हिचक का सबब

शैलेश गांधी, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त
शैलेश गांधी, पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त

केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी) द्वारा हाल ही में राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार (आरटीआई) के दायरे में लाने का फैसला स्वागत योग्य है.

इस पर राजनीतिक दलों ने जिस तरह की प्रतिक्रिया दी है उस पर किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए. आखिर सत्ता में बैठा हुआ कौन व्यक्ति पारदर्शी होना चाहता है? यह स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है.

दरअसल इस देश के राजनीतिक वर्ग को पूरी तरह से पता ही नहीं है कि आरटीआई है क्या. बल्कि इस कानून का इस्तेमाल करने वाला आम आदमी इसे नेताओं से ज्यादा अच्छी तरह समझता है. राजनीतिक वर्ग खुद को दूसरे लोगों की तुलना में विशेष समझता है. उसकी नकारात्मक प्रतिक्रिया इसी मानसिकता से उपजी है. ऐसे में राजनीतिक दलों से तीन सवाल आवश्यक तौर पर पूछे जाने चाहिए. पहली बात, क्या उन्हें सरकार से किसी तरह की वित्तीय मदद नहीं मिलती? अगर नहीं मिलती तो सीआईसी का फैसला गलत है. लेकिन अगर उन्हें मिलती है तो उन्हें आरटीआई के दायरे में आना चाहिए. आरटीआई अधिनियम स्पष्ट कहता है कि कोई भी गैरसरकारी संस्थान जिसे सरकार से अच्छा-खासा पैसा मिलता है वह जनता के प्रति जवाबदेह संस्था है और राजनीतिक दल इसी श्रेणी में आते हैं. इस फैसले में पीठ ने स्पष्ट किया है कि राजनीतिक दलों को टैक्स में भारी छूट के अलावा सरकारी भूमि आवंटन में भी जमकर सब्सिडी मिलती है.

दूसरी बात, क्या राजनीति दलों को करोड़ों रुपये का चंदा नहीं मिल रहा है? क्या यह राशि महत्वपूर्ण नहीं है? वे इससे इनकार नहीं कर सकते और इसलिए उनकी जनता के प्रति जवाबदेही बनती है. इस पर भी अगर वे आपत्ति करते हैं तो उन्हें यह बताना होगा कि उनको आरटीआई के दायरे में क्यों न रखा जाए. तीसरी बात, क्या राजनीतिक दल यह मानते हैं कि पारदर्शिता उनके हित में है? अगर उनको ऐसा नहीं लगता तो उनसे यह पूछा जाना चाहिए कि पारदर्शिता से उनका क्या नुकसान होगा.

अगर आप सरकारी संस्था हैं तो आप आरटीआई के दायरे में आते हैं. लेकिन यह अधिनियम कुछ खास किस्म की सूचनाओं को जारी नहीं करने की रियायत भी देता है. इन रियायतों के साथ ही अनेक सरकारी प्रतिष्ठान पिछले सात साल से बिना किसी नुकसान के काम कर रहे हैं.

IMG

राजनीतिक दलों का कहना है कि लोग उनसे अपने प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया के बारे में जानकारी देने के लिए कैसे कह सकते हैं. जवाब यही है कि वे नहीं कह सकते. जिस जानकारी का पार्टियां औपचारिक रिकॉर्ड नहीं रखती हैं वह सूचना नहीं है और इसलिए उसे उपलब्ध कराने की बाध्यता भी नहीं है. लेकिन नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि क्या ऐसी कोई प्रक्रिया है भी और अगर है तो उसके मानक क्या हैं. बस, यहीं तक यह कानून प्रभावी होगा. साफ है कि इसके जरिए कोई आम नागरिक किसी राजनीतिक दल के लिए शर्तें तय नहीं कर सकता.

अपने बचाव में राजनीतिक दलों का यह तर्क भी है कि निर्वाचन आयोग तो पहले से ही उनकी निगरानी कर रहा है तो फिर आरटीआई क्यों. क्या वे यह कह रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि आम लोग उन पर निगरानी रखें या वे आम लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए. कुछ राजनीतिक दलों ने तो खुद को निजी संस्थान तक घोषित कर दिया है. क्या वे वाकई यह मानते हैं कि वे कारोबारी संगठन हैं?
मुझे लगता है कि राजनीतिक दलों को डर है. इस बात का डर कि कौन जाने आरटीआई उनके लिए किस तरह की मुसीबत ले आए? राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का खुलासा इस कानून के चलते ही हुआ था. यह एक अनजान ताकत की तरह है और यही वजह है कि राजनीतिक दल इससे दूर ही रहना चाहते हैं. उनके कुछ अवैध कारनामे, उनकी मनमानियां इसकी वजह से उजागर हो सकती हैं. उनके मन में यही डर है.

पारदर्शिता आपको बेहतर बनाती है. यह खुद में सुधार लाने का उपाय है. मेरा मानना है कि लंबी अवधि में इससे राजनीतिक दलों का भला ही होगा. आज राजनीतिक दलों के प्रति लोगों में जो अविश्वास भरा है वह पारदर्शिता से दूर हो सकता है. अगर भारतीय जनता पार्टी यह कह दे कि वह इसके लिए तैयार है तो कांग्रेस भी उसका अनुकरण करेगी. लेकिन अगर राजनीतिक दल सीआईसी के आदेश को न्यायालय में चुनौती देते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और अगर न्यायालय ने स्थगन आदेश दे दिया तो यह मामला अनिश्चित काल के लिए लटक जाएगा. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संगठन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में आपत्ति याचिका दायर करके कहा है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा स्थगन आदेश लेने से पहले ही इस पर सुनवाई की जाए.

समाचार चैनलों पर लगातार इस तर्क को आधार बनाकर चर्चा की जा रही है कि क्या लोगों को जानने का अधिकार नहीं है.  यह एक कानूनसम्मत दलील नहीं है. कोई संस्थान इस आधार पर जनता के लिए जवाबदेह नहीं बनता कि लोगों को जानने का अधिकार है. हमारे पास पुख्ता सबूत हैं कि राजनीतिक दलों को सरकार से भारी-भरकम वित्तीय मदद मिलती है और इसलिए वे आरटीआई के दायरे में आते हैं.

मेरा आरटीआई में यकीन है. इसलिए मैं मानता हूं कि ‘आरटीआई नहीं तो वोट नहीं’ जैसा अभियान बहुत कारगर होगा. अगर हम इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बना सके तो कुछ उम्मीद है कि इस आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हो सके. यह लोकतंत्र के लिए बेहद अहम कदम होगा.
(शोनाली घोषाल से बातचीत पर आधारित)