इस किताब में गांधी इन सारे रूपों में दिखाई देते हैं- अपनी स्थापनाओं के प्रति आग्रही भी, आक्रामक भी. वे हर मुद्दे पर बहस में उतरते हैं, कटाक्ष भी करते हैं, ललकारते भी हैं. वे उन सारी मान्यताओं की धज्जियां उड़ा देते हैं जो आज की सभ्यता की ध्वजा उठाए फिरती हैं. उन्हें इसका पूरा अंदाजा है कि औद्योगिक सभ्यता की तड़क-भड़क इतनी सम्मोहक है और उसकी पहुंच इतनी व्यापक है कि उस पर हमला करते हुए किसी संकोच से काम नहीं चलेगा. लेकिन वे जो लिखते हैं, वह उनकी गहरी समझ में से विकसित हुआ है: ‘लंदन में रहने वाले हर एक नामी अराजकतावादी हिंदुस्तानी के संपर्क में मैं आया. उनकी शूर-वीरता का असर मेरे मन में पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोश ने उल्टी राह पकड़ ली है. मुझे लगा कि हिंसा हिंदुस्तान के दुखों का इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृति को देखते हुए आत्मरक्षा के लिए कोई अलग व ऊंचे प्रकार का शस्त्र काम में लाना चाहिए.’
लेकिन यह किताब मात्र तो थी नहीं; थी यह गांधी की लड़ाई की गीता जिससे वे अपना महाभारत रचना चाहते थे. इसलिए विरोधी इसी किताब से उनकी पिटाई करते रहे थे. इसलिए 1921 में गांधी फिर इस किताब को सही संदर्भ में दुनिया के सामने रखते हैं: ‘मेरी राय में यह किताब ऐसी है कि वह बालक के हाथ में भी दी जा सकती है. यह द्वेषधर्म की जगह प्रेमधर्म सिखाती है, हिंसा की जगह आत्मबलिदान को रखती है, पशुबल से टक्कर लेने के लिए आत्मबल को खड़ा करती है… इस किताब में आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई है… क्योंकि… मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान आधुनिक सभ्यता का त्याग करेगा तो उससे उसे लाभ ही होगा… रेलों या अस्पतालों का नाश करने का ध्येय मेरे मन में नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं जरूर उसका स्वागत करूंगा. रेल या अस्पताल दोनों में से एक भी ऊंची और बिल्कुल शुद्ध संस्कृति की सूचक नहीं है. ज्यादा से ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि वह ऐसी बुराई हैं जो टाली नहीं जा सकतीं. दोनों में से एक भी हमारे राष्ट्र की नैतिक ऊंचाई में एक इंच की भी बढ़ती नहीं करती. उसी तरह से मैं अदालतों के स्थायी नाश का ध्येय मन में नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आए तो मुझे अवश्य अच्छा लगेगा. यंत्रों और मिलों के नाश के लिए मैं उससे भी कम कोशिश करता हूं. उसके लिए लोगों की आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्याग की जरूरत रहती है… हिंदुस्तान अगर प्रेम के सिद्धांत को अपने धर्म के एक सक्रिय अंश के रूप में स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीति में शामिल करे, तो स्वराज्य स्वर्ग से हिंदुस्तान की धरती पर उतरेगा. लेकिन मुझे दुख के साथ इस बात का भान है कि ऐसा होना बहुत दूर की बात है. ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूं कि आज के आंदोलन को बदनाम करने के लिए इस पुस्तक की बहुत सी बातों का हवाला दिया जाता मैंने देखा है. मैंने इस मतलब के लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूं, आज की उथल-पुथल से लाभ उठाकर अपने अजीब ख्याल भारत के सिर पर लादने की कोशिश कर रहा हूं और हिंदुस्तान को नुकसान पहुंचाकर, अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूं. इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई खोखली चीज नहीं है. इसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है.’
बहुत बाद में, जब आजादी फलक पर किसी क्षीण रेखा सी दिखाई देने लगी थी और गांधी के लोग गांधी से अलग किसी भारत की रेखाएं खींचने की सोचने लगे थे, गांधी ने जवाहरलाल नेहरू को सीधे ही सामने खड़ा किया था. उन्होंने लिखा कि मैंने तुम्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित किया है लेकिन मेरे-तुम्हारे बीच फासले बढ़ते ही जा रहे हैं और वे बहुत बुनियादी किस्म के हैं, इसिलए कहीं दुनिया में भ्रम न रह जाए, अत: मैं चाहता हूं कि भारत के भावी के बारे में हमारी-तुम्हारी साफ बात हो जाए. ऐसा कह कर वे फिर इसी पतली सी किताब की याद दिलाते हैं. जवाहर जवाब में लिखते हैं कि हां, ऐसी एक आपकी किताब थी तो जरूर जिसे मैंने सालों पहले पढ़ा था. उसकी कुछ धुंधली सी स्मृति है मुझे लेकिन वह तब भी मुझे किसी खास मतलब की नहीं लगी थी, और आज तो हालात एकदम ही बदल गए हैं. ऐसे में उस किताब की बात… गांधी तुरंत जवाब देते हैं: मैं आज भी अपनी उस किताब पर उसी तरह कायम हूं और जिसे तुम बदले हुए हालात कहते हो, उनमें मुझे ऐसा कुछ नहीं लगता है जिनके कारण मैं इस किताब में कुछ बदलूं… इसलिए जरूरी है कि हम समय निकालकर साथ बैठ लें और देश-दुनिया के सामने अपना नजरिया साफ कर दें. जवाहरलाल ने इस घनचक्कर के साथ किसी चक्कर में न पड़ना ही ठीक समझा और व्यस्तता आदि लिखकर इस किताब से छुटकारा पाया. बाद में तो देश ने गांधी से ही छुटकारा पा लिया !
1909 में लिखी गई इस किताब ने 100 साल का सफर पूरा किया है और आज भी हमारे बीच खड़ी है. किसी वैचारिक किताब की शताब्दी को लेकर देश-दुनिया में चर्चा हो रही हो, आयोजन हो रहे हों तो उसकी शक्ति समझी जा सकती है. यह किताब सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी (उ.प्र.) से प्राप्त की जा सकती है.
(कालजयी लेखन, 15 अप्रैल 2009 में प्रकाशित)