अंतर्विरोधों के बीच अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार

भारत की नज़र उसके सहयोगी आतंकी संगठनों पर, कश्मीर सबसे बड़ी चिन्ता

अफ़ग़ानिस्तान में आख़िर तालिबान की सरकार बन गयी। कुछ अंतर्विरोध अभी बने हुए हैं; लेकिन सभी घटक कोशिश कर रहे हैं कि बाक़ी दुनिया में उनके बीच मतभेदों का संकेत दुनिया में न जाए। उनके बीच आपसी मतभेद हैं यह पूरी नहीं, बल्कि अंतरिम सरकार बनाने के उनके फ़ैसले से साबित हो जाता है। इस लिहाज़ से जिस सरकार का गठन किया गया है, उसमें प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री कार्यकारी ज़िम्मा सँभाल रहे हैं। भारत सहित दुनिया के सभी देशों, ख़ासकर भारत की नज़र अब अफ़ग़ानिस्तान पर है। भारत के लिए यह इसलिए भी अहम है। क्योंकि तालिबान के घटक अलक़ायदा ने कश्मीर को लेकर जो बयान दिये हैं, उनसे यह आशंका ज़ाहिर होती है कि वहाँ आतंकवादी गतिविदियों को हवा दी सकती है।

ख़ुद तालिबान के प्रवक्ताओं के बयान कश्मीर को लेकर भ्रामक रहे हैं। एक तरफ़ वह अपनी ज़मीन दूसरे देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं होने देने का दम्भ भर रहे हैं। वहीं अन्य प्रवक्ता मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर को लेकर चिन्ता जता रहे हैं। ऐसे में यह आशंका स्वाभाविक ही है कि तालिबान सरकार का कश्मीर को लेकर क्या आधिकारिक रूख़ रहेगा? इसकी जानकारी आने वाले दिनों में ही मिल पाएगी।

क़तर में भारत के राजदूत जब तालिबान के नेताओं से मिले थे, तब भारत की तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की आशंकाओं और चिन्ताओं के प्रति उन्हें अवगत करवाया गया था। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जनरल फ़ैज़ अहमद सितंबर के पहले हफ़्ते जब अपने लाव-लश्कर के साथ काबुल पहुँच गये थे, तभी यह लगने लगा था कि पाकिस्तान तालिबान और उसके घटकों के  ज़रिये अपना एजेंडा चलाना चाहता है। और इसमें कश्मीर आईएसआई की सूची में सबसे ऊपर रहा है।

पंजशीर में तालिबान के क़ब्ज़े के दावों में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रहने की बातें अब रहस्यमय नहीं रह गयी हैं। भले पंजशीर की तस्वीर अभी पूरी तरह साफ़ नहीं है। यहाँ तक कि चीन की भूमिका को लेकर भी कयास हैं। यह सब चीज़ें भारत के लिए निश्चित ही चिन्ता का सबब हैं। कश्मीर को लेकर अलक़ायदा ने जो बयान दिया है, वह उसके इरादों की झलक देता है।

कश्मीर को लेकर तमाम बातों के बावजूद एक सच यह भी है कि वहाँ के लोग तालिबान को पसन्द नहीं करते। कश्मीर में सेना की बड़े पैमाने पर उपस्थिति भी आतंकी गतिविधियों के तेज़ होने की राह में बड़ा रोड़ा है। इसके बावजूद यह तय है कि कश्मीर में माहौल को ख़राब करने की बड़े स्तर पर कोशिश होगी। ख़ासकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पाकिस्तान वर्तमान हालात का फ़ायदा उठाना चाहता है और कश्मीर को लेकर उसकी अपनी एक निराशा रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद-370 वापस लेकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के मोदी सरकार के फ़ैसले के प्रति कश्मीर के लोगों में सख़्त नाराज़गी रही है। ऊपर से लेह को अलग करने के साथ-साथ उसका विधानसभा का दर्जा भी ख़त्म कर दिया गया। इससे कश्मीर ही नहीं, जम्मू सम्भाग तक में नाराज़गी है; क्योंकि जन प्रतिनिधि न होने के कारण उनके लिए दिक़्क़तें पैदा हुई हैं। उनके काम नहीं हो पा रहे और प्रक्रिया भी लम्बी हुई है। कश्मीर के मुख्यधारा के दलों में भी केंद्र के प्रति नाराज़गी है। इसका कारण अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के समय उन्हें भरोसे में नहीं लिया जाना है। ‘तहलका’ से बातचीत में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा- ‘हमारी पहली और आख़िरी माँग यह है कि जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बहाल किया जाए। यह फ़ैसला जम्मू-कश्मीर को बिना भरोसे में लिए जनता की भावनाओं के ख़िलाफ़ किया गया है। ज़ाहिर है कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व में भी अनुच्छेद-370 को लेकर गहरी नाराज़गी है।’

