हीरों के लिए मध्य प्रदेश सरकार देगी 2.16 लाख पेड़ों की बलि

आदिवासियों-परम्परागत वननिवासियों का विरोध
हीरा खदान के आसपास के जंगलों में रहने वाले आदिवासी-परम्परागत वननिवासी भी जंगल काटे जाने का विरोध कर रहे हैं। आदिवासियों-वननिवासियों का कहना है कि अगर जंगल कटे तो वे बर्बाद हो जाएँगे। उनकी जीविका जंगलों पर ही आश्रित है। जंगल से वन सम्पदा के रूप में महुआ, चिरोंजी, गुली, तेंदूपत्ता, चरवा इत्यादि वस्तुएँ प्राप्त होती हैं, जिससे आदिवासियों-वननिवासियों का परिवार पलता है। बकस्वाहा के जंगल पर आश्रित एक आदिवासी महिला ने बताया कि हमारे पास कोई ज़मीन नहीं है। हमारे लिए जंगल ही सब कुछ हैं। इन्हीं से हमारा परिवार पलता है। जंगल नहीं रहे, तो हमारे बच्चे भूखे मर जाएँगे।

हीरों से ज़्यादा ज़रूरी ऑक्सीजन
आज जब कोरोना महामारी के दौरान जब पूरा देश ऑक्सीजन की क़िल्लत से जूझ रहा है, तब लोगों को पेड़ों की अहमियत समझ में आयी है। ख़ुद मध्य प्रदेश में लाखों लोग ऑक्सीजन की कमी से मरे हैं और फिर भी राज्य सरकार पेड़ों को कटवाने पर तुली है। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि जंगल ज़रूरी है या हीरे?
हीरा खदान के लिए पेड़ों के काटने का बुंदेलखण्ड के कई इलाक़ों में तीव्र विरोध होने लगा है। युवाओं के साथ-साथ शहरों-गाँवों के लोग भी लामबन्द हो रहे हैं। ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों के मद्देनज़र लोगों में यही चर्चा का विषय है कि क्या हीरा खदान जनता की जान से भी ज़रूरी हैं? क्या 2.16 लाख पेड़ों को काटना ज़रूरी हो गया है? इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटान का सबसे ज़्यादा विरोध युवा कर रहे हैं। विरोध के लिए युवा सोशल मीडिया साइट व्हाट्स ऐप, फेसबुक और ट्विटर का सहारा ले रहे हैं। ‘सेव_बकस्वाहा_फारेस्ट’ कैंपेन चला रहे हैं। पेड़ काटने के विरोध में देश भर में माहौल तैयार कर रहे हैं। अधिकतर युवा स्टेट्स और पोस्ट के ज़रिये पेड़ कटने का विरोध कर रहे हैं।
बकस्वाहा के जंगल को बचाने के लिए 5 जून को पर्यावरण दिवस के अवसर पर देश भर से पर्यावरणविदों और लोगों ने हीरा खनन प्रोजेक्ट का विरोध करने के लिए छतरपुर ज़िले के बकस्वाहा के जंगलों की ओर कूच किया और इस परियोजना का विरोध किया।

सर्वोच्च न्यायालय में याचिका
बकस्वाहा के जंगलों को बचाने के लिए दिल्ली की नेहा सिंह ने 9 अप्रैल, 2021 को सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने मंज़ूर कर लिया है। याचिका में कहा गया है कि हीरा के लिए जीनवदायी लाखों पेड़ों की बलि नहीं दी जा सकती। लाखों पेड़ों के कटने से पर्यावरण एवं मानव जीवन को अपूर्णीय क्षति होगी, जिसकी भारपायी सम्भव नहीं है। हीरा खनन हो, लेकिन हमारे जीवन के लिए ज़रूरी पेड़ों की बलि देकर नहीं। जिस क्षेत्र में खनन की अनुमति दी गयी है, वह न्यूनतम जल क्षेत्र है। यहाँ पहले से ही पानी की कमी है। कम्पनी के काम के लिए बड़ी मात्रा में इस इलाक़े से पानी का दोहन होगा, जिससे आसपास का जल स्तर भी प्रभावित होगा। लोगों को पानी की दिक़्क़त होगी और वन्य प्राणी भी प्यासे मरेंगे। लिहाज़ा आदित्य बिड़ला ग्रुप को दी गयी लीज निरस्त की जाए।

बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी
लोगों का कहना है कि सूखे की मार झेल रहे बुंदेलखण्ड को रेगिस्तान बनाने की तैयारी चल रही है। बुंदेलखण्ड क्षेत्र के पथरिया निवासी अंकित पटेल कहते हैं कि भारत की सबसे बडेहीरा भण्डार की जानकारी मिलते ही सरकार ने क़रीब सवा दो लाख पेड़ों को कटवाने की तैयारी कर ली; लेकिन सरकार और उसके प्रशासन को चलाने वाले अधिकारियों ने यहाँ के पर्यावरण पर कोई अध्ययन किया, न ही उसके बारे में कोई भी जानकारी दी। वनों के कटान के बाद यहाँ बीहड़ बन जाएगा। हमारी आने वाली पीढिय़ाँ चंबल के बाद बुंदेलखण्ड के बीहड़ को देखने को तैयार होंगी। यहाँबहने वाली नदियाँ जंगल कटने के बाद लुप्त हो जाएँगी। क्योंकि जंगल है, तो पानी है; और पानी ही जीवन का आधार है। पर्यावरण विज्ञान की दृष्टि से बीहड़ बनना रेगिस्तान बनने की शुरुआत मानी जाती है।
अंकित पटेल कहते हैं कि केन-बेतवा लिंक परियोजना के कारण पन्ना राष्ट्रीय उद्यान का लगभग 72 वर्ग किमी का जंगली क्षेत्र भविष्य में डूब जाएगा, और रही-सही क़सर पूरी करने के लिए राज्य सरकार बकस्वाहा के जंगलों को काटने जा रही है। बकस्वाहा के जंगल कटने से समूचे बुंदेलखण्ड का प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ जाएगा। आख़िर प्रदेश सरकार को बुंदेलखण्ड से कौन-सी समस्या है कि वह इसे भविष्य का रेगिस्तान बनाने के लिए अग्रसर हो रही है।

किसान पेड़ काटें, तो लगता है ज़ुर्माना
मध्य प्रदेश पछले दिनों मध्य प्रदेश के सीहोर ज़िले में एक किसान द्वारा सागौन का पेड़ काटने पर इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च एँड एजुकेशन के रिपोर्ट के आधार पर वन विभाग द्वारा एक करोड़ 21 लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया गया। यह एक तरह से लोगों को पेड़ काटने से रोकने के लिए अनूठा फ़ैसला कहा जा सकता है। लेकिन सवाल उठता है कि यही वन विभाग बकस्वाहा में 2.16 लाख पेड़ों को काटने की परियोजना पर ख़ामोश क्यों है? और बड़ी संख्या में पेड़ों का कटान होने पर भी कम्पनी और दोषियों के ख़िलाफ़ चालान क्यों नहीं कर रहा है? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के रिपोर्ट के अनुसार, 2.16 लाख पेड़ों और जल्द ही पेड़ बनने वाले लाखों छोटे-बड़े पौधों वाले जंगल की क्या क़ीमत होगी? इंडियन काउसिंल ऑफ फॉरेस्ट्री रिसर्च ऐंड एजुकेशन के अनुसार, एक पेड़ की औसत उम्र 50 साल मानी गयी है। 50 साल में एक पेड़ 50 लाख क़ीमत की सुविधा देता है तथा 23 लाख 68,000 रुपये क़ीमत का वायु प्रदूषण कम करता है। साथ ही 20 लाख रुपये क़ीमत का भू-क्षरण नियंत्रण करने के साथ-साथ ज़मीन की उर्वरता बढ़ाने का भी काम करता है।