हिचक का सबब

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राजनीतिक दलों का कहना है कि लोग उनसे अपने प्रत्याशियों की चयन प्रक्रिया के बारे में जानकारी देने के लिए कैसे कह सकते हैं. जवाब यही है कि वे नहीं कह सकते. जिस जानकारी का पार्टियां औपचारिक रिकॉर्ड नहीं रखती हैं वह सूचना नहीं है और इसलिए उसे उपलब्ध कराने की बाध्यता भी नहीं है. लेकिन नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि क्या ऐसी कोई प्रक्रिया है भी और अगर है तो उसके मानक क्या हैं. बस, यहीं तक यह कानून प्रभावी होगा. साफ है कि इसके जरिए कोई आम नागरिक किसी राजनीतिक दल के लिए शर्तें तय नहीं कर सकता.

अपने बचाव में राजनीतिक दलों का यह तर्क भी है कि निर्वाचन आयोग तो पहले से ही उनकी निगरानी कर रहा है तो फिर आरटीआई क्यों. क्या वे यह कह रहे हैं कि वे नहीं चाहते कि आम लोग उन पर निगरानी रखें या वे आम लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं? उनसे यह सवाल पूछा जाना चाहिए. कुछ राजनीतिक दलों ने तो खुद को निजी संस्थान तक घोषित कर दिया है. क्या वे वाकई यह मानते हैं कि वे कारोबारी संगठन हैं?
मुझे लगता है कि राजनीतिक दलों को डर है. इस बात का डर कि कौन जाने आरटीआई उनके लिए किस तरह की मुसीबत ले आए? राष्ट्रमंडल खेल घोटाले का खुलासा इस कानून के चलते ही हुआ था. यह एक अनजान ताकत की तरह है और यही वजह है कि राजनीतिक दल इससे दूर ही रहना चाहते हैं. उनके कुछ अवैध कारनामे, उनकी मनमानियां इसकी वजह से उजागर हो सकती हैं. उनके मन में यही डर है.

पारदर्शिता आपको बेहतर बनाती है. यह खुद में सुधार लाने का उपाय है. मेरा मानना है कि लंबी अवधि में इससे राजनीतिक दलों का भला ही होगा. आज राजनीतिक दलों के प्रति लोगों में जो अविश्वास भरा है वह पारदर्शिता से दूर हो सकता है. अगर भारतीय जनता पार्टी यह कह दे कि वह इसके लिए तैयार है तो कांग्रेस भी उसका अनुकरण करेगी. लेकिन अगर राजनीतिक दल सीआईसी के आदेश को न्यायालय में चुनौती देते हैं तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा और अगर न्यायालय ने स्थगन आदेश दे दिया तो यह मामला अनिश्चित काल के लिए लटक जाएगा. एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स नामक संगठन ने दिल्ली उच्च न्यायालय में आपत्ति याचिका दायर करके कहा है कि किसी राजनीतिक दल द्वारा स्थगन आदेश लेने से पहले ही इस पर सुनवाई की जाए.

समाचार चैनलों पर लगातार इस तर्क को आधार बनाकर चर्चा की जा रही है कि क्या लोगों को जानने का अधिकार नहीं है.  यह एक कानूनसम्मत दलील नहीं है. कोई संस्थान इस आधार पर जनता के लिए जवाबदेह नहीं बनता कि लोगों को जानने का अधिकार है. हमारे पास पुख्ता सबूत हैं कि राजनीतिक दलों को सरकार से भारी-भरकम वित्तीय मदद मिलती है और इसलिए वे आरटीआई के दायरे में आते हैं.

मेरा आरटीआई में यकीन है. इसलिए मैं मानता हूं कि ‘आरटीआई नहीं तो वोट नहीं’ जैसा अभियान बहुत कारगर होगा. अगर हम इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर माहौल बना सके तो कुछ उम्मीद है कि इस आदेश का प्रभावी क्रियान्वयन हो सके. यह लोकतंत्र के लिए बेहद अहम कदम होगा.
(शोनाली घोषाल से बातचीत पर आधारित)

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