हाल के महीनों में केंद्र ने कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियों को पुनर्जीवित करने के लिए वहाँ आने वाले महीनों में विधानसभा के चुनाव के संकेत दिये हैं। लेकिन यह बड़ा सवाल है कि इतने भर से क्या कश्मीर में अनुच्छेद-370 के ज़रिये मिले सूबे के विशेष दर्जे के ख़त्म होने से उपजी नाराज़गी दूर हो जाएगी? कश्मीर में अलक़ायदा या दूसरे आतंकी संगठनों की गतिविधियों की कोशिशों को रोकने में वहाँ का राजनीतिक नेतृत्व बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। लिहाज़ा केंद्र के लिए यह ज़रूरी है कि उसे भरोसे में लिया जाए। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों ने कश्मीर के युवाओं की भर्ती अपने संगठनों में तेज़ की है। आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को आतंकी संगठनों ने अपने लिए बड़े स्तर पर भुनाया है।

कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व और वहाँ की जनता ने ही आतंकवाद के चलते सबसे ज़्यादा नुक़सान झेला है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के नेताओं के यदा-कदा के बयानों को छोड़ दिया जाए, तो वे भारत की ही बात करते रहे हैं। वे भारतीय चुनाव आयोग के चुनावों के तहत चुनाव में हिस्सा लेते रहे हैं और उसके क़ानूनों को मानते रहे हैं। पाकिस्तान की कश्मीर को लेकर नीयत ख़राब रही है और उसकी एजेंसी आईएसआई कश्मीर में उत्पात मचाने की हर सम्भव कोशिश करती रही है। लिहाज़ा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर को लेकर चिन्ता स्वाभाविक है।

तालिबान की अंतरिम सरकार

काफ़ी उहापोह के बाद आख़िर अफ़ग़ानिस्तान में मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा के नेतृत्व में 7 सितंबर की शाम तालिबान की अंतरिम सरकार का गठन हो गया। मुल्ला मुहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा कार्यवाहक प्रधानमंत्री होंगे, जबकि तालिबान के दूसरे सबसे बड़े नेता मुल्ला गनी बरादर और मुल्ला अबदस सलाम उप प्रधानमंत्री मनोनीत किये गये हैं। सरकार में मुल्ला याक़ूब की रक्षा मंत्री और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की गृहमंत्री की भूमिका होगी। इसके अलावा सूचना मंत्री ख़ैरूल्लाह ख़ैरख़्वा, सूचना उप मंत्री जबिउल्लाह मुजाहिद, उप विदेश मंत्री शेर अब्बास स्टानिकज़र्इ, न्याय मंत्री अब्दुल हक़ीम, वित्त मंत्री हेदयातुल्लाह बद्री, आर्थिक मंत्री कारी दीन हनीफ़, शिक्षा मंत्री शेख़ नूरुल्लाह, हज़ और धार्मिक मामलों के मंत्री नूर मोहम्मद साक़िब, जनजातीय मामलों के मंत्री नूरुल्लाह नूरी, ग्रामीण पुनर्वास और विकास मंत्री मोहम्मद यूनुस अख़ुंदज़ादा, लोक निर्माण मंत्री अब्दुल मनन ओमारी और पेट्रोलियम मंत्री मोहम्मद अख़ुंद मनोनीत किये गये हैं।

“यह एक खुला रहस्य है कि पाकिस्तान हमेशा तालिबान की मदद करता रहा है। न सिर्फ़ पैसों से, बल्कि हथियार और रक्षा उपकरणों के रूप में भी। पाकिस्तान का यह पक्ष कश्मीर घाटी के सन्दर्भ में बहुत अहमियत रखता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हमारी सुरक्षा एजेंसियाँ और वहाँ तैनात सेना पाकिस्तान के नापाक इरादों से निपटने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के  क़ब्ज़े से कश्मीर में आतंकवाद को नयी हवा मिल सकती है।”

राजेद्र सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त)

 

नब्बे के दशक के ज़ख़्म और वर्तमान ख़तरे

नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर में सबसे बड़ी घटनाएँ उस समय घटी हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में 90 के दशक में तालिबान की सत्ता थी। यह वही दौर था, जब कश्मीर में आतंकवाद ने पाँव पसारे। भारत ने आतंकवाद के उसके बाद कई गहरे ज़ख़्म झेले हैं। यहाँ तक कि कारगिल भी उसी काल में हुआ। यही नहीं, भारत की संसद पर हमला भी तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुआ। अपहृत करके कांधार ले जाए गये आईसी 814 विमान की घटना भी उसी दौर में हुई। भारत के लिए चिन्ता की बात यह भी है कि जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अज़हर अगस्त के मध्य में कांधार गया था। आख़िर उसका वहाँ जाने का क्या प्रयोजन था? जैश-ए-मोहम्मद ही नहीं लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी सक्रिय रहे हैं। कश्मीर में इन दो संगठनों का ही आतंकवाद को बढ़ाने में ज़्यादा हाथ रहा है।

भारत के लिए चिन्ता का एक और कारण यह है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने के तुरन्त बाद जो सबसे पहला काम किया, वह यह था कि उन्होंने जेलों में बन्द आतंकियों को छोड़ दिया था। इनमें से बड़ी संख्या में वे आतंकवादी थे, जो भारत में सक्रिय रहे और उनका ताल्लुक़ जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयब्बा से रहा है। ऐसे में इन आतंकियों का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ होना सम्भव है। लेकिन तालिबान ने फ़िलहाल सीधे-सीधे भारत के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और न ही कश्मीर को लेकर कोई बड़ा विरोधी बयान दिया है। यहाँ कुछ तथ्य और हैं, जो तालिबान के हाथ भारत के ख़िलाफ़ जाने के मामले में बाँधते हैं। एक यह कि तालिबान सही चले, तो भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। दूसरे इस बार तालिबान दुनिया के समर्थन का तलबगार दिखता है।

याद रहे तालिबान को 90 के दशक में सिर्फ़ पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने मान्यता दी थी। भारत का सहयोग या देश की उसे वैधता तालिबान के लिए बहुत बड़ी बात होगी। निश्चित ही भारत की तरफ़ से भी गोपनीय तरीक़े से बैक चैनल्स (परदे के पीछे के मध्यवर्ती लोगों) के ज़रिये तालिबान से बातचीत की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारत ने फ़िलहाल देखो और इंतज़ार की नीति अपना रखी है। हालाँकि यह भी सच है कि भारतीय एजेंसियाँ पिछले एक महीने से देश के कुछ राज्यों में गतिविधियों पर नज़र रख रही हैं। भारत के लिए तालिबान से रिश्ते स्थापित करना कोई आसान काम नहीं होगा। इसका एक कारण यह भी है कि उसने तालिबान से पिछली सत्ता के समय भी कोई रिश्ता या सम्पर्क नहीं रखा था। दूसरे इस बार तालिबान से चीन भी पींगे बढ़ा रहा है, जो पिछली बार नहीं था। चीन पिछले एक साल से सीमा पर भारत से ज़्यादा तनाव बनाया हुआ है। ऐसे में निश्चित ही भारत के लिए चुनौतियाँ बड़ी हैं, ख़ासकर कश्मीर को लेकर।