दीवानापन था, जुनून था, प्रेम था… यह मारुति थी.

सात फरवरी 2014, को कंपनी ने कहा कि उसने 18 जनवरी, 2014 से इस कार का निर्माण बंद कर दिया है. कहा गया कि उत्सर्जन मानकों में सुधार के चलते इसे अपग्रेड करना होगा जिससे इसकी कीमत बहुत अधिक बढ़ जाएगी.

मारुति की छाप देश पर इतनी गहरी पड़ी कि उसने ग्राहकों को लगभग विकल्पहीन बना दिया था. वह यूं ही दशकों तक देश की सबसे अधिक बिकने वाली कार नहीं बनी रही. आश्चर्य नहीं कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और हाल ही में भारत रत्न से सम्मानित किए गए दिग्गज क्रिकेटर सचिन तेंडुलकर की पहली कार भी देश के लाखों अन्य लोगों की तरह मारुति 800 ही थी. मारुति 800 हमारे मां-बाप की कार थी, वह हमारी भी कार थी. हमारे बाद वाली पीढ़ी जब बड़ी होगी तो हो सकता है उसे मारुति 800 का किस्सा कुछ इस तरह सुनाया जाए- दुनिया में दो तरह के लोग हैं, एक जिन्होंने मारुति 800 देखी है और दूसरे जिन्होंने नहीं देखी.