हिंदी पट्टी से पत्ता साफ

आज हालत यह है कि कार्यकर्ताओं का मनोबल टूट गया है, पार्टी में नेतृत्व का कोई विकल्प बचा नहीं है. शीर्ष पर नेतृत्व का जो संकट है वह पूरी पार्टी से बड़ी कीमत वसूल रहा है.’ कांग्रेस की स्थिति आज उस सेना के जैसी हो गई है जिसका सेनापति युद्धभूमि से लापता हो गया है और सैनिक दिशाहीन होकर अफरा-तफरी में फंस गए हैं.

आपातकाल के बाद कांग्रेस हिंदी पट्टी से इसी तरह साफ हो गई थी, लेकिन तब उसके पास इंदिरा गांधी के रूप में मजूबत और करिश्माई नेतृत्व था. कांग्रेस के लिए संकट का दौर 1996 से 1998 के बीच भी रहा लेकिन तब सोनिया गांधी ने सफलतापूर्वक पार्टी को संभाला था. आज की स्थितियां थोड़ी जटिल हैं. आज सोनिया और राहुल दोनों ही शीर्ष पर आकर नेतृत्व देने के लिए अनिच्छुक दिख रहे हैं और वैकल्पिक नेतृत्व उन्होंने अब तक खड़ा नहीं किया है. इसकी वजह से जनता में भी कांग्रेस के प्रति किसी तरह का जोश नहीं पैदा हो पा रहा है. किदवई की मानें तो पार्टी के भीतर ढांचागत समस्याएं भी बहुत ज्यादा हैं. इतने लंबे राजनीतिक जीवन के बावजूद भी सोनिया गांधी और राहुल गांधी आज तक जवाबदेही का तंत्र तक खड़ा नहीं कर पाए हैं. बिहार में पार्टी की इतनी बड़ी हार हुई पर किसी नेता की कोई जवाबदेही तय नहीं हुई, यही हाल उत्तर प्रदेश का रहा. लगभग सारे बड़े राज्य उनके हाथ से निकलते गए और कहीं भी ऐसा नहीं लगा कि पार्टी अपनी गलतियों से कोई सीख लेते हुए सुधारवादी कदम उठा रही हो.

उत्तर प्रदेश का उदाहरण लेते हैं. यहां 2012 के विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के गहन प्रचार अभियान के बावजूद कांग्रेस 28 सीटों पर सिमट गई. इसके बाद राहुल गांधी ने घोषणा की थी कि वे पूरे संगठन में आमूल-चूल परिवर्तन लाएंगे, और वे खुद उत्तर प्रदेश आते रहेंगे. उन्होंने कहा था कि वे भागने वालों में से नहीं हंै. लेकिन उनका आचरण इसके बिल्कुल विपरीत दिखा. उत्तर प्रदेश के नाम पर वे इन डेढ़ सालों के दौरान यदाकदा अमेठी आते-जाते रहे. संगठन में बदलाव के नाम पर आज तक सिर्फ उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष के पद पर निर्मल खत्री की ताजपोशी कर दी और विधानसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी प्रदीप माथुर को सौंप दी. इन दो प्रतीकात्मक बदलावों के अलावा और कुछ नहीं हुआ है. प्रदेश कांग्रेस कमेटी के पूर्व सचिव इमरान खान बताते हैं, ‘सिर्फ खत्री जी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने के अलावा और कुछ नहीं हुआ है. निर्मलजी आज अध्यक्ष बनने के डेढ़ साल बाद भी अपनी टीम का गठन नहीं कर पाए हैं. ऊपर से एक नई दुविधा और पैदा हो गई है. पूरे प्रदेश को 12 जोन में बांट कर सबके अलग-अलग जोनल कोऑर्डिनेटर बना दिए गए  हैं. यह व्यवस्था दिल्ली से थोपी गई है और दिल्ली को ही जवाबदेह है. उम्मीदवार चुनने से लेकर और तमाम फैसले का अधिकार इन जोनल कमेटियों को दे दिया गया है. अब प्रदेश कमेटी की भूमिका क्या होगी, इसे लेकर ही एक दुविधा पैदा हो गई है.’

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यूं होता तो क्या होता

यदि नंद कुमार पटेल जिंदा होते

छत्तीसगढ़ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष नंदकुमार पटेल यदि जीवित होते तो विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत के आसार बढ़ सकते थे. माना जाता है कि पटेल होते तो पार्टी की गुटबाजी पर लगाम रहती. दूसरा, केंद्रीय राज्य मंत्री चरणदास महंत को प्रदेश कांग्रेस का सर्वेसर्वा नहीं बनाया जाता. महंत के पीसीसी अध्यक्ष बनने से पटेल के किए सारे प्रयोग फेल हो गए. पटेल सभी दिग्गज नेताओं को तो एक मंच पर लाए ही थे, खाली बैठे कार्यकर्ताओं को भी उन्होंने पार्टी के काम में लगा दिया था. लेकिन उनके आकस्मिक निधन से पीसीसी में गुटबाजी फिर चरम पर पहुंच गई. वैसे भी महंत सर्वमान्य नेता नहीं हंै, ऐसे में महज छह माह में न तो वे कोई चमत्कार कर पाए, न ही उनकी ऐसी कोई क्षमता ही है.

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दिल्ली विधानसभा के नतीजों का एक और संदेश है. कांग्रेस के पास आज अपना कोई समर्पित वोटबैंक नहीं बचा है. शहरी झुग्गियों और मध्यवर्ग पर भाजपा और आम आदमी पार्टी ने कब्जा जमा लिया है. इसी तरह की समस्याएं कांग्रेस के सामने हिंदी पट्टी के ज्यादातर राज्यों में आ रही हैं. आजादी के बाद से लेकर 90 के दशक के शुरुआती दिनों तक जो दलित, ब्राह्मण और मुसलमान एक साथ कांग्रेसी छाते के नीचे इकट्ठा हो जाता था उसने अब अपने नए-नए ठिकाने ढूंढ़ लिए हैं. सपा, बसपा, आप, भाजपा जैसे विकल्पों ने कांग्रेस को विकल्पहीन बना दिया है.

यह स्थितियां बताती हैं कि पार्टी में समस्या इकहरी नहीं बहुपरतीय है. न तो इंदिरा-राजीव जैसा नेतृत्व है, न समर्पित वोटबैंक बचा है और न संगठन है. ले देकर उनके पास एकमात्र उम्मीद है सत्ता विरोधी लहर. पर मध्य प्रदेश, गुजरात, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने कांग्रेस की उस उम्मीद को भी चोट पहुंचाई है.

